फेरीवाला (लघुकथा)
फेरीवाला (लघुकथा)
वह देश और दुनिया के सजीव, निर्जीव और आभासी क्षेत्रों के फेरे पर फेरे लगाने के बाद आज अपने माथे पर हाथ धरे भौचक्का सा बैठा हुआ था। टेलीविज़न समाचार चैनल पर यह दृश्य दो मित्र देख रहे थे।
"अकेला चला था सफ़र में, कारवाँ बनता गया!" उनमें से उसके एक प्रशंसक देशभक्त ने अपने मित्र नागरिक से कहा।
उस मित्र ने टेलीविज़न बंद करते हुए तपाक से कहा, "कारवाँ लेकर चला था सफ़र में, अकेला होता गया!"
"तो क्या वह आधुनिक फेरीवाला इसलिए अपने 'मास' और 'सोशल मीडिया' को छोड़ गया?" उस प्रशंसक देशभक्त ने उस मित्र से सवाल किया।
"नहीं! दरअसल अब उसने अपने 'मास' और 'सोशल मीडिया' वास्ते अपना कोई निजी प्लेटफॉर्म तैयार करवा लिया है!" मित्र ने जवाब दिया।
"देशी या विदेशी प्लेटफॉर्म?" प्रतिप्रश्न किया उस देशभक्त ने।
"जो भी हो! देखना तो यह है कि उस प्लेटफॉर्म को कौन फेरीवाला, कैसे हैंडल करेगा?" मित्र ने जवाब में भी सवाल ही किया।
"वही करेगा! विश्वास रखो! प्रेम और लोकतांत्रिक सदभाव से वही हैंडल करेगा!" आशावान देशभक्त ने अपने उस मित्र के माथे की शिकन को राहत सी देते हुए कहा।