पितातुल्य

पितातुल्य

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"खराब अंडे क्यों दिए?" मैं गुस्से में मोहल्ले के दुकानदार को डाँट रही थी, तभी पापा की उम्र के एक सज्जन ने मेरे ही बगल के घर की ओर जाने का रास्ता पूछा। मैं अपनी दो साल की बिटिया को सुला कर आई थी तो खासी जल्दी में थी।

"मुझे अंडे दो भैया, पता मैं बता दूँगी।" दुकानदार से कहा और उन्हें पता बताया। जल्दी में आगे बढने लगी पर वह अपने दिल्ली आने के पीछे इकोनोमिक्स के सेमिनार अटेंड करने की बात बताने लगे। "यही तो मेरा विषय है"अचानक खुशी से चहक उठी।

वह भी बिहारी निकले। गया के एक युनिवर्सिटी के प्रोफेसर थे। मेरे अंदर उनके प्रति सम्मान जग गया और बातों ही बातों में उन्हें घर आने का निमंत्रण दे बैठी। नई-नई दिल्ली आई थी। दुनियादारी की समझ में पैदल थी। कुछ कम उम्र की नादानी भी थी। यह ख्याल में ही नहीं आया कि यूँ अनजान लोगों को घर नहीं दिखाते। खैर इतवार था तो कोई तनाव ना था। पतिदेव ने दरवाजा खोला तो प्रोफेसर साहब से मुलाक़ात करा दिया। उन्होंने हम दोनों को संध्या के कार्यक्रम के लिए आमंत्रित भी किया। पतिदेव तो आराम के मूड में थे। मेरा भी बच्चे के साथ जाना मुश्किल ही लगा तो हमने हाथ जोड़ कर क्षमा मांग ली। तीसरे दिन करीब शाम के चार बजे डोर बेल बजने पर दरवाजा खोला तो देखा प्रोफेसर साहब खड़े थे।

"सेमिनार का सर्टिफिकेट लाया हूँ, सोचा तुम्हें देता चलूँ।"

"बहुत धन्यवाद आपका!" कह कर जरा सा क्या मुड़ी, वह घर में प्रवेश कर गए। बैग से निकाल कर सर्टिफिकेट देते हुए उन्होंने बताया कि "तुम्हारे पति के लिए भी कुछ लाया हूँ।" इतना कहकर फिर से बैग खोला तो मेरी नजर उनके बैग में रखे शराब के महँगी बोतलों पर पड़ी। भोली थी पर मूर्ख नहीं! उनकी मनःस्थिति समझ गई थी। पिता समान होने मात्र से कोई पितातुल्य नहीं हो जाता। अंदर ही अंदर एक भाव उमड़ा और मैंने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया। बडी मुश्किल से किसी तरह उन जैसे दोगले इंसान से छुटकारा पाया। हालांकि जाते-जाते वह अपनी औकात दिखाते हुए बोले "पार्टींग किस नहीं दोगी?"

सुनते ही कान गर्म हो गये और मैं घर के बाहर निकल आई। मजबूरन उन्हें भी बाहर आना पड़ा। क्रोध से मेरी आँखें लाल हो गई थीं। बस इतना ही बोली कि "कई बार लोग दिल्ली को विदेश समझ कर सब मर्यादाएँ तोड़ कर आनंद लेना चाहते हैं, जबकि यह अपने ही देश की राजधानी है। यहाँ भी परंपराओं का निर्वाह करने वाले लोगों की बहुतायत है। आप जैसे लोग ही इस जगह को पाश्चात्य की देखा-देखी में बदनाम करते हैं। उनके संस्कृति में भी कम से कम ऐसा दोहरा मापदंड नहीं!"

देर तक मेरी रूह काँप रही थी। आज कई साल बाद इस भूली दास्ताँ को अंकित करती हुई पुनः वही कंपन, वही अनजाना सा डर महसूस कर रही हूँ। एक बड़ा फर्क यह आया है कि अब मैं किसी पर विश्वास नहीं करती। अच्छी तरह से जान गई हूँ कि पिता व पिता समान होने में फर्क होता है।



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