व्यथा
व्यथा
वो मेरा भाई था। बस मुझसे दो साल छोटा। हम दोनों को जैसे भगवान ने एक-दूसरे के लिए ही भेजा था। कहने को हम पांच भाई-बहन थे ,पर हम दोनों में एक-दूसरे के प्रति
जो प्यार, परवाह और लगाव था, वो किसी में नहीं था।
मेरी शादी अठारह साल की उम्र में ही हो गई थी,सबसे ज्यादा दुख मुझे अपने भाई से बिछड़ने का था। वह भी
मेरे जाने से बहुत उदास हो रहा था, लेकिन उसने कभी मुझे दूरी का अहसास नहीं होने दिया। छोटा होकर भी
वह मेरे साथ हमेशा खड़ा रहा। साल में चार-पांच चक्कर वह जयपुर के लगा लेता ,चाहे एक दिन के लिए ही आए।
मेरे लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती थी किंतु नहीं पता था, बिल्कुल नहीं पता था कि एक दिन उसके बिना भी जीना पड़ेगा। आज आंखों में उसकी मुस्काती छवि है। दिल में यादों का समंदर है और अथाह वेदना के भंवर में
डूबी हुई मैं, पल-पल जैसे अंदर ही अंदर मरती हुई। दो साल हां ये दो साल सदियों से लंबे जिन्हें मैंने कैसे काटा है, मैं ही जानती हूं। ऐसा लगता है मेरा बचपन मर गया है। कैसे भूलूं वे फटी हुई आंखें जो आई सी यू में मुझे देख रही थी, जिनसे निरंतर आंसू बह रहे थे, कैसे भूलूं की कोई पूजा कोई आस्था काम न आई,कैसे भूलूं कि आज तक ये न पता चला कि उसे हुआ क्या था,कैसे भूलूं कि डाक्टर कैसे कसाई की तरह उसके सूजे बदन में इंजेक्शन चुभोते थे, कैसे भूलूं कि इतनी सुविधाएं ,इतना पैसा,सबका प्यार भी उसे जीवनदान न दे सका। कैसे भूलूं जब आसीयू में मैंने कोमा में चले गए अपने भाई के कान में फुसफुसा कर कहा कि अब तुम इस देह का मोह त्याग दो क्योंकि हम चाह कर भी तुम्हें लौटा नहीं सकते
और तुम्हारी दुर्दशा अब देखी नहीं जाती,कैसे भूलूं कि कोमा में होने पर भी उसने मेरी आज्ञा का पालन किया और मेरे पीठ फेरते ही प्राण त्याग दिए।
यह सत्य मेरे लिए झेलना बहुत मुश्किल है, अभी भी यह लिखते हुए मेरी आंखों से अनवरत आंसू बह रहे हैं। काश मैं उसे मृत्यु मुख से लौटा पाती।