अनुशासन की सीख
अनुशासन की सीख
यह उन दिनों की बात है, जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। पिताजी प्रशासनिक सेवा में थे। हर तीन-चार वर्ष पर उनका तबादला हो जाता था और हमें हर बार नयी जगह शिफ्ट होना पड़ता था। उन दिनों पिताजी की पोस्टिंग मुजफ्फरपुर के निकट मीनापुर प्रखंड में बीडीओ के रूप में हुई थी। स्थानांतरण के आधार पर मेरा और मेरे छोटे भाई का नामांकन मुजफ्फरपुर के प्रतिष्ठित जिला स्कूल में कराया गया था।
प्रथम दिन पिताजी अपनी सरकारी गाड़ी से हमें स्कूल छोड़ने आए थे। स्कूल ड्रेस में बस्ता लेकर हम पिताजी के साथ चल पड़े। स्कूल कैंपस के अंदर जब हम दोनों भाई पिताजी की गाड़ी से उतरे, तो हमने देखा, कक्षाएँ लग चुकी थींं और प्रिंसिपल डॉ. जयदेव सर घूम-घूमकर कक्षाओं का मुआयना कर रहे थे। पिताजी को देखकर वे बरामदे से नीचे आए। दोनों एक-दूसरे से पूर्व परिचित थे। सामान्य औपचारिकता के बाद प्रिंसिपल सर ने पिताजी से कहा - " चलिए, आप ऊपर चैंबर में बैठिए। मैं अभी आता हूँ। "
पिताजी बरामदे की ओर बढ़ गये, और प्रिंसिपल सर हमारी ओर मुखातिब हुए - " टाइम देख रहे हो ? सवा दस बज रहे हैं।यही समय है स्कूल आने का ? तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे पिता मेरे मित्र हैं, तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा, नियम-कायदे तोड़ने की आजादी दूँगा ?चलो, बस्ता नीचे रखो और दंड-बैठक करो। देर से क्यों आए ? " अपने हाथ में ली हुई मोटी-सी छड़ी हिलाते हुए प्रिंसिपल सर ने कहा।उनकी लंबी-चौड़ी कद-काठी और रौबदार आवाज से तो हम पहले ही बुरी तरह डर गये थे, उनके कड़े अनुशासन ने पच्चीस बार दंड-बैठक करने में हमारे पसीने छुड़ा दिए। मैंने देखा, पिताजी बरामदे पर चढ़कर ऊपर चैंबर की तरफ जाते हुए , पीछे मुड़कर हमें दंड-बैठक करते देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे।
आज इतने वर्षों बाद, जब भी मैं ज़िला स्कूल के सामने से गुजरता हूँ या स्कूल-कैंपस में प्रवेश करता हूँ, तो वह दृश्य बार-बार मेरी स्मृतियों में कौंधता है, जहाँ मैंने समयबद्धता और अनुशासन का पहला पाठ सीखा था और उसे अपने जीवन में उतारा। मैं अपने उस गुरू को नमन करता हूँ। हम दोनों भाई स्कूल हॉस्टल में भी रहे, जहाँ हमने माँ-पिता-परिवार से दूर रहकर स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनना सीखा। यह भी सीखा कि पढ़ाई एक तपस्या और त्याग है, जिसका चरमोत्कर्ष है सफलता।
आज के बदलते समय में, जहाँ शिक्षा-व्यवस्था का ही व्यावसायीकरण हो चुका है और स्कूलों - कॉलेजों में शिक्षा की स्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है, छात्रों को लगन, निष्ठा और ईमानदारीपूर्वक पढ़ाई करने, समय का महत्व समझ, अनुशासित ढंग से उसका महत्तम उपयोग करने की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी, अगर आसमान की बुलंदियों को छूना है तो !