पहला प्रेम
पहला प्रेम
वह कॉलेज से निकलता, तो उसकी साइकिल अनायास उस गली में मुड़ जाती, जिधर उसका घर था। साइकिल की घंटी की आवाज में जाने क्या सम्मोहन था कि वह भी खुद को रोक नहीं पाती थी। दरवाजे की ओट से ही उसे साइकिल पर पैडल मारते सामने से गुजरते देख लेती। बस, दोनों का दिन गुजर जाता। रात भी बीत जाती। इंतजार, खुशी और ललक अनायास उनकी प्रेरणा बन गये थे। वक्त जैसे पंख लगाकर उड़ने लगा था। बस, एक कसक रह गयी थी, किसी तरह एक-दूसरे का नाम जान लेते !
कॉलेज की पढ़ाई पूरी हो गयी। एक दिन वह उस गली से गुजरा, तो वहाँ बड़ी सजावट दिखी, जो सड़क से ही शुरू हो गयी थी। वह अपनी रौ में चलता चला जा रहा था। सजावट उसके घर तक पहुँचकर खत्म हो गयी थी। वह " धक्क " से रह गया। पाँव ठिठक गये। कंप्यूटराईज्ड डिस्प्ले बोर्ड पर नाम चमक रहे थे - " सुरूचि वेड्स अभिषेक "।शहनाई की धुन हवा में गूँज रही थी।
सहसा साइकिल में " खट् " की आवाज हुई, तो वह नीचे उतरा। खिड़की से एक जोड़ी आँखों ने सजल नयनों से सड़क की ओर देखा। साइकिल की चेन उतर गयी थी। वह चढ़ा नहीं पाया। एक सूनी नजर घर की ओर डाली और हैंडल पकड़कर वह पैदल ही चल पड़ा।
" सुरूचि " - नाम अब उसके कानों में गूँजने लगा था।
अगली सुबह न तो साइकिल उस गली में मुड़ी, न ही " टन..टन " की आवाज सुनाई पड़ी, न ही कोई निकलकर दरवाजे की ओट में खड़ा हुआ !

