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Mukul Kumar Singh

Classics

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Mukul Kumar Singh

Classics

मुझे याद है

मुझे याद है

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मेरी उम्र यही कोई आठ वर्ष की होगी और शायद एक माह हुए थे मैं चौथी कक्षा में प्रवेश लिया था। पढ़ने लिखने यदि मेधावी नहीं तो फिसड्डी भी नहीं था। प्रायः रोल नंबर एक से दस के बीच मेरी पोजीशन रहती थी। बचपन से हीं मेरे स्वभाव में चंचलता, शैतानी एवं निर्भीकता भरी थी हालांकि मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि मैं एक अनुशासनहीन छात्र था। शिक्षकों का शासन कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता था। यदि शिक्षक मुझे बांये चलने को कहता तो मैं दांया जाना पसन्द करता था। सदैव अपने साथियों के साथ मार पिट करते रहना या यूं कहें तो अपने से अधिक किसी शक्तिशाली बंधु को पिटने में बड़ा मजा आता था। मेरी यह शैतानी केवल स्कूल तक हीं सिमित नहीं थी बल्कि पाड़ा में भी सभी परेशान रहते थे। प्रतिदिन घर में शिकायतकर्ता आते रहते थे जिससे मेरा बड़ा मामा मुझसे रुष्ट रहता और यदि मैं पकड़ा गया तो मेरी कुटाई इतने प्यार से होती थी कि मत पूछो। पिटाई थमने के कुछ हीं पल बीते की मैं अपनी पिटाई को भूलकर पुनः अपने आप पर उतर जाया करता था। कभी भी स्कूल ऐबसेन्ट नहीं होता था कारण यहां साथियों के साथ खेलने, शैतानी करने और सबसे अंत में पढ़ने के अवसर का लाभ उठाता था। एक बात कहना चाहूंगा कि जो अच्छे होते हैं तो उनकी दोस्ती अच्छे बच्चों से और दुष्टों को दुष्टों से हीं दोस्ती होती है। इस प्रकार से हमारे कक्षा में दो-तीन दल बना हुआ था। छंटे शैतान, समय परस्त तथा निरीह शैतान। अब इनमें से निरीहों का दल था बड़ा हीं धूर्त क्योंकि उनकी शैतानी पकड़ी नहीं जाती और जो छंटे हुए थे उनसे पुरे स्कूल के सभी छात्र भयभीत रहते थे। खैर इतना सबको स्वीकार करना हीं पड़ेगा कि शिक्षक तो शिक्षक हीं होता है और वह तो भविष्य का निर्माण कार्य पूरा करता है। अतः मेरे शिक्षकों के लिए शैतान हो या निरीह, शांत हो या चंचल सभी को बिना किसी भेद भाव के छात्रों को आदर्श नागरिक बनाने का प्रयास करता है और उसके बाद सब कुछ निर्भर करता है छात्रों के उपर कि कौन कितना अच्छाई को ग्रहण करता है तथा शिक्षा का सद्व्यवहार किस प्रकार से करता है जो और कौन ठीक ठीक व्यवहार नहीं करता है। इन्हीं छात्रों में कोई सफलता की सीढ़ियां चढ़ धन,मान सम्मान, खुशहाली से सम्पन्न होता है और कोई मजदूर, फेरीवाला, टैक्सी ड्राइवर बन कर जीवन निर्वाह करता है इनके साथ साथ कुछ ऐसे होते हैं जो अपने जीविकोपार्जन भी ठीक से नहीं कर पाने के कारण जीवन भर दरिद्रता में जीते हैं। अक्सर शिक्षक अपने छात्रों के भविष्य के सपनों के बारे में पूछा करते हैं। ऐसी हीं घटना मेरे साथ भी घटी। अन्य दिनों की भांति प्रे की घंटी बज उठी और हम सभी एकदम अनुशासित छात्र बन अपनी सीटों पर खड़े हो गए और हाथ जोड़े आंखें बन्द। हममें से मेरे ऐसे कई छात्रों की आंखें बन्द होने से रही। पुनः प्रे की घंटी बजी और मां शारदे कहां तू बीणा बजा रही है.... गाने लगे। प्रे खत्म हुई कि शांत हो बैठने की जगह शोरगुल, धक्का मुक्की करने लगे। यह वातावरण तब तक बना रहता था जब तक क्लास टीचर नहीं आ जाते। गर्मी का मौसम आजकल की भांति स्कूल में वैद्युतिक प्रकाश एवं पंखे की व्यवस्था नहीं थी जिससे छात्र एवं शिक्षक सबकी अवस्था खराब हो चुकी थी। हम सभी छात्रों की उम्र तो अबूझ बच्चों की थी इसलिए अप्रैल मई के तापमान का अहसास नहीं था पर हमारे शिक्षक उपस्थित ताप के प्रदाह से एकदम सुस्त हो गए थे। सो शायद उनकी भी ईच्छा होगी कि क्लास में न जाएं पर वे लोग अब बेसरकारी स्कूल के शिक्षक की जगह सरकारी शिक्षक बन चुके थे और सरकारी नियमों का पालन करना अनिवार्य अर्थात क्लास अटेंड करना हीं पड़ेगा। आखिर क्लास टीचर हमारे सामने अटेंडेंस रजीस्टर लेकर उपस्थित। एक पल के लिए क्लास में नीरवता छा गई पर जहां पर बच्चों की फौज हो भला वहां शांति नामक शत्रु कभी टिक सकता है! अपने सारे अस्त्र फेंक कर पलायन कर जाते हैं। सबसे पहले शिक्षक महोदय पुरे क्लास में चपल दृष्टि दौड़ाई एवं गहरी सांस ली और रजिस्टर खोल कर कुछ लिखा। उसके बाद रोल नंबर वन.... बोलना आरम्भ किया जबाब में रोल वन वाला कहा-प्रेजेन्ट सर। बीच-बीच में वह डांटने का भी काम करता। धीरे-धीरे अटेंडेंस समाप्त हुई। रजिस्टर को एक तरफ रख शिक्षक महोदय पास में रखी लंगड़ी कुर्सी पर बैठ गए। लगभग पांच मिनट तक आंखें बंद किए उस असह्य गर्मी से राहत पाने का कार्य कर रहे थे। पलकें खोलने के बाद पुनः एक गहरी सांस लिए और हम सभी छात्रों की ओर देखते हुए बोले-बच्चों आज बड़ी गर्मी लग रही है और पढ़ाने का मन नहीं कर रहा है। इतना सुनना था कि सभी छात्रों के चेहरे पर खुशियां फैल गई एवं हम सबने कहा-सर छुट्टी दे दो ना। इस पर शिक्षक महोदय ने थोड़ा रुष्ट होने के अंदाज में कहा-अरे शैतान, तुम सभी मिलकर मेरी नौकरी खाना चाहते हो। हम सभी चौंक गए कि नौकरी कोई खाने का सामान थोड़े हीं हैं। नौकरी खाने की वस्तु नहीं है पर यदि यह चली गई न तो हमलोगों के लिए भोजन कहां से आएगा। हममें से एक ने संग हीं संग कहा-सर गर्मी तो हमें भी लग रहा है पर आप तो बैठा कर रखें हैं। यह सुनकर शिक्षक महोदय शायद हम सबके मन को पढ़ लिया और बोला-ठीक है आज हम लोग किताब नहीं पढ़ेंगे। एक खेल खेलते हैं क्यूं ठीक कहा न। हम सभी खुशी से उछलने लगे। फिर शिक्षक महोदय ने खेल के बारे में बताया और हम सभी अर्थात शिक्षक एवं छात्रों का खेल शुरू हो गया। शिक्षक महोदय ने एक-एक कर सबको रोल नंबर अनुसार सामने आने को कहते। सामने जाने वाले छात्र से पुछते-तुम बड़े होकर क्या बनोगे? यह जो बड़ा होकर क्या बनोगे इसका कोई ज्ञान अधिकतर छात्रों के पास नहीं था। हालांकि इस खेल में हम सभी को बहुत मजा आ रहा था। अतः छात्रों में से कोई डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर पुलिस मिलिट्री, वकील बनने की बात कही। मेरी बारी आई। मैं शिक्षक महोदय के निकट पहुंचा और मुझसे भी वही प्रश्न पुछा। लेकिन मैं विपरीत दिशा में चलने वाला भला इस प्रश्न का उत्तर क्योंकर देने लगा। मैंने शिक्षक महोदय से काउंटर प्रश्न कर डाला कि बड़ा होकर कुछ क्यूं बनूंगा। मेरे ऐसा कहने पर वे क्रोधित नहीं हुए बल्कि मेरे भविष्य के बारे में समझाया कि बड़ा होकर कुछ बनना आवश्यक है। फिर भी उनका वह समझाना मेरे सर के उपर से चला गया। इसलिए मैंने कहा-मुझे कुछ नहीं बनना है। चौंक कर शिक्षक महोदय ने मुझे देखा और तभी क्लास समाप्त होने की घंटी बजी। और आज शायद किसी को विश्वास शायद न हो पर वास्तव में मैं अपने जीवन में कुछ भी नहीं बन सका। हालांकि ऐसी बात नहीं है कि कुछ बनने का प्रयास नहीं किया था किया पर जब कुछ बनने के दरवाजे पर पहुंचा और लगा कोई मुझे जबरदस्ती मेरी गर्दन में हाथ लगा वहां से धक्का दिया और मैं गिर पड़ा। मैं पोस्ट ग्रेजुएट,एन सी सी ट्रेंड आर डी कैम्प में राज्य का प्रतिनिधित्व, पर्वतारोहण प्रशिक्षित लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई। इससे मैं निराशावादी नहीं बना तथा आज भी बासठ वर्ष की उम्र में पहुंच कर ट्यूशन पढ़ा जीविकोपार्जन कर अपनी जीवन जी रहा हूं। अपनी बीते समय को याद कर अहसास हो रहा कि मेरे बचपन की वो कही हुई बात एकदम सत्य साबित हो गई।


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