अनहोनी
अनहोनी
"माँ मैं घर आना चाहता हूँ ,यहाँ सब ठप्प हो गया है।बस-ट्रेन भी बंद है,खाने के लाले पड़ रहें हैं।ऊपर से महामारी।" बेटे की दुखभरी आवाज फोन पर सुन फुलवा की आँखों से गंगा-जमुना बह निकली।
'आजा बेटा !अपनी माँ के पास।'इतना ही बोल पाई वह।फोन हाथ में पकड़े वह यादों में खो गई।
कैसे मन्नतों से उसकी गोदी में भगवान ने रतन के रूप में खुशियाँ भेज दी थी।बड़े
जतन से पाला था ,छोटे से गाँव में पति-पत्नी
दोनों दिहाड़ी करते थे।फूस की उस कच्ची झोंपड़ी में रतन के आने से बड़े-बड़े सपने पलने लगे थे।अक्सर रतन के बापू कहते-"देखना फुलवा अपना रतन सरकारी अफसर बनेगा,ये बेगार की जिंदगी मैं उसे नहीं जीने दूँगा।"लेकिन नियति जैसे कुछ और ही सोच बैठी थी, बीमारी रतन के बापू को ले गई ।
मजूरी करके जैसे-तैसे उसने रतन को पाला।गाँव के सरकारी स्कूल में आठवीं तक पढ़ाई कर रतन पड़ोस वाले चाचा के संग नौकरी के लिए मुंबई चला गया। लेकिन होनी किसको पता।अभी तीन साल ही हुए उसे गए और अब ये महामारी... फुलवा फोन पकड़े बैठी थी।कैसा होगा उसका लाल?
कहते हैं मुंबई बहुत दूर है..कब आएगा ?सोच-सोच कलेजा बैठ रहा था।चार दिन हो गए फोन आए... बार-बार फोन करती ..घंटी जाती कोई नहीं उठाता!
उसकी निगाहें द्वार पर टिकी थी... लेकिन उसके पेट में आग लगी थी.. अचानक फोन की घंटी बजी..फोन उठाते ही उसे बगल वाले बिरजू की आवाज सुनाई दी-"भौजाई रतन!"
"कहाँ है मेरा रतन?बिरजू कुछ तो बोल!मेरा कलेजा काँप रहा है।"
"भौजाई हम पटरी-पटरी आ रहे थे,रात को पटरी पर ही सो गए, मैं उठके तड़के शौच के लिए गया,तब तक मालगाड़ी...." इससे ज्यादा बिरजू कुछ न बोल पाया...फुलवा फोन को देखकर फूट-फूटकर रोती रही..उसे विश्वास नहीं हो रहा था,ऐसा लग रहा था कि रतन बोलेगा-"देख माँ मैं आ गया हूँ,बस तेरी गोद में पहुँचना बाकी है।"
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