पिताजी
पिताजी
मैं अपने पिताजी की भावनाओं को कभी समझ नहीं पाया, पर अब कितनी भी कोशिश करूं, कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि मेरे पिताजी अब नहीं है। वो हमेशा के लिए अकेला छोड़कर अनंत की यात्रा पर चले गए। मैं अब इतनी कोशिश जरूर करूंगा कि मुझसे कोई भी ऐसा काम न हो, जिससे उनकी आत्मा को कष्ट हो। एक न एक दिन इंसान लाचारी की उस अवस्था में पहुंच ही जाता है, जब वह अपनों की ओर आस भरी निगाहों से टकटकी लगाए देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता। हो सकता है उस स्थिति में पहुंचने पर मैं अपने पिता के जज्बातों को बेहतर ढंग से समझ सकूंगा।
पलकों में सजा लूँ मन चाहता है हे पिता।
जीवन पूंजी लूटा दूँ मन चाहता है हे पिता।
छोड़ मुझको दिया तुमने बीच मझधार में ,
अपनी आँखों से देखो मन चाहता है हे पिता।