प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त
मेरा नाम आशीष है। रिद्धिमा मेरी सहपाठी थी। हम कल्हन विद्या मंदिर में एक साथ पढ़ते थे। दरअसल, ग्यारहवी कक्षा में जिस दिन नई विद्यार्थी के रूप में रिद्धिमा ने पहली बार कक्षा में कदम रखा था, मैं उसे देखता ही रह गया था। शायद इसी को पहली नजर का प्यार कहते हैं!
उसका भुवनमोहिनी रूप और मेरे नवयुवा दिल का कुछ ऐसा तालमेल बैठा था उस दिन कि मैं अपना सारा होश खो बैठा था। हर पल उसी को निहारता जा रहा था- कैसे बोलती है, कैसै हँसती है, किस तरह मटक-मटक कर चलती है। खंजन सदृश्य उसके सुंदर नयन और सुउन्नत कपाल, शुक-पक्षी के नुकीले अधर- सी उसकी नासिका, कुल मिलाकर उसकी छवि कुछ ऐसी मनमोहक थी कि ऋषि-मुनियों का ध्यान भी भंग कर दें, फिर मैं तो ठहरा एक सामान्य-सा इंसान!
वक्त के साथ मेरा वह प्यार परवान चढ़ता गया! पहले मैंने रिद्धि से दोस्ती बढ़ाई, फिर एक दिन मौका देखकर उससे अपने प्यार का इज़हार भी कर दिया। परंतु नहीं, रिद्धि उस दिन मेरे प्यार को समझ न पाई, क्योंकि वह पहले ही, हमारी कक्षा के दूसरे सहपाठी, रोहन को अपने दिल में बसा चुकी थी! उसने मेरे प्यार को एकबारगी ठुकरा दिया। बोली,
"तुम मेरे अच्छे दोस्त हो सकते हो, परंतु तुमसे प्यार मैं कभी नहीं कर पाउंगी। तुम मेरे टाइप के नहीं हो।"
एक जोरदार धक्का लगा। उस दिन अपने प्यार की नाकामयाबी पर मुझे बहुत रंज हुआ। मैंने इस प्यार को पाने के लिए कड़ी मेहनत और लंबा इंतज़ार जो किया था।
परंतु नियति ऐसी कि पिछले पाँच- छः महीनों से रिद्धिमा का मुझे लगातार साथ मिलता रहा है। वह अपने रिश्तेदारों से बहुत दूर हो चुकी है। अब मैं ही एकमात्र दोस्त रह गया हूँ, उसके पास!! कभी- कभी ऐसा भान होता है जैसे रिद्धि शायद आजकल मुझे थोड़ा चाहने भी लगी है। अब उसका सबकुछ मैं ही तो हूँ। मेरे बगैर उसके कोई काम न होते थे। मैं अब पहले जैसा नहीं रहा!
रिद्धि भी कहाँ पहले जैसी रह गई है? न तो पहले जैसा रंग-रूप उसका आज है और न ही वह आत्मविश्वास!
वह दृष्टिहीन है। केवल मेरे स्पर्श को पहचानती है। मेरे ऊपर शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूपों से वह आज निर्भरशील है। उसकी देखभाल और बाकी सारी जिम्मेदारियाँ मैंने अपने कंधों पर ले लिया है। अपनों ने उसका साथ बहुत पहले ही छोड़ दिया था। अब मैं उसे आर्थिक रूप से स्वनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहा हूँ।
बस, उसकी प्यारी सी हँसी को दोबारा उसके चेहरे पर देखना चाहता हूँ। जिन्दगी से मेरी सिर्फ इतनी ही इल्तज़ा है।
आज रिद्धि को एक फैशन शो में हिस्सा लेना है। उसका कैरियर फिर से सँवरने लगा है। पर वह लड़की जाना ही न चाहती थी!! आत्मविश्वास उसमें बचा ही नहीं था। किसी तरह समझा- बुझाकर उसे तैयार किया है। मेरे भी साथ चलने की शर्त पर वह राज़ी हुई है। इस समय देखो, टैक्सी में कैसे मेरा हाथ पकड़कर वह बैठी हुई है!
जब भी उसके चेहरे की ओर देखता हूँ तो मेरी अंतरात्मा काँप उठती है। उसे पाना तो मैं सदा से ही चाहता था पर शायद, इस तरह से नहीं!! वह आज मुझे अपना हमदर्द समझती है। लेकिन, उसे यह नहीं मालूम कि मैं ऋषभ नहीं, बल्कि वह आशीष हूँ जिसने कभी उससे धोखा पाकर उसके चेहरे पर तेजाब डाल दिया था!!!
जान जाएगी, तो शायद वह कभी मुझे माफ़ नहीं कर पाएगी। परंतु तब तक, मुझे उसे पुनःस्थापित करने की कोशिश जारी रखना पड़ेगा।
तभी मेरा पाप का प्रायश्चित्त पूरा हो पाएगा।