चलना ही ज़िंदगी है
चलना ही ज़िंदगी है


पूरी दुनिया भीषण संकट से गुज़र रही है। कोरोना हां कोविड 19 वायरस ने पृथ्वी के सबसे शक्तिशाली जीव मनुष्य के छक्के छुड़ा दीये है। उसके बड़े-बड़े दावे जैसे चाँद पर पहुंचने से लेकर कई ग्रहों की खोज,युद्ध मे उपयोग में लाए जाने वाले ख़तरनाक अस्त्रों-शास्त्रों को बनाने से लेकर उनके प्रयोग से बड़ी-बड़ी जंग जीतने के दावे और इन्हीं अस्त्रों-शास्त्रों से दुनिया मे तबाही मचाकर उसे नेस्त-नाबूद करने के दावे ,ज़िंदगी को आसान बनाने हेतु नित नए उपकरणों की खोज,धरती पर उसका एकाधिकार और वर्चस्व आदि-आदि सब धरे के धरे रह गए। हथेली पर एक यंत्र द्वारा पूरी दुनिया को मुठ्ठी में समेटने की तकनीक पर इतराने वाला मनुष्य केवल एक वायरस से जीतने के लिए ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा है। तूफ़ानी हवाओ और सुनामी से भी तेज़ दौड़ती ज़िंदगी को अचानक एक अदना सा वायरस इस तरह थमा देगा, इतनी भयंकर तबाही मचा देगा,एकसाथ पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगा यह किसी ने सोचा भी नहीं था।
हर बीमारी का इलाज ढूंढने वाले वैज्ञानिक भी युद्धस्तर पर उसका टीका तथा दवा खोजने में व्यस्त है। सफ़लता के क़रीब पहुँचते ही वायरस अपना रूप बदल-बदल कर वैज्ञानिको के समक्ष बड़ी चुनौती खड़ी कर देता है। आए दिन वह पैतरे बदल-बदल मानो वैज्ञानिकों और मनुष्यों ,डॉक्टरों की कठिन परीक्षा ले रहा है।
अब मनुष्य बेबस लाचार है। हमारे भारत देश में जनसंख्या के आधार पर पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। पर्याप्त उपकरणों की किल्लत के कारण सरकार के पास लॉक डाउन यानी ताला बंदी के अलावा कोई उपाय नहींं। और यह उपाय इस वायरस से और लोगों को संक्रमित होने से रोकने में काफ़ी हद तक कारगर भी सिद्ध हो रहा है। बड़ी-बड़ी इमारतों,बंगलों,अट्टालिकाओं में रहने वाले श्रीमंत जिनकी तिजोरियां नोटों से भरी है,घर में सुख के सभी साधन सजे है,लॉक डाउन काल मे अपने परिवार के साथ पंच पकवानों के स्वाद के साथ उन आधुनिक सुख-सुविधाओं का आनंद लेकर चैन की नींद सो रहे हैं।
सरकार वह तो करोड़ो मै मिले कोरोना राहत-कोश फ़ंड का हिसाब देने को तैयार नहीं। लगता है वह इस फ़ंड को डकार लेगी। अब भी वादों की भरमार के सिवा उसके पास समाज के एक गरीब मजबूर तबका जिसकी बदौलत ही तो ये महल अटारियाँ खड़ी हुई है,इन्हीं के मेहनत-पसीने से सुख सुविधाओं के साधनों का निर्माण हुआ है। किंतु वही समाज का एक वर्ग जो भारत के विभिन्न प्रदेशों के छोटे- छोटे गाँव से बड़े-बड़े महानगरों में रोज़ी-रोटी की तलाश में आकर मेहनत कर अपना पेट भरता था। रोज़ मज़दूरी एवं अन्य छोटे-छोटे कामों के ज़रिए अपनी आजीविका चलाता था। लॉक डाउन होने से सभी काम-काज ठप्प हो गए। रोज़ कुआं खोद के पानी पीने वाले ये मज़दूर भूखमरी के शिकार हो रहे है। लेकिन ज़िंदगी और मौत कहाँ किस के लिए रुकती है। आम जनता,कुछ भले लोग,स्वयं सेवी संस्थाएं मिलकर रोज़ कच्चे अनाज,आवश्यक सामग्री से लेकर पके हुए खाने के पैकेट बांट रहे है। सरकार भी मुफ़्त में विभिन्न योजनाओं के तहत गेंहू-चावल बांट रही है। तु मदद हर ज़रूरतमंंद तक पहुँच नहीं रही। इन सब से समस्या का समाधान हो नहीं पा रहा है।
लॉक डाउन के चलते काम-धंदे बंद होने से महानगरों,नगरों में करोड़ों की संख्या में मज़दूर बेकार हो गए। जब खाने-पीने के लाले पड़ गए तो उन्होंने अपने-अपने गाँव का रुख़ करने का निर्णय लिया। किंतु बस,रेल,टैक्सी आदि-आदि यातायात के साधनों के ठप्प होने के कारण वे शहरों से पैदल ही अपने-अपने गाँव जाने का निर्णय ले चल पड़े सैंकड़ों-हज़ारों मीलों की यात्रा पर। किसी के साथ बूढ़े माँ-बाप तो किसी के साथ छोटे-छोटे,नन्हे-मुन्ने बच्चे जो हमारे देश का भविष्य है चल पड़े बिन-पानी,बिन खाने के और तो और पैरों में चप्पल नहींं, खुले आसमान से मई की गर्मी में पारा 45 डिग्री जिसकी चिलचिलाती धूप में ये झुलसते हुए गर्म तपती सड़को पर चलते चले जा रहे है।
चलते-चलते उनके पाँव में छाले पड़ गए उन छालों की पीड़ा को सहकर भी क़दम न रुके। ऐसे ही एक गर्भवती महिला जिसका प्रसव समय नज़दीक है मज़दूरों के छोटे से काफ़िले के साथ चल रही है,रास्ते मे उसे प्रसव पीड़ा हुई और अस्पताल की सुविधा तो दूर की बात है ना कोई दाई ना पानी ना कोई सामान । यहां तक कि सूनी सड़क पर कोई गाड़ी-घोड़ा भी उपलब्ध नहीं जिस में बिठा उसे नज़दीक के अस्पताल ले जाया जाते। ऐसी दीन-हीन परिस्तिति में उसने चिलचिलाती धूप में सूनी सड़क पर बच्चे को जन्म दिया। क़ाफ़िले की औरतों ने अपने पल्लुओं से उसके चारों ओर पर्दा बना उसकी सम्भव मदद की। लेकिन वे उसे ना दर्द कम करने की दवा दे सकी न ही कुछ खाने को।
बच्चे और उसे वहीं दो घंटे का विश्राम करवा कर चल पड़ा काफ़िला अपनी मंज़िल की ओर। उस नवजात शिशु को चिलचिलाती धूप में पल्लू में छिपा गर्मी से बचाने की नाकाम कोशिशें वह औरते बारी-बारी करते हुए साथ ही उस प्रसूता को प्रसूति के बाद तुरंत पैदल लंबी दूरी तय कराने ढाढ़स बंधाते चलने लगी। विकासशील देशों में गिने जाने वाले भारत देश की यह भयावह तस्वीर है। कहां है सरकार के दावे,वादे। लगता है सरकार के इरादे कुछ और है। कहां खो गए संविधान में दिए हर नागरिक को जीने के अधिकार... बाल विकास, बल श्रम...?