प्रेरणा

प्रेरणा

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बात सन् २००० की है,मैंने हिंदी साहित्य में एम फिल किया था और यह मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

क्यों? वो इसलिए कि मेरा विवाह जब हुआ तो मैंने सिर्फ हायर सेकंडरी पास किया था।पढ़ने का शौक और पढ़ाई छूटने का मलाल मन को उदास करता रहता। विवाह जल्दी करने की प्रथा मेरी पढ़ाई भर भारी पड़ी थी। फिर भरे-पूरे ससुराल में तो पढ़ाई की बात सोचना आसमान के तारे तोड़ने के समान था। मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी।सारे सपने टूट चुके थे। पढ़े-लिखों के बीच मैं खुद को

अंगूठा छाप महसूस कर रही थी।तब मेरे पति ने मेरी व्यथा को समझा और मुझे प्राइवेट ही बीए का परीक्षा देने को कहा।दिनभर काम और रात को पढ़ाई,बच्चों को होमवर्क कराते हुए उनके साथ खुद की पढ़ाई मेरे लिए

किसी जंग से कम नहीं थी,पर पढ़ना तो था ही।प्रथम श्रेणी से परीक्षा उत्तीर्ण की।फिर एम ए और एम फिल।एम फिल में यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थान प्राप्त किया ।

पति की प्रेरणा से मैं अब डिग्री धारकों में सम्मिलित हो गई थी।तभी एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल से मुझे हिंदी शिक्षण का बुलावा आया। मैं अचंभित रह गई।ये सब कैसे और क्यों ?

पति मुस्करा रहे थे।बोले दिन का स्कूल है,बारह से छः का,तुम अब पढ़ाना शुरू करो।

हंसी-खेल है क्या,आज से पहले पढ़ाया है किसी को जो स्कूल में पढ़ाओ।मैं घबरा गई थी।

पति न माने ,स्कूल ले गए। वहां के डायरेक्टर मेरी शिक्षा से और उन परिस्थितियों से जिनमें मैंने शिक्षा ग्रहण की थी, बहुत प्रभावित हुए थे, उन्होंने उसी दिन मुझे नवीं कक्षा को पढ़ाने के लिए कहा ।मेरे तो होश फाख्ता हो गए।"सर मैं कैसे??"

"इसमें घबराने की क्या बात है बेटा?अपने उस शिक्षक को याद करो जिसके पढ़ाने के ढंग ने तुम्हें प्रभावित किया हो,बस।"

बस! सत्तर बच्चों की क्लास !और बस! मैं घबरा गई।

दो दिन का समय लेकर इस प्रण के साथ कि ये मेरे बूते का काम नहीं,वापस आ गई।घबराहट इतनी कि मैं बीमार पड़ गई।सर का बार-बार फोन आ रहा था।मेरे पति बोले कि "ऐसे ही हिम्मत हार गई।एक बार कोशिश तो करो।"

हार कर मैं विद्यालय पहुंची ।नवीं और ग्याहरवीं कक्षा को पढ़ाने का कार्य था।राम का नाम लेकर कक्षा में प्रवेश किया। विद्यार्थियों ने नया शिक्षक समझ शोर मचाया।बस फिर क्या था, मैं भूल गई कि मैं नयी हूं,मुझे कक्षा को भी नियंत्रित करना था और पढ़ाना भी।सो मैंने उनसे उनका

परिचय पूछते हुए पिछले पढ़े हुए पाठों में से प्रश्न पूछने प्रारंभ किए। नहीं आने पर उनका उत्तर समझाया। बच्चों को रूचि लेते देख मेरा उत्साह बढ़ा।जब मैं कक्षा से निकली तो सबने एक साथ कहा-"मैम!आप कल भी लोगी

न हमारी क्लास!"

"मुझे नहीं पता !"कहकर मैं चली आई। छुट्टी के समय तक हर उस क्लास की फरमाइश डायरेक्टर सर के पास पहुंच गई थी,जिसे मैंने पढ़ाया था। चलते समय सर ने पीठ थपथपाई और बोले-"आज तूने एक प्रशिक्षित शिक्षक केसमान कक्षा संभाली। मैं खुश हूं ,अगले साल से तू सिर्फ बोर्ड की कक्षाएं पढ़ाएगी।"

मुझे घर पहुंचने पर भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं शिक्षिका बन गई। बहुत ही प्रेरणादायक थे सर के बोल।जिनके कारण मैं बोर्ड कक्षाओं के उत्कृष्ट परिणाम लाने

वाली शिक्षिका बनी। यहां तक कि कोई विद्यार्थी कभी थर्ड डिवीजन भी नहीं आया।अधिकतर फर्स्ट या सेकेंड।यही वे लोग थे ,जिनकी प्रेरणा ने मेरे जीवन को बदल कर

रख दिया।



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