पलायन
पलायन
"तुम्हे ठीक से याद हैं न कि यही वो जगह थी।"
माँ के कहने पर एक बारगी उसे भी लगा कि कहीं वह गलत जगह तो नहीं आ गया। लिहाजा उसने उस झोपड़ीनुमा घर के बाहर बैठे वृद्ध से पूछ लेना मुनासिब समझा।
"बाबा! यहाँ इस घर में हरी काका रहा करते थे न, जो मिट्टी के बर्तन और दीपक आदि बनाते थे।"
कई बरस पहले गाँव की खेतीबाड़ी छोड़ शहर आ बसे बेटे के लिए ये पहला अवसर था जब दिवाली पर माँ उसके साथ थी और बेटा उन्हें हर प्रकार से शहरी संस्कृति की चमक-दमक से प्रभावित कर देना चाहता था लेकिन माँ सब देख कर भी चुप थी और हर तरह से पारम्परिक दिवाली का पक्ष ले रही थी। सो इसी इंतजामात में माँ के पसंदीदा मिट्टी के दीयों का जिक्र आते ही उसे हरी काका याद आ गए, लिहाजा वह माँ को साथ ले यहां चला आया था।
"हाँ रहते थे बेटा, लेकिन उन्हें ये घर छोड़े तो तीन बरस हो गए। कहिये, कुछ काम था क्या?" वृद्ध ने उनकी ओर देखते हुए जवाब दिया।
हाँ बाबा! लेकिन वे तो पीढ़ियों से यही रह कर अपना पुश्तैनी काम करते आ रहे थे, सब छोड़ कर चले गए क्या?"
"बेटा! जमाना बदल गया हैं लोगों की सोच बदल गयी हैं। कहीं मिट्टी के बर्तनों की जगह 'डिस्पोज़ल' चीजों ने ले ली, तो कहीं आधुनिक दीयों ने अपनी चमक फैलानी शुरू कर दी हैं।"
"लेकिन उन्हें ये पुरखों की जमीन और अपना धंधा यूँ ही छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था। कुछ संघर्ष करते तो शायद कोई राह बनती और हो सकता है उन्हें पलायन की जरुरत......."
बेटा! उन्होंने तो हालात और भूख के मद्दे-नजर, सिर्फ अपनी जमीन को छोड़ा था मगर . . . . "वृद्ध उसकी बात को बीच में ही काट चुका था। ". . . . इस नई पीढ़ी को क्या कहोगे जो शहरी संस्कृति में ड़ूबकर जमीन के साथ-साथ अपनी संस्कृति और परम्पराओं से भी पलायन कर रही है।"
वह कुछ नही कह सका। उसे लग रहा था जैसे जो बाते घर पर माँ कहना चाहती थी, वही बातें वृद्ध की आवाज में माँ बोल रही है।