प्रेम की जीत
प्रेम की जीत
क्या ये वही थी? नहीं मेरा भ्रम था! नहीं वही थी, फिर इस हाल में कैसे क्यों? न जाने कितनी उलझनों से जूझता मैं घर लौट आया! मन चाह कर भी इस द्वंद्व से बाहर नहीं निकल पा रहा था। क्या मेरी आँखों ने जो देखा वह सच था!उसकी ऐसी हालत! क्या हुआ होगा, आज इतने वर्षों बाद, वह इस शहर में क्या ये वही थी नहीं शायद मुझे भ्रम हुआ है, उसे तो अपनी ससुराल में होना चाहिए। सोचते हुए मैं अतीत के गहरे समंदर में गोते लगाने लगा।
हमारे घर के सामने वाले मकान में ही तो रहने आए थे वो लोग, कुल मिलाकर चार लोग थे परिवार में, बड़े ही मिलनसार थे वे लोग, खासकर अंकल उनसे आते- जाते बात हो ही जाती थी,अक्सर पढ़ाई-लिखाई के बारे में बातें होती। उनका बेटा बारहवीं की परीक्षा दे रहा था, बेटी काॅलेज में पढ़ रही थी। अपने अंतर्मुखी स्वभाव के कारण मैं, बस जो वह पूछते, उसी का जवाब देता था। उनके घर तो मैं जाता ही नहीं था और फिर.…मैंने उसे देखा और देखता रह गया काले लंबे बाल गोरा रंग, लंबी-छरहरी काया वह छत पर कपड़े सुखा रही थी, मैं नजरें नहीं हटा पा रहा था। फिर तो न जाने क्या हुआ मेरी बेचैनी दिनों-दिन बढ़ने लगी बस उसकी एक झलक पाने के लिए बेकरार रहने लगा। शायद ये प्यार था या महज आकर्षण, पर मैं न तो कभी अपने दिल की बात कह पाया, न ही उससे खुल कर बात कर पाया। अपने दब्बू स्वभाव के कारण मैंने दो वर्ष ऐसे ही बिता दिए। बस एक बात थी कि उसे देखे बिना चैन न मिलता !! हर वक्त यही कोशिश रहती कि उसका दीदार हो जाए। मेरे बारे में वह क्या सोचती है यह जानने का प्रयास मैंने कभी नहीं किया। हां इन दो वर्षों में उससे
कई बार मेरा सामना हुआ उसने देखा भी और वह मुस्कराई भी यहां तक कि औपचारिक बातचीत भी हुई,पर न उसने कुछ कहा और मैं अपनी झिझक के कारण कभी दिल की बात लबों पर नहीं ला पाया। मन में कल्पनाओं के पुल बनाया रहा और रोज़ उससे बात करने का संकल्प लेता रहा लेकिन उसके सामने आते ही हिम्मत साथ छोड़ देती। और फिर एक दिन अंकल उसकी सगाई का निमंत्रण देने आ गए मेरा दिल रो उठा। पर हिम्मत न हुई, कुछ कहने की उसका नाम पुलक था मेरे देखते-देखते उसकी सगाई हुई। फिर शादी भी, शादी के रोज उसने मुझे तीक्ष्ण दृष्टि से देखा था उस निगाह की चुभन ने महसूस कराया था कि सिर्फ मैं ही नहीं, वह भी तो क्या वह भी यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया। वह चली गई, कुछ समय बाद अंकल का मकान बन गया और वे वहां रहने चले गए। पर मैं पुलक को नहीं भुला पाया,आज छः साल बाद वह मुझे दिखी, उसकी हालत सही नहीं लग रही थी मेरा मन व्याकुल हो उठा था, क्या करूँ ? पुलक को देख सारी बातें और अपनी कमजोरियाँ याद आ गई थी और ऊपर से उसका दुखी और उदास चेहरा, उजड़ी हुई सी
जिंदगी मुझे व्याकुल कर रही थी। पुलक से मिलने को मन बेताब हो रहा था।
सुबह माँ फिर एक लड़की की तस्वीर ले आई और कहने लगी , देख अब इसे मना मत करनाब त्तीस का हो चला हैं , कुछ तो सोच! रख दो, देख लूंगा अनमने भाव से बोला मेरा मन तो पुलक में अटका था, चलो अंकल के यहां जा कर देखते हैं, क्या वास्तव में पुलक आई हुई है। उनके यहां कभी-कभार जाता रहता था। उस एहसास के लिए पुलक के लिए!! निकल पड़ा, अंकल रास्ते में ही मिल गए, उनके कदम थके हुए थे चेहरे पर उदासी साफ दिख रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई बोझा घसीट रहे हो। चलो, अंकल! घर छोड़ देता हूं!! हूं..कहते हुए वे गाड़ी में बैठ गए आपकी तबियत तो ठीक है ना...क्या हां बेटा! हम घर पहुंच गए अंकल गाड़ी से चुपचाप उतरे, बिना बोले... फिर पलट कर देखा और कहा, चाय पी जाते बेटा! इसी का इंतजार था मुझे, जरा भी देर न की.! चाय पुलक ही लेकर आई...उदास-बुझा चेहरा...बीमार जैसी लग रही थी...अंकल चुप थे मुझसे अब बर्दाश्त नहीं हुआ..."अंकल सब खैरियत...ये आपकी बेटी को क्या हुआ?"
अंकल के मन का गुबार फूट पड़ा.."दहेज़ लोभियों ने मेरी फूल-सी बच्ची को कितना सताया... कितनी माँगें पूरी की पर उनकी भूख नहीं मिटी। आधी-रात को धक्के मारकर घर से निकाल दिया। ये यहां आई तो शरीर पर जाने कितनी चोटें थीं केस कर दिया है और तलाक के लिए भी नोटिस भेज दिया है कल तारीख है, देखें क्या फैसला आता है?"
"घबराए नहीं अंकल! सब ठीक होगा" उन्हें आश्वासन दे घर के बाहर निकला तो लगा कहीं तो कोई मुझे देख रहा है, पलट कर देखा...कोई नहीं... अचानक नजर उस खिड़की पर गई, जो गैलरी में ही थी, दर्द से भरी निगाहें मेरी ओर देख रही थी, एक ऐसा दर्द जिसने मुझे हिला दिया। मन बहुत व्याकुल हो उठा। लग रहा था .…उसके पास जाऊँ उसके दर्द को बांटने की कोशिश करूँ पर किस हक से??
चला आया, चैन तो सारा उड़ चुका था, बस पुलक ही हर तरफ दिखाई दे रही थी। क्या करूँ मैं.? दिल से एक ही आवाज़ आ रही थी..उसे तेरी जरूरत है।पर घरवाले मानेंगे, एक तलाक़शुदा को स्वीकार करेंगे, यही उथल-पुथल चलती रहती दिमाग में। फिर महीना बीता, माँ बराबर विवाह के लिए दबाव बना रही थी आखिर में मैंने बोल ही दिया "मैं अपनी पसंद की लड़की से ही शादी करूँगा।आप मुझे मजबूर न करें।"
जब पसंद की लड़की की बात सामने आ गई तो माँ ने उसके बारे में पूछना शुरू कर दिया.."कौन है? माँ -बाप घर-परिवार कैसा है?? तू कबसे जानता है??"
अब स्थिति मेरे लिए बहुत ही विचित्र हो गई थी। एक युद्ध मेरे मन में और एक घर में छिड़ गया था। माँ तो उठते-बैठते विवाह के अलावा कोई बात ही नहीं
करती। पापा ने भी कह दिया था कि, "हमें मिलवाओ उन लोगों से ..अब इंतजार किस बात का है??" क्या जवाब देता? अभी तो ये भी पता नहीं था कि
पुलक के मन में क्या है? क्या वह विवाह के बंधन में फिर से बंधना चाहेगी..? तमाम उलझनों में उलझा हुआ था मेरा मन, पहले ही अपने प्रेम को खो चुका
था, अब समय था कि उसके आँसुओं को पोंछने का, अब कोई ग़लती मैं नहीं करना चाहता था। फिर पुलक से मिला, उसके मन की बात भी तो जाननी थी, उसने पहले तो बात नहीं की, मैंने उसे बाहर मिलने के लिए बुलाया..वह आई, हल्के रंग के सूट में उसकी उदास काया मुझे झकझोर रही थी।
आँखों में वीरानी सी छाई थी..कुछ देर हमने इधर-उधर की बातें की...वह बस हूं-हां मैं ही जवाब दे रही थी।
मैंने पूछा- "आगे क्या सोचा है तुमने पुलक?"
"कुछ नहीं,अब सोचने को बचा ही क्या है, ये ज़ख्म इतन जल्दी तो नहीं मिटेगे", दर्द से सराबोर हो उसकी आँखे छलछला उठीं। "देखो..जो बीत गया सो बीत गया। मुझे तुमसे बस यही कहना है कि मैंने जबसे तुम्हें पहली बार देखा था, तबसे सिर्फ तुम्हें ही प्यार किया है, बता नहीं पाया ..इसे चाहे मेरी ग़लती समझो या नादानी या और कुछ..पर मैंने इतने सालों में सिर्फ तुम्हारे ही बारे में सोचा है,अगर तुम चाहो तो मैं अपनी ग़लती सुधारना चाहता हूं। बस पुलक एक मौका दे दो।" "मुझ तलाकशुदा पर रहम न खाएं आप..आपको एक से बढ़कर एक लड़कियाँ मिलेंगी..क्यों मेरे लिए आप अपना जीवन खराब कर रहें हैं।" इतना कहकर वह जाने लगी। "सोच लो अच्छी तरह से पुलक.…मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार करूंगा, मुझे सिर्फ तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बनाना है.…और मैं तुम पर कोई रहम नहीं कर रहा। बस अपनी ग़लती सुधार रहा हूं।"
इसके बाद कई दिन गुजर गए, मैं अंकल के यहां आता-जाता रहा। पुलक पहले से बहुत बेहतर हो गई थी। अब हमारी बातचीत भी हो जाती थी। पर वह प्रश्र अभी अनुत्तरित था। और एकदिन उसने सब लिख कर दे दिया...वह भी मुझे हमेशा से चाहती थी, पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सकी...तो मैंने कौन सी वीरता दिखाई थी...उसे किसी और का होते देखता रहा? अब वह फिर से नए सिरे से जीवन जीना चाहती है, मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा।अब दो परिवारों को मिलाना था..यह भी मुश्किल काम था.. लेकिन कहीं से तो शुरुआत करनी ही थी।
अंकल हमेशा पुलक के भविष्य को लेकर चिंतित रहते, एक दिन मैंने उनसे अपने मन की बात हिम्मत करके कह दी, "तुम्हारे मम्मी-पापा मानेंगे..!!सोच लो बेटा, मैं अब पुलक को और दुखी नहीं देख सकता, अगर तुम्हारे मम्मी-पापा माने तो ही" "जी,अंकल!!"
मैं वहां से आ गया, एक उलझन...एक डर समाया था मन में, शाम को खाने के बाद मैं पापा के पास गया, हिम्मत जवाब दे रही थी, "क्या बात है कुछ कहना है..? हां..हां, बोलो क्या बात है?" पापा का गंभीर स्वर गूंज उठा। "पापा! मैं शादी करना चाहता हूं।
"हां! तो हम भी तो यही चाहते हैं", "पर मैं पुलक, वो सिंह अंकल की बेटी से...." "क्या??? पापा खड़े हो गए थे। दिमाग तो ठिकाने है तुम्हारा!"
"पापा! मैं हमेशा से उसे ही चाहता था, पर नहीं कह पाया, पर अब मैं उसे अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता हूं।" "तलाक़शुदा को...?"
"इसमें उसका क्या दोष पापा....वो लोग दहेज़ लोभी थे, उन्होंने ज्यादती की....तो वह क्या करती??" "बहुत बड़े हो गए हो बेटा,अब तक तो मेरे सामने बोलते न थे,आज बहस कर रहे हो, बढ़िया!!"
"नहीं पापा बहस नहीं, बहुत कोशिशों के बाद इतनी हिम्मत जुटा पाया कि आपसे अपने मन की बात कह सकूं... मैंने प्यार किया है उससे,अगर आपका आशीर्वाद मिल जाए तो मैं उसका जीवन संवार सकता हूं... इसमें गलत क्या है??"
पापा सुन रहे थे, तभी मम्मी ने साफ कहा, उनके जीते जी तो ये सब न होगा, लोगों की बातें कौन सुनेगा, हम एक तलाकशुदा को अपने घर की बहू तो नहीं बनाने वाले!
"तो आप लोग भी सुन लो... मैं तो उसी से विवाह करूँगा, नहीं तो फिर करूँगा ही नहीं, आप लोगों को जो सोचना हो सोचो, मैं किसी का जीवन संवारना चाहता हूं, तो इसमें गलत क्या है ?" अपनी सारी हिम्मत लगा दी थी मैंने ,अपने मन की बात कहने में!
और फिर एक दिन, पापा ने मेरी बात को समझा..."चलो, बेटा भर देते हैं उसके जीवन में ख़ुशियाँ" "क्या....!सच में...!"
"हां बेटा! मैं तुम्हारी बात समझ गया, तुम सही हो, उसका क्या कसूर है, उसे भी जीने का हक है..रूढ़ियां तोड़ने से ही टूटती हैं, बातों से नहीं..चलो सिंह साहब के यहां शगुन लेकर चलते हैं!"
बस फिर क्या था, मैं पुलकित हो उठा...पुलक मेरी जीवनसाथी बनने जा रही थी, सारे रीति-रिवाजों के साथ...ओह!आखिर मैं मुझे मेरा प्यार मिल ही रहा था,
पुलक, उसकी तो खुशी का ठिकाना न था,अब वह फिर से पुलकने लगी थी, बुरा समय बीत गया था...प्रेम जीत गया था।

