प्रायश्चित
प्रायश्चित
महेश घर की खिड़की- दरवाजों को साँकल चढ़ा कर बार-बार बंद कर रहा था, लेकिन तूफान इतना भयंकर था कि साँकलों को झटका कर अंदर दस्तक दे रहा था। घर के पर्दे जोर-जोर से फहर-फहर कर सिहर रहे थे। तभी घर की बत्ती गुल हो गई। सभी पड़ोसी बेफिक्रे ओढ़े चैन से सो रहे थे। पर महेश के घर में इस तूफान ने इतना बवंडर क्यों मचा रखा था...?
भगवान महेश की तरह उसकी साधना करने वाली आराधना तो आज सुबह ही पंचतत्व में विलीन होकर हमेशा के लिए महेश की जिंदगी से जा चुकी थी और घर के नौकरों द्वारा उसका दाह संस्कार भी किया जा चुका था।
"घर के नौकरों द्वारा ही क्यों---?"
क्योंकि महेश को तो न ही उससे कभी प्यार हुआ और न ही उसने कभी उसे अपनी पत्नी का दर्जा दिया। महेश के अनुसार - "आराधना केवल हत्यारन थी।"
उसने उससे हमेशा के लिए उसकी आरती को छीन लिया था। आरती महेश की जिंदगी थी।उसके साथ उसने प्रेम विवाह किया था। लेकिन एक दुर्घटना जिसके लिए महेश ताउम्र अराधना का त्याग और समर्पण देखे बिना उसे दोषी ठहराता रहा और उसे माफ कर के उसके साथ इंसाफ न कर सका। "जबकि वह सड़क दुर्घटना महज एक हादसा था।"
महेश, आरती और दो महीने की अवनी की गाड़ी के आगे सड़क पार करते हुए आराधना अचानक बैलेन्स खो देती है और गाड़ी के आगे आ जाती है। उसे बचाने के चक्कर में महेश एकदम से गाड़ी का ब्रेक लगाता है, लेकिन गाड़ी की गति तेज होने के कारण, संतुलन बिगड़ गया और गाड़ी सड़क पर पलट गई। अवनी छिटक कर आराधना की गोदी में आ पड़ती है और आरती की मौके पर ही मौत हो जाती हैं।
आराधना भगवान की मर्जी समझ कर अवनी की खातिर महेश से शादी कर लेती है और उसके प्यार में कभी किसी तरह की कमी न रह जाए इसलिए ताउम्र नि:संतान ही रहती है। लेकिन महेश को उसका त्याग और समर्पण हमेशा दिखावा और छलावा ही लगता रहा।
"जो महेश तीस सालों में आराधना को नहीं समझ पाया, वहीं महेश आज इस तूफान के बवंडर से लड़ता-लड़ता बेहताशा आराधना-आराधना...., तुम कहाँ हो...,सँभालो मेरी जिंदगी से इस तूफान के बवंडर को...., जैसे हमेशा सँभालती आई हो । "
वह बेहताशा चीखता-चिल्लाता श्मशानघाट की तरफ भागता जा रहा था। श्मशानघाट में वीराने सा सन्नाटा पसरा था। घुप्प अंधेरा में शाम के समय जली हुई चिताओं से निकल रही अँगारों की रोशनी से धुँधला-धुँधला रास्ता दिखाई दे रहा था। महादेव की प्रतिमा के ऊपर जल रहे छोटे-छोटे से बल्बों की रोशनी से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह भूतों के संग रास रचा रहे हैं तथा जली हुई चिताओं की आत्माओं से बड़े सत्कारपूर्वक उनका कुशलक्षेम पूछ रहे हैं।
उन रूहों में सबसे प्रसन्नचित्र रूह आराधना की थी। जिससे महादेव भी हँस-हँसकर बड़े प्यार से वार्तालाप कर रहे थे।
"चलो धरती के महेश ने जिस नेह और सम्मान से उसे वंचित रखा, महादेवों के देव आसमाँ के महेश ने अपना सारा वात्सल्य उस पर उड़ेल कर पूर्ण कर दिया। "
महेश - आराधना-आराधना... चिल्लाता हुआ उसकी चिता के समीप प्रायश्चित मुद्रा में उसके फूलों को सहलाता हुआ घुटनों के बल वहाँ बैठ जाता है। लेकिन तूफान तो जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। फूल उसके हाथों के स्पर्श को ठुकरा यहाँ-वहाँ छितरने लगे और चिता की राख जोर-जोर से इधर-उधर फैल कर उसके मुँह पर बिखरने लगती है। यह सब उसे असहनीय लगता है। सारी जिंदगी जिस तिरस्कार का दंश वह आराधना को देता आ रहा था, उसका एक प्रतिशत भी वह सहन नहीं कर पाता और चीखता हुआ घर वापस आ जाता है। उसकी जिंदगी में बवंडर लाने वाला तूफान शांत हो चुका था। लेकिन उसकी पलकों और चेहरे पर जमी चिता की राख की कालिमा , चेहरे को कई बार साबुन से धोने के पश्चात भी इतनी गहरी छाप छोड़ चुकी थी कि छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी।
महेश बड़बडाता हुआ - आराधना क्या यह तुम्हारा प्रतिशोध है...? मैं तुम्हारा क्षमा प्रार्थी ....।