लीला नदी
लीला नदी
लीला नदी को कौन नहीं जानता! यह कोई साधारण नदी नहीं, बल्कि प्रकृति की सबसे रहस्यमयी रचनाओं में से एक है। चौड़ाई में भले ही संकरी हो, मगर गहराई इतनी कि अंदाज़ा लगाना कठिन। उसके दोनों किनारों पर ऊँची-ऊँची चट्टानें खड़ी हैं और तल में बड़े-बड़े पत्थर बिखरे हुए हैं। जल का प्रवाह इतना शांत कि दृष्टि केंद्रित करने पर ही समझ आता है कि बहाव किस दिशा में है।
लीला नदी की लीला भी अनूठी है। जहाँ से निकलती है, वहीं से लेकर अंत तक बस एक ही गाँव उसके तट पर बसा है। बाकी रास्ते वह घने जंगलों से चुपचाप होकर गुजरती है, जैसे चोर पहरेदारों की आँखें चुराकर दबे पाँव निकल जाए। दरअसल, यह नदी अपनी सुंदरता को गंदगी और भीड़-भाड़ से बचाना चाहती है, इसलिए दूरदराज एकांत में बहती हुई एक विशाल नदी में जाकर समा जाती है — बिना किसी मानव के कब्ज़े और प्रदूषण के डर के। यही कारण है कि आज भी उसका जल स्वच्छ, निर्मल और जीवनदायक बना हुआ है।
यह नदी जितनी सुंदर है, उतनी ही उदार भी। इसमें नाना प्रकार के जलीय जीव बसे हैं — मछलियाँ, झींगे, कछुए, और मगरमच्छ भी। लेकिन सबसे अधिक संख्या में मछलियाँ हैं, जो परिवारों में बँटकर अपने-अपने क्षेत्र में जीवन बिताती हैं।
इन्हीं में एक परिवार था — दल्ली मछली का। उसकी ज़िंदगी एक दर्दनाक मोड़ पर आकर थम-सी गई थी। वह जवान थी, सुंदर थी, मगर उसके जीवन से प्रेम और सुख दोनों जा चुके थे — जब उसके पति की मृत्यु हो गई। यह कोई सामान्य मौत नहीं थी — यह एक दुर्घटना थी, एक ऐसी भूल, जिसकी कीमत पूरे परिवार को चुकानी पड़ी।
दल्ली मछली के पति एक सैनिक थे — जल देवता द्वारा नियुक्त रक्षक। उनका कार्य था अपने क्षेत्र की सारी मछलियों की रक्षा करना। देवता ने उन्हें विशेष शक्ति दी थी — खतरे को दूर से भाँप लेने की। वह सभी को स्वतंत्रता से घूमने देते, लेकिन समय आने पर साहस और अनुशासन का परिचय देते।
दल्ली और उसका पति एक-दूसरे से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उसकी हर इच्छा पूरी करने को तत्पर रहते। एक दिन दल्ली को जल में तैरता आटा दिखाई दिया — वही आटा, जिसे शिकारी लोहे की काँटी में फँसाकर मछलियों को फँसाने के लिए डालते हैं। दल्ली ने ज़िद की कि वह आटा उसे खाना है।
पति ने गहराई से देखा, पहचान लिया कि यह शिकारी का जाल है। उसने समझाया, मना किया। माता-पिता ने भी बहुत समझाया। मगर दल्ली नहीं मानी। उसके चेहरे पर लालच और हठ का मिश्रण साफ झलक रहा था। उसे लगा कि पति उसकी इच्छाओं को दबा रहा है। वह आगे बढ़ी — और तब उसके पति ने स्वयं जाकर वह आटा खा लिया — ताकि वह न खाए।
काँटी सीधे उसके फेफड़े में चुभी। वह छटपटाने लगा। उसकी आँखों में पीड़ा थी, शरीर झटकों से काँप रहा था, और जल का रंग धीरे-धीरे लाल हो गया। दल्ली के सामने उसका प्राणप्रिय दम तोड़ने लगा। वह पछताई, रोई, छाती पीटती रही, मगर अब कुछ नहीं हो सकता था। शिकारी ने उसे बाहर खींच लिया। दल्ली विधवा हो गई। तीन छोटे-छोटे बच्चे पीछे रह गए।
उस रात लीला नदी की लहरें भी जैसे विलाप कर रही थीं। जल की सतह पर चाँदनी नहीं, एक गहरा सूनापन पसरा था। दल्ली जीवित रही, मगर भीतर से मर चुकी थी। उसके माता-पिता आज भी उसे कोसते थे। उसका एक भाई था — जल सैनिक — वही दायित्व, वही शक्ति, वही अनुशासन। कई मछलियों को वह अब तक शिकारी के जाल से बचा चुका था।
एक दिन, फिर वही दृश्य दोहराया गया। दल्ली अपने बच्चों के साथ घूम रही थी। एक बार फिर जल में तैरता आटा दिखा। उसकी जीभ स्वाद की लालसा में काँपने लगी। बच्चों की मासूम बातें भी जैसे उसके कानों तक नहीं पहुँच रहीं थीं। वह सब भूल चुकी थी — अपने पति की बलि, अपने बच्चों की आँखों का आँसू — सब।
वह उस ओर बढ़ी। उसके भाई की नज़र पड़ी।
"क्या कर रही हो, दल्ली? भूल गई कि जीजा को किस चीज़ ने छीना?"
"भाई," उसने मुस्कुराकर कहा, "जरूरी तो नहीं हर बार वही हो। हो सकता है किसी भले जीव ने खाना डाला हो।"
भाई ने देखा — वह आटा पतली रस्सी से बँधा हुआ था। स्पष्ट था — शिकारी का जाल। वह लौटकर समझाने लगा —
"कम से कम बच्चों का ख्याल करो। एक बार उनके पिता को खो चुकी हो — अब क्या माँ भी छीन लोगी?"
दल्ली की आँखों में फिर वही हठ आ गई। "तुम सैनिक हो, इसलिए तुम्हें लगता है सब पर अधिकार है। मगर हमें भी अपनी इच्छा से जीने का हक़ है। मैं तो खा कर ही रहूँगी!"
वह आगे बढ़ी — एक झटके में आटा निगलना चाहा — लेकिन वही काँटी, वही फेफड़े में चुभन, वही दर्द... वही तड़प। अबकी बार बच्चों की चीख नदी के मौन को भी तोड़ गई।
"मामा! मामा! माँ को बचाओ!"
सैनिक भाई चुपचाप खड़ा रहा। शिकारी ने उसे खींच लिया। बच्चे बिलखते हुए उसके पास आए।
"आपने कुछ क्यों नहीं किया, मामा? आप तो रक्षा के लिए हैं!"
उसने गहरी साँस लेकर उत्तर दिया —
"हाँ, मैं रक्षक हूँ। मगर हमारे नियम हैं — समझाना, बताना, सावधान करना। ज़बरदस्ती रोकना नहीं। तुम्हारी माँ को समझाना मेरा कर्तव्य था — मैंने निभाया। मगर जीवन वही भूल दोहराने के लिए नहीं होता जिससे हम पहले ही टूट चुके हों।
तुम्हारे पापा ने नियम तोड़ा — इसलिए चले गए। अगर मैं भी वही करता, तो आज तुम मुझसे भी वंचित हो जाते।
सच्चे रक्षक वही होते हैं, जो अपने भावनाओं को भी नियमों के सामने झुका दें — ताकि आने वाली पीढ़ी सीख सके कि ज़िद और लालच कितनी महँगी पड़ सकती है।"
बच्चों ने सब कुछ समझ लिया। उन्होंने प्रण किया कि वे कभी उस गलती को नहीं दोहराएँगे। और वे अपने मामा के साथ, जीवन की ओर लौट चले — लीला नदी की शांति में, अपने घर की ओर।
