मित्रता
मित्रता
जीवन में ढेर सारी घटनाएं घटती हैं जिनमें से कुछ तो लोग भूल जाते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो मृत्यु पर्यन्त याद रहती है। ऐसी हीं एक घटना घटी थी दो मित्रों के साथ। जिसकी शुरुआत भाटपाड़ा से होती है। भाटपाड़ा के विपरित चुचुड़ा थी और इन दोनों शहरों के मध्य हुगली नदी बह रही थी।रंजन और महेंद्र एक हीं पाड़ा में रहते थे और दोनों हम उम्र थे। दोनों का घर गंगा अर्थात हुगली नदी के किनारे था। घर से कुछ हीं दूरी पर एक धानकल जो खंडहर में बदल चुकी थी तथा उसके खाली जमीन पर घनी झाड़ियां उग चुकी थी। चुंकी यह धानकल नदी के किनारे था सो मछुआरों की नौकाएं शृंखला में बंधी रहती थी और सभी नौकाओं को मछलियां पकड़ने के काम में लाई जाती थी। जब मछुआरे मछलियां पकड़ने के लिए नौकाएं खोलते उस समय वहां रहने वाले बच्चों को बिठा कर पतवार थामते। इसलिए सभी बच्चे नींद से जागते एवं शौच का बहाना बना सीधा धानकल माठ और नंगे हो जाते तथा अपनी पैंटे वहीं नदी के घाट पर सीढ़ियों पर रख गंगा मैया के स्वच्छ जल धारा में उतर जाते। गंगा मैया की बहती धारा इन्हें अपने आंचल में आश्रय देती। जिससे ये बच्चे मछलियों की भांति नाचते। घाट पर ये लोग जब इनकी बचपना के करतब दिखाते तो सीढ़ियों पर बैठे बूढ़ों को बड़ा आनन्द आता था और बच्चों को देखकर वे लोग अपने बचपन की यादों में खोकर उनमें अपने को देखते। इस प्रकार देखा जाता है प्रकृति भी बच्चों को अपने वक्षस्थल पर एक आदर्श इंसान बनाने के लिए सारा प्यार, स्नेह, माया-ममता उड़ेलने से पिछे नहीं रहती है। प्रकृति के पालनें में पलने वाले कब तैरना सीख गए थे किसी को पता भी नहीं चला और धीरे धीरे गंगा मैया ने इन्हें साहसी तथा हर प्रकार की बाधाओं से लड़नेवाला बना दिया। तभी तो जैसे हीं दूर से आती हुई कोई नौका दिखाई दी सारे के सारे राम के सैनिक सुरसा के मुंह में जा वापस आने के लिए बहती जलधारा में घाट से कुद पड़े तथा गहरी एवं तिव्र जलधारा की ओर बढ़ते जा रहे हैं जिसे देख देखने वाला अपने सिने पर हाथ रख गहरी सांस लेने लगा। उधर नांव के मांझियों ने इन वीर जलचरों को देख लिया और प्रसन्न हो गए क्योंकि उन्हें पता था कि इसके आगे क्या होगा। तैरने वाले बच्चों में एक प्रतियोगिता थी कि कौन पहले नांव पर चढ़ेगा। आखिर एक लड़का नौका के हाल को पकड़ लेता है और झटके में उपर चढ़ आया तथा बाकी सभी एक के बाद एक नौका पर चढ़ आए इस पर पहले से हाल पकड़े रहने वाला मांझी चिल्लाने लगा क्योंकि हाल तो नांव को दांये-बाए घुमाने में मदद करता है और बच्चों ने उसे हीं अपना सीढ़ियां बना ली थी एवं संग हीं संग अन्य मांझियों के पतवारों को अपने हाथ में ले दांड़ चलाने लगे। बालू से भरे वो नौका इन राम के हनुमानों के द्वारा आगे बढ़ रही थी। आश्चर्य होता है कि गंगा मैया ने इन्हें ऐसा उर्जा का भण्डार बनाया जिसने थकान को जाना हीं नहीं था। कुछ देर बाद नौका में चढ़े लड़कों ने पुनः जलधारा में छलांग लगा दी और अब घाट वापसी किन्तु यह इतना आसान नहीं था क्योंकि जलधारा के बीच से तैरना काफी कठिनाई से भरा होता था। अतः सभी पैंतालिस डीग्री कोण की सीध में तैरते हुए आगे बढ़ रहे थे अर्थात जिस घाट से कुदे थे वहां से और भी दूर दक्षिणी तरफ वाली लगभग एक किलोमीटर दूर घाट पर उठना पड़ा। उनके घर के निकट वाले घाट से नदी के बीचोंबीच काफी बड़ा चर अर्थात जल से घिरा स्थलीय भू-भाग था। लड़के सभी नदी की तेज धारा को चिरते हुए चरा पर पहुंच दौड़ा-दौड़ी करते एवं एक दूसरे पर कादा फेंकते व खेल कुद कर जब थोड़ा थक जाते तब सभी गोल हो कर बैठे बैठे गपशप करते या तो चरा पर उगे लम्बे लम्बे घासों को एकटक निहारते, आकाश एवं बहती धारा को देखते। फिर तैर कर वापस लौट आते। अविस्मरणीय दिन था रविवार, स्कूल में छुट्टी। इसलिए सभी लड़के आज गंगा मैया से अलग न होने का संकल्प लें चुके थे। इन्हीं लड़कों में रंजन और महेंद्र भी था। सभी लड़के आज लगभग चरा पर दो घंटे कटा कर वापस आए तथा रंजन और महेंद्र को छोड़ कर सभी अपने अपने घर चले गए। घर न जाने वाले लड़के नंगे थे क्योंकि नदी में कुदने से पूर्व अपने पैंट खोलकर रख दिए थे।दोनों लड़कों में रंजन की नजर सूर्य किरणों के प्रकाश में चिक चिक करती जंजीर की तरह दिखने वाली जलधाराओं पर टिकी हुई थी जबकि महेंद्र घाट पर नहाने-धोने आने जाने वालों को देख रहा था। अचानक घाट से कुछ दूरी पर एक नाव रंजन को दिख गई और उसका मन नौका को पकड़ने के लिए मचल उठा।संग हीं संग महेंद्र से कहा महेंद्र चल चल जल में उतरो नाव को पकड़ेंगे और बिना महेंद्र से सुने घाट की ऊंची सीढ़ि से जल धारा में कुद पड़ा। महेंद्र भी बिना कुछ सोचे-समझे नदी में छलांग लगा दी। घाट पर बैठे लोगों ने देखा कि दो लड़के बहती जलधाराओं को चिरते हुए मझधार की ओर बढ़ते जा रहे हैं। समय यही कोई ग्यारह बज रहे होंगे, धूप में तीखापन आ चुका था पर लड़कपन तो खेल के लिए हीं होता है सो धूप की अनुभूति कहां चली जाती है कोई नहीं कह सकता है। धीरे-धीरे दोनों हीं मझधार के करीब पहुंचने को थे। दूर से आती हुई नाव एकदम उनके बगल में आ चुकी थी तो फिर इन दोनों जलचर वीरों को नाव पकड़ने से कौन रोकेगा। बस दोनों हीं झटपट नौका के उपर चढ़ गये। दोनों के शरीर व चेहरे पर मिट्टी के लेप चिपके से लग रहे थे। इन नंग-धड़ंग बाबाओं को देखकर किसे नहीं हंसी आएगी। इन्हें देख नौका के मांझियों को हंसी आ गई। एक मांझी ने नंग धडंग को देख कर हंसते हुए कहा-अरे शैतानों तू लोग अब बड़ा हो रहा है अपना चिड़िया को ढंक कर रखो। ठीक है ठीक है ढंकुगा पर बड़ा हो जाने के बाद। यह सुनकर मांझी फिर से हंसने लगे। उनकी हंसी भी परिवेश से ताल मिला कर सोच भी नहीं पाया था कि कुछ हीं पल में कुछ ऐसा होने वाला है कि दोनों लड़के के जान पर बन आएगी। हालांकि वे यह तो जानते थे कि थोड़ी देर बाद हीं ज्वार आने वाली है अर्थात जलराशि की धारा पश्चिम से पूर्व के जगह पूर्व से पश्चिम की ओर बहने लगेगी तथा जल की लहरें चट्टान की तरह ऊंची होकर किनारे को तोड़ने के लिए दानव की भांति दौड़ेगा। मांझियों ने दोनों से कहा-तू लोग जल में कूदना मत। हमलोग नाव के किनारे ले जा रहे हैं। तुम लोग वहीं उतर जाना। भला जो स्वयं हीं गंगा मैया के संतान हो उसे थोड़े हीं कोई डरा सकता है। ऐसे में दोनों कुद पड़े और तैरते हुए वापसी की ओर। नाव धीरे-धीरे उनसे दूर होती जा रही है और दोनों लड़के तैर रहे हैं परन्तु उनकी तैरने की गति मंद थी फिर भी अब रंजन और महेंद्र के बीचोंबीच दूरी बढ़ रही थी। महेंद्र पिछे जबकि रंजन मझधार को पार कर गया और किनारे की तरफ बढ़ रहा है। महेंद्र मझधार के बीचोंबीच पहुंच गया, और थोड़ी देर में हीं वह भी मंझधार को पार कर लेगा। आखिर रंजन किनारे आ लगा और महेंद्र मंझधार को पार कर आगे बढ़ रहा था। रंजन किनारे पहुंच कर सुस्ता रहा था तभी उसने देखा मंझधार में जलराशि काले पहाड़ की तरह ऊंचा होते जा रहा है और महेंद्र की ओर भी जल फुल रही है। वह घबड़ा गया। अरे यह तो चोरा बान है! सोचकर उसकी सारी बुद्धि गायब तथा जोर जोर से कई बार चिल्लाया महेंद्र जल्दी जल्दी तैर नहीं तो चोरा बान में फंस जाएगा लेकिन चोरा बान की उफनती लहरों की गिरफ्त में महेंद्र को कुछ नहीं सुनाई देता है। वह कोशिश कर रहा था कि किसी भी तरह किनारे की ओर बढ़ जाएं तो डुबने से बचेंगे। उसके चेहरे पर डुबने का भय साफ साफ दिखाई दे रहा था परन्तु बचने का रास्ता नहीं दिख रहा था, उसके हाथों और पैरों को जैसे कोई दबा कर रख रहा हो एवं लहरें उसे किनारे के स्थान पर पश्चिम की ओर ले जा रही थी। कुछ पल के लिए तैरना छोड़ दिया था जिससे उसे आराम मिला, संग हीं संग उसे समझ आ गया कि यदि वह अपने को लहरों की धारा में स्वयं को छोड़ दे तो डूबने से बच जाएगा और फिर जैसी सोच वैसा हीं कार्य। मन से भय को दूर हटा दिया व मन हीं मन साहस संजोए जल की धारा में बहने लगा। उधर रंजन ने जब देखा उसकी आवाज महेंद्र तक नहीं पहुंची कारण फुलती जलराशि जैसे अट्टहास कर रही थी। अतः रंजन के हाथ पैर फूल गया। समझ नहीं आ रहा था कि महेंद्र को किनारे आने में कैसे उसकी सहायता करें, यदि वह बड़ों को बुलाने जाता है तब तक कहीं महेंद्र डूब गया तो क्या होगा! इस तरह से वह अपने होशोहवास खो रोने लगा तथा गंगा मैया के किनारे दौड़ने लगा एवं पागल की तरह चिल्ला भी रहा था महेंद्र को बचा लो वह डूब जाएगा। बहती जलधारा में महेंद्र बहते जा रहा है और किनारे पर रंजन नंग धडंग होकर दौड़ते जा रहा था। जब दौड़ते हुए रंजन अपने घाट पर पहुंचा, वहां बैठे लोगों ने उसकी क्रंदन युक्त शब्दों को सुनकर उपस्थित अवस्था में कुछ भी करने में समर्थ नहीं थे। नदी का भयावह रूप देखकर सबकी आत्मा कांप गई फिर महेंद्र को बचाने की बात सोचना एक व्यर्थ प्रयास लगा। महेंद्र के बचने की आशा सबने छोड़ दिया। लेकिन मित्रता को थोड़े हीं डर स्पर्श कर पाता है मित्रता तो सुख दुःख में कदम से कदम मिलाकर चलने वाला बना देता है, भले हीं मृत्यु का सामना करना पड़े। रंजन नदी के किनारे जलधारा प्रवाह के साथ दौड़ते जा रहा था और उसकी निगाहें ऊंची लहरों में बहते हुए एक फूटबॉल पर टिकी थी जो महेंद्र का सर था रंजन धीरे-धीरे मुक्तारपुर श्मशान घाट पार कर नैहाटी लंचघाट पहुंच चुका था जहां घाट पर स्थित लोगों ने एक नंग धड़ंग लड़के को बदहवासी की स्थिति में दौड़ते हुए देख उसे रोका और उससे कुछ पुछने के पहले हीं मेरा बंधु महेंद्र चोरा बान में फंसा है डूब जाएगा। आप लोग उसे बचा लो। लंचवालों ने तुरंत हीं हुगली घाट से एक लंच को महेंद्र को बचाने के लिए अनुरोध किया। भाग्य ने साथ दिया और लंच उफनती हुई लहरों के बीचोंबीच महेंद्र की ओर बढ़ने लगी। नैहाटी लंचघाट पर लोगों ने रंजन को रोक रखा था परन्तु किसी तरह वह उनके पकड़ से छूट गया और फिर कर्दमाक्त मिट्टी में दौड़ने लगा इससे एक पल के लिए हक्का बक्का रह गया था अच्छी भली कपड़े कौन खराब करे या उनके पास शायद एक बच्चे के पिछे भागने का समय न हो। तब तक रंजन रंगकल के निकट पहुंच चुका था। उधर संभवतः नदी ने इनकी मित्रता को पहचान लिया और अपनी लहरों एवं धाराप्रवाह पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया। पहले की भांति ऊंची लहरें अब तक उठना बंद कर दिया था परन्तु ज्वार का समय था इसलिए बड़ी तिव्र गति से प्रवाहित हो रही थी जिससे महेंद्र को बचाने वाला लंच को महेंद्र दिख गया था और उसकी गति बढ़ गई। महेंद्र को भी अपनी ओर आता हुआ लंच दिखा तो उसका उत्साह दोगुना हो गया और दूसरी ओर नदी किनारे रंजन दौड़ते दौड़ते रामघाट श्मशान तक पहुंच गया। वहां पर तीन चार नौकाएं बंधी थी। मांझियों ने जब महेंद्र को डूबने से बचाने की बात सुनी तो फौरन हीं रंजन को नाव पर बिठा गंगा मैया की धारा में छोड़ दिया। इधर चोरा बान की शक्ति समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी थी फिर भी महेंद्र हुगली ब्रिज के निकट पहुंचने को था और लंच भी उसके निकट पहुंच चुका था तथा रंजन को लेकर नौका भी लंच के निकट आ गई। खैर महेंद्र को बचा लिया तथा रंजन एवं महेंद्र को लंचडेक पर ले आया एवं दोनों को नंग-धड़ंग देख सबके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और वापस नैहाटी लंचघाट के तरफ चलने लगी। नैहाटी लंचघाट पर पारापार करने वाले यात्रियों के साथ रंजन और महेंद्र के परिवार वाले भी आ चुके थे। घाट पर लंच जेटी टकराई तथा दोनों लड़कों को उनके परिजनों को सौंप दिया गया तथा उन बच्चों की मित्रता को देख सबने प्रशंसा की एवं लंच फेरीवालों ने कपड़े एवं मिठाई खरीद कर दी और कहा ये दोनों बच्चे मित्रता की मिशाल हैं।
