अपना अपना दर्द
अपना अपना दर्द


22 मार्च से कोविड-19 यानी कोरोना संक्रमण तेज़ी से फैलने के कारण प्रधानमंत्री की लॉकडाउन की घोषणा के चलते संपूर्ण देश में लोग अपने-अपने घरों में क़ैद हो गए।होते भी क्यों न? जान पर आफ़त जो बन आई थी। वरना मानव, क्या एक दिन भी घर में क़ैद रह सकता है भला? सच, जान है तो जहान है।
चूंकि कोरोना हाथ मिलाने, एक दूसरे के संपर्क में आने से फैलता है सो सामाजिक दूरी बनाना अत्यावश्यक तो है ही साथ ही मजबूरी भी है, ज़िन्दगी बचाने की। सभी घरों में झाड़ू, पोछा, बर्तन,कपड़े धोने, कार धोने, झाड़ों में पानी देने, खाना बनाने, रसोई के अन्य काम-काज, रोटी बनाने आदि के लिए जो नौकर-नौकरानियां थी सभी को लॉक डाउन तक छुट्टी दे दी गई थी। मध्यम वर्ग से लेकर सो कॉल्ड उच्च वर्ग, अफसर वर्ग एवं धनवान लोगों के घर की औरतें भी अब रोज़मर्रा के काम करने को विवश थी। ज़िंदगी की गाड़ी चल रही थी।
आला अ
फ़सर के घर लॉक डाउन के बाद पहली तारीख़ को बर्तन धोने वाली बाई अपनी पगार लेने पहुँची। मेम साहब ने उसे बिना किसी चीज़ को छुए गेट के बाहर ही खड़े रहने का आदेश दिया। अंदर से उसकी पूरे महीने की पगार लेकर मेम साहब ने गेट के बाहर बनी पायरी पर रख दिया। महरी ने पैसे उठाए और वहीं से संवाद साधा,"मैडमजी कल से काम पर आ जाऊँ,घर बैठे बैठे शरीर मे जकड़न और हाथ-पैरों में दर्द होने लगा है, काम-धाम करते रहते है तो शरीर दर्द रहित रहता है।"मैडम कुछ जवाब दिए बिन सोचने लगी,"कैसी विडंबना है, मुझे काम करने से शरीर मे जकड़न और हाथ पैरों में दर्द हो रहा है और एक यह है कि इसे बिना काम किये ही दर्द हो रहा है।" मैडम को सोच में डूबा देख महरी ने आवाज़ दी,"क्या हुआ मैडम जी। कहाँ खो गई आप? मैडम केवल न कि मुद्रा में गर्दन हिला केवल इतना ही कह पाई"ऊँ-हूँ।"