Vijayanand Singh

Romance

3.9  

Vijayanand Singh

Romance

पहला प्यार

पहला प्यार

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उस समय मैं बी.एस.सी. कर रहा था। ट्यूशन से अपने घर की ओर चलता, तो कदम बरबस उसके घर की ओर मुड़ जाते। उसके बड़े भैया कालेज में व्याख्याता थे। उनके साथ साहित्य पर चर्चाएँ होती। मैं अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाता। वे उन पर अपनी प्रतिक्रियाएँ देते। घंटों तक तर्क और विमर्श होता। मैं अपनी कविताएँ उन्हें सुनाता। मेरी कविताएँ वह भी दरवाजे की ओट से सुना करती। मुझे वहाँ जाना अच्छा लगने लगा था।

एक दिन जब हम आपस में चर्चा में लीन थे, तो चाय की ट्रे रखते हुए उसने मेरी ओर देखकर कहा- "मैं भी अब साड़ी पहनना सीख रही हूँ।"

भैया का ध्यान उस ओर नहीं गया पर मैं इन शब्दों में उतर आए भावों का निहितार्थ समझ, सहसा उसकी आँखों में उतर आए भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगा।

उच्च शिक्षा के लिए मुझे दूसरे शहर जाना पड़ा। दो साल बाद एक सेमिनार के सिलसिले में उस शहर में पुनः आना हुआ, तो सहज औपचारिकतावश मैं उसके घर गया। मुझे देख उसकी आँखों में चमकती खुशी, दुनिया को रौशन कर देने वाली थी। उसने मुझे अपने पिता से मिलवाया। चहकते हुए, बड़े प्रेम से मेरी पसंद का खाना खिलाया। बातें हुईं। कुछ व्यक्त हुईं, कुछ मौन ही रहीं।

जब मैं घर से निकलने को हुआ, तो वह दौड़ी हुई दरवाजे तक आई पर, उसके कदम ठिठक गये। दरवाजे पर पिता खड़े थे। वो खिड़की से, मुझे सड़क पर जाते देर तक देखती रही। मर्यादाओं में आबद्ध आँसुओं को मैंने उसकी आँखों से झरते देखा।

पंद्रह वर्ष बाद, वक्त ने फिर हमें आमने-सामने ला खड़ा किया। बहुत कुछ बदल चुका था। अब तक.... स्मृतियों के सिवा ! उसने मुझे अपने पति से मिलवाया। घूम-घूमकर सारा घर दिखलाया। जब हम किचन के बगल से गुजरे, तो उसने किचन की ओर देखते हुए कहा- "देखो, बेटी तुम्हारे लिए खाना बना रही है।"

मैं उसकी झील-सी गहरी आँखों में देखने लगा और इतना ही कह पाया-

"हाँ, हमारी बेटी इतनी ही बड़ी होती, अगर हम जाति-धर्म के संकीर्ण सामाजिक-रूढ़िवादी बंधनों को तोड़ पाते तो !"

....और शब्द, वक्त के सन्नाटे में गूँजने लगे। मुझे उसकी आँखों में वही कैशोर्य प्रेम नजर आया....नाम चाहे उसे जो भी दें हम !

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