वजूद
वजूद
रामकिशोर आज बहुत खुश थे, जैसे सिर से कोई बोझ उतर गया हो और होते ही क्यों न उनकी बेटी नीता का रिश्ता पक्का हो गया था। नीता अभी अठारह की ही थी, पर जमाने को देखते हुए उन्होंने जल्दी उसके हाथ पीले करना उचित समझा।
रामकिशोर कस्बे के पोस्ट आफिस में पोस्टमास्टर थे और उनका कस्बे में बहुत सम्मान था। परिवार में पत्नी, दो बेटी और एक बेटा था। मां-बाप गांव में रहते थे। चूंकि गांव पास में था सो गांव वालों का आना-जानालगा रहता। सभी की एक ही राय होती कि लड़की को समय से विदा कर देने में ही भलाई है, फिर समाज में घटित घटनाओं पर चर्चा होती।
सुन-सुनकर उनका जी घबराता। उन्होंने लोगों से कह रखा था, लड़का बताने को। इसलिए जो रिश्ता आया उस पर निर्णय लेने में देर न की।
नीता पिता के सामने कुछ न बोल पाई। उसके सारे सपने मन में ही दम तोड़ बैठे। पढ़ने का सपना टूट गया। मां से हिम्मत कर बोली भी कि अभी नहीं करनी शादी लेकिन
मां ने डांट दिया -"क्यों नहीं करनी है, हमारी तो तेरे से छोटी उम्र में हो गई थी। हम जो कर रहें हैं उसमें ही तेरा भला है। "आखिर बेटियों को घर में बिठा कर थोड़े रखा
जाता है, वो तो पराई होती हैं। "
नीता सोच नहीं पा रही थी कि विवाह से मेरा भला कैसे होगा? लड़के के बारे में भी उसे इतना पता था कि बीमा का काम करता है। जब वह देखने आया था, तो कोई
बात भी नहीं हुई थी। अपने टूटे सपनों के खंडहर पर नीता भावी जीवन की आशंकाओं के महल बना रही थी। कैसे लोग होंगे ?कैसा परिवार होगा ?वह अपने घर को
छोड़ कैसे रह पाएगी ?
तमाम आशंकाओं के बीच आखिर विवाह का दिन भी आ गया। खूब धूमधाम से विवाह हुआ। दुल्हन बनी नीता अपनी ससुराल पहुंच गई। परिवार काफी बड़ा था। सभी साथ ही रहते थे। दो जेठ, जेठानी, सास-ससुर, ननद, बच्चे कुल मिलाकर बारह सदस्य थे, अब नीता के आने से एक जन और बढ़ गया था। नीता अब छोटी बहू बन गई थी। थोड़े ही दिनों में नई बहू का तमगा उतर गया। सारे घर का कार्य नीता पर आ पड़ा। सबको अपने-अपने हिस्से का आराम चाहिए था। बेचारी नीता चकरघिन्नी सी घूमती रहती। पति संकोची स्वभाव के थे। सबके सामने कम बोलते थे। देर रात कमरे में थकी-हारी नीता जब पहुंचती तो पतिदेव प्रतीक्षा करते दिखते। उससे उसके मन की बात सुनने की जगह अपना रात्रि कालीन पतिधर्म निभा चैन से सो जाते।
नीता जागती हुई छत ताकती रहती और मन ही मन सोचती कि यही प्यार है। कोई भी तो उसके सुख-दुख की बात नहीं सुनता। कभी इन्होंने ये नहीं पूछा कि मुझे क्या चाहिए?क्या अच्छा लगता है? कहीं घर से बाहर नहीं ले गए?अपनी नौकरों जैसी बंधी-बंधाई जिंदगी उसे बोझ लगने लगी थी। उसे लगने लगा था कि उसका मन मर रहा है। धीरे-धीरे विवाह को छह माह हो गए थे। इस बीच सिर्फ पगफेरे के लिए ही वह मायके गई थी। पिता ने चलते समय अच्छे से समझा दिया था कि वह अब मायके के सपने न देखे। अब उसका सबकुछ वहीं है। क्या मायके से उसका संबंध ऐसे ही खत्म हो सकता है?क्या विवाह के बाद बेटियां इतनी पराई हो जाती हैं? ऐसे तमाम प्रश्नों में उलझी नीता की न जाने कब आंख लग गई।
सुबह सासू की कर्कश आवाज से उसकी नींद खुली। उसने स्थिति को समझने का प्रयास किया। पता चला उसकी ही तारीफों के पुल बांधे जा रहे हैं। भागती हुई सी कमरे से निकली और अपराधी की तरह सिर झुकाए अपने अपराध सुनने लगी, शोर सुन पतिदेव भी आ गए । उन्हें देखते ही सासू जी सुनाते हुए बोली-देख बबुआ!समझा दे अपनी बीबी को हमें आंखें न दिखाए। एक तो दिन चढ़े उठती है और ऊपर से ऐसे जताती है, जैसे कहीं की महारानी है।
पतिदेव तुरंत बोले-क्या नाटक है नीता ! रहना है तो ढंग से रहो नहीं तो चलती बनो, मैं अपनी मां और भाभियों की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करूंगा।
नीता अवाक सुन रही थी। काम सारा पड़ा था। सब बैठे हुए थे और उसे इतना सब कुछ सुना दिया।
"अब नाश्ता -वाश्ता बनेगा या मातम मनेगा"ससुर जी की गरजती आवाज गूंज उठी। नीता रसोई में चली गई। बुझे मन से काम निपटाने लगी। पति के लिए नाश्ता लेकर गई।
"जी, नाश्ता कर लीजिए। "
"रख दो और सुनो आज जो हुआ दोबारा नहीं होना चाहिए।"
लेकिन मेरी कोई गलती नहीं थी ?
तो क्या मेरी मां झूठ बोल रही थी ?
मीता चुप, क्या बोलती ? हां बोल नहीं सकती थी क्योंकि अभी बवाल मच जाता और नहीं बोलती तो अपनी ही गलती को स्वीकार करती। समझ नहीं आ रहा था कि पतिदेव उसकी भावनाओं और तकलीफों को समझने की जगह उसे ही क्यों सीख दे रहे थे ?
दिन भर घर का माहौल तनाव पूर्ण रहा। मीता तो गुमसुम हो गई थी। इस पर भी एक दो-बार सुनने को मिला कि आज महारानी जी का मुंह फूला हुआ है। छोटे घर की
लड़कियां ऐसी ही होती हैं। अरे!मैंने तो पहले ही राकेश (मीता का पति) के बाबूजी को चेताया था कि ऐसे टटपुंजियों के मुझे ब्याह नहीं करना। ना कोई तमीज ना सलीका। देखो मेरी बड़ी बहू को ! अपने मैके से लाई ठोक-बजा कर परखा। कैसे रईस मां-बाप की बेटी है। और दूसरी तो नौकरों-चाकरोंमें पली-बढ़ी। फिर भी कितना सलीका है। एक ये महारानी !
सासू न जाने किससे फोन पर बतिया रही थीं और उसकी तारीफों के पुल बांध रहीं थीं। अरे ! बहना संस्कार तो परिवार से ही आवे हैं, लुट गए हम तो, हमारे हीरे से लड़के को कहां कंगालों के यहां ब्याह दिया। बाप तो ऐसे लापता है जैसे अपने सिर का बोझ उतार दिया हो !
अरे नहीं बहना ! इतने तीज-त्योहार निकल गए। शक्ल न दिखाई छोटी के बाप ने। एक इन दोनों के मैके वालों को देखो कितना मान-सम्मान करें हैं, छोटो सो अवसर क्यों
न हों, आके खड़े हो जावें और सबके लिए उपहार भेंट भी लावें। यहां तो एक रोनी सूरत मत्थे मढ़ दी है और खुद तो खोज-खबर भी न लेवें। बेचारे राकेश की तो जैसे
खुशी ही छिन गई।
ठीक है, आओ घर, बहुत दिन हो गए। कहते हुए फोन रखा जा चुका था, मीता काठ हो गई थी। माता-पिता ने दूरी बना ली कि ससुराल में दखल नहीं दिया जाता और पूरा ये परिवार इसलिए नाराज कि वह एक साधारण परिवार से है और पिता समय-समय पर इन लोगों की इच्छाओं को पूरा नहीं कर रहे। इस सबमें उसका दोष क्या ??वह तोरात दिन सबकी सेवा में लगी रहती है, फिर भी खुश होना तो दूर कोई मुस्कराता भी नहीं। वह इनके लिए पराई है क्योंकि मनचाहा दहेज न लाई।
मीता धीरे-धीरे टूट रही थी, अकेली पड़ गई थी। आज उसने सोच लिया था कि पति से जरूर पूछेगी कि उसकी गलती क्या है ? रात को काम खत्म करके कमरे में पहुंची तो राकेशजाग रहे थे। उन्होंने मीता का हाथ पकड़ अपनी ओर खींचा।
मीता ने कहा-मुझे पहले ये बताओ कि मेरी गलती क्या है ?
झटके से मीता का हाथ छोड़ते हुए राकेश बोले-सारे मूड का सत्यानाश कर दिया।
आपको अपनी पड़ी है, मैं आपकी पत्नी हूं, क्या आपका इतना सा भी फर्ज नहीं बनता कि मेरे साथ जो गलत हो रहा है, उसे रोकें ?
क्या कहना चाहती है कि मेरा परिवार ग़लत है और तू सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद!! खबरदार अगर मेरे परिवार के बारे में एक शब्द कहा तो ?
आखिर मेरी गलती क्या है ?
तेरी गलती यही है तू मेरे लायक नहीं, बस गले बंध गई इसलिए निभा रहा हूं। तेरे बाप ने विवाह में खर्चा तो खूब किया पर मेरे हाथ पर क्या रखा ? अब हम तेरा
बोझ उठा रहें हैं। इसलिए घर में पड़ी रह और सेवा कर सबकी। कहते हुए राकेश ने उसे जबरन बिस्तर पर पटक दिया। मीता की आंखों से आंसू बह रहे थे।
वह समझ गई थी कि वह एक ऐसी स्त्री है जिसका अपना कोई वजूद नहीं ! वह मात्र एक कठपुतली है, जिसे दूसरों के इशारों पर नाचना हैं। अगर उसका वजूद
होता तो पिता इतनी जल्दी विवाह न करते और उससे अपना पल्ला झाड़ते ! पति सिर्फ रात की सहचरी न मानता !
ससुराल वाले नौकरानी न मानते !
वजूद होता तो पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाया जाता ? अब तो यही उसकी नियति है ?