गुरु पूर्णिमा
गुरु पूर्णिमा
आषाढ़ मास की पुर्णिमा से एक सप्ताह पूर्व देवव्रत ने अपने घर से कुछ दूरी पर रहने वाले तीरसठ वर्षीय व्यक्ति को आमंत्रित किया उसके घर पर कोई अनुष्ठान होने वाला था। यह व्यक्ति पेशे से एक शिक्षक था जिसके हाथों न जाने कितने छात्र वर्तमान में अच्छे-अच्छे पदों पर या कोई डॉक्टर,ईंजिनीयर, वकील बन समाज में प्रतिष्ठा पा खुशहाली की जीवन जी रहा था परन्तु इन प्रतिष्ठित छात्रों को देख शिक्षक महाशय को पश्चाताप होता था। आषाढ़ का महिना चक्रवाती बरसात अपनी रौ पर था। खाल,बिल, तालाब, बड़ी नालियां सबके सब सागर में बदल चुके थे। सबके घरों में बरसाती पानी घुस चुका था और नागरिकों का घर से निकलना दूभर हो चुका था। जिसका जीता जागता उदाहरण घरों में भोजन खाट पर बैठ कर पकाई जा रही थी। स्कूल जाने वाले बच्चे भी ठीक ढंग से अपनी क्लासें अटैण्ड नहीं कर पाते और न हीं खेल पाते थे। सबसे अजीब बात तो प्रशासन की थी जो आंखें एवं कर्ण को बन्द करके बैठे थे, और बैठें भी क्यों न!मूर्ख नागरिक तो मतदान कर अपने कर्तव्य की इति करेंगे हीं। ऐसी स्थिति में किसी का आमंत्रित होना रोने का कारण बन जाता है। खैर जो भी हो शिक्षक महोदय घुटनों तक पैंट चढ़ाए रास्ते रुपी सागर को छपर-छपर करते पार कर देवव्रत के घर पहुंच गए। घर के अन्दर प्रवेश कर देखा कि दो कमरे में से एक बड़ा कमरा जिसमें लगभग कुछ स्कूली छात्र जिनकी संख्या पच्चीस एवं सात-आठ पच्चीस से चालीस के उम्र के युवा फर्श पर बैठे बातें कर रहे थे। तभी दूसरे कमरे से देवव्रत की मां बाहर आई और उनकी दृष्टि शिक्षक महोदय पर पड़ी। विनम्रता के साथ अभिवादन कर कुर्सी निकाल बैठने का अनुरोध की-मास्टमशाय आप बैठे,आपका छात्र यहीं बगल में एक दुकान गया है कुछ सामान ले आता हीं होगा। शिक्षक महोदय बैठने के बाद इधर उधर निरीक्षण करने लगे। कुछ पल में हीं बड़े कमरे से दो युवा मास्टरमशाय के पास आए एवं बड़े हीं आग्रह के साथ उनके कमरे में चलने का अनुरोध किया। दोनों अनुरोधकर्त्ताओं को देख शिक्षक महोदय मुस्कुराए कारण उन दोनों को अच्छी तरह से पहचानते थे। उनके साथ उस कमरे में पहुंचे तो पाया कि वहां उपस्थित सभी स्कूली छात्र उनके हीं छात्र थे जो नवम और दशम श्रेणी के छात्र थे। जैसे हीं कमरे में पहुंचे थे छात्रों में शांति छा गई। यह तो इन किशोर वय के लिए असंभव थी। तब उन्होंने छात्रों से कहा मेरे नाती और पोते आपलोगों का चुपचाप रहना मुझे सुख नहीं पहुंचाता है। अरे शैतानों तुम्हारा यह दादाजी को तुम्हारे हंसते-खेलते रहने से ज्यादा आनन्द प्रदान करता है। इतना सुनना था कि छात्रों के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। यह देख दोनों युवा कौतूहल मन से कभी छात्रों को तो कभी शिक्षक महोदय को देखने लगे। तब तक देवव्रत आ चुका था। उस बड़े कमरे में पचास जन की बैठने की व्यवस्था करवाया और एक कुर्सी मंगवाई तथा शिक्षक महोदय से बैठने का आग्रह किया।। बैठने के बाद सबसे पहले एक स्वपरिचय करवाया। जब शिक्षक महोदय की बारी आई तो देवव्रत ने मना किया और स्वयं हीं शिक्षक महोदय का परिचय दिया-आप हैं मेरे शिक्षक जिन्होंने मुझे प्रथम श्रेणी से दशम श्रेणी तक शिक्षा दी। केवल पुस्तकों की हीं शिक्षा नहीं मुझे चारित्रिक आदर्श एवं देशभक्ति का ज्ञान दिया। इन्होंने केवल मुझे हीं नहीं असंख्य छात्रों को तैयार किया है जिनमें से आज कितने हीं एक आदर्श नागरिक बन सम्मान का जीवन जी रहे हैं। तब तक देवव्रत की धर्मपत्नी चाय की ट्रे लिए आ गई एवं सबको चाय-बिस्कूट दी। इसी बीच देवव्रत की मोबाइल पर बुलावा आया और वह बरामदा की ओर चला गया। जब वह वापस लौटा उसके चेहरे पर क्रोध की रेखा दिख रही थी। अन्य युवाओं ने उससे पूछा तो उसने कहा जिन लोगों ने आज का कार्यक्रम करने का आदेश दिया था वो लोग नहीं आएंगे। यह सुन उन युवाओं में भी नाराजगी झलक उठी। एक तो इतना विक्षुब्ध हुआ कि उसके शब्दों में प्रकट हो गई-जब हमें देशभक्ति का पाठ पढ़ाने वालों की बातें झूठी हो जाती है तो ये हमे कौन सा आदर्श मार्ग पर चलने को कहते हैं। यह सारी बातें शिक्षक महोदय ने भी सुना और बोले-आदर्श के मार्ग में आशा-निराशा तो लगी रहती है तो क्या आदर्श त्याग देना उचित होगा। अपना कर्म का उचित पालन करते हो तो वही तुम सबकी देशभक्ति है और तुम्हारे ऐसे कर्त्तव्य परायण युवाओं से हीं हम सबकी मातृभूमि भारत उन्नति के मार्ग पर अग्रसर है। इसलिए आज गुरु पूर्णिमा का पावन दिन है अपने कर्तव्यों का पालन करो। शिक्षक के इन शब्दों ने उन युवाओं के चेहरे पर मुस्कान बिखेरी। वर्तमान समय के स्कूली बच्चों को दादाजी की बात बड़ी अटपटी लगी। देवव्रत और अन्य युवाओं ने उस कमरे से बाहर निकल बरामदे में जा आपस में कुछ बातें किए और वापस कमरे में आ गए तथा शिक्षक महोदय से देवव्रत ने कहा-काका, आपको बहुत बहुत धन्यवाद जो हमें अपने कर्त्तव्य बोध का स्मरण करा दिए। हम गुरु पूर्णिमा पर गुरु पूजन अवश्य करेंगे। देवव्रत कमरे से बाहर निकल गया। अन्य युवाओं में काजल और श्यामल ने उपस्थित सभी को अनुशासित ढंग से खड़ा करवा दिया। तब तक अचानक चौंकाने वाली दृश्य शिक्षक महोदय ने देखा। देवव्रत के हाथ में एक पितल की थाली और उसकी धर्मपत्नी के हाथ में लोटे में जल था और उसकी दो वर्षीया पुत्री के हाथ में फूल लिए उपस्थित। देवव्रत शिक्षक महोदय के पैरों के पास थाली रखी तथा पत्नी से जलपूर्ण लोटा लिया, यह देख पहले तो शिक्षक महोदय को झिझक अनुभव हुआ जबकि देवव्रत लोटे के जल से शिक्षक के चरणों को पखारने लगा तत्पश्चात स्वच्छ कपड़े से पखारे चरणों को पोछ कर उस पर पुष्पांजलि अर्पित की और उसकी पत्नी ने भी पति का अनुकरण किया। शिक्षक महोदय की आंखों से आंसू बहने लगी जो किसी दुःख के नहीं बल्कि खुशी एवं गर्व की थी और हो भी क्यों नहीं आखिर एक शिक्षक क्या चाहता है उसका छात्र भविष्य में देश का एक आदर्श नागरिक बने और अपने गुरूजनों का सम्मान दे। अपने आंसुओं को पोंछने का अवसर भी नहीं मिला अन्य युवाओं ने देवव्रत का अनुकरण किया एवं स्कूली छात्रों ने बड़ों का अनुकरण किया। इतना सब कुछ सम्पन्न होने के बाद देवव्रत ने-कहा आपने हमें पुस्तक ज्ञान के साथ साथ अपनी संस्कृति व संस्कार पर गर्व करना भी सिखाया है इसके विनिमय में हमसे कभी किसी भी प्रकार के उपहार या मेहनताना से अधिक कुछ नहीं लिया। अतः आज हमने आपका पूजन कर यह संकल्प लिया है कि आपके दिखाएं देशभक्ति के मार्ग पर आजीवन चलेंगे तथा ऐसा कोई भी कार्य नहीं करेंगे जिससे हमारी मातृभूमि भारतवर्ष की सम्मान को हानी पहूंचे।
