ममता

ममता

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शौक से गौरी चार धाम यात्रा पर आई थी। उसे तो कोई आने ही नहीं दे रहा था, सभी ने रोका था।

"पागल हुई है ? अभी तो सारी उम्र पड़ी है तेरी। दो साल के नन्हे से बच्चे को लेकर कहां जाएगी ?" सास में डांटा।

"आप भी चलो न मां जी ! इसी बहाने आप की भी तीर्थयात्रा हो जाएगी। " गौरी ने आग्रह किया।

"मेरी हिम्मत नहीं है उतनी दूर जाने की। पहाड़ पर क्या कम पैदल चलना होता है। कमर दर्द से वैसे ही परेशान रहती हूं। मन चंगा तो कठौती में गंगा। मेरे सारे तीर्थ तो यहीं है। "

"तो हमें जाने दो न अम्मा ! तुम्हारी उम्र की हो जाएगी तो गौरी से भी न चला जाएगा। हर साल कहीं न कहीं घूमने तो जाते ही हैं। इस बार इधर ही सही। इसी बहाने दिल्ली की गर्मी से थोड़ा निजात मिल ही जाएगी। " शिवेंद्र ने मां से सिफारिश की तो वे मान गई।

दो साल के राजू को गोद में लेकर पति-पत्नी एक सप्ताह का प्रोग्राम बनाकर चल पड़े। अधिक से अधिक दस दिन रुकेंगे। गौरी की खुशी का पार न था। बहुत दिनों से इच्छा थी उसकी जो आज पति पूरी कर रहे थे।

 चलते समय मां ने ग्लूकोस के दो डिब्बे, बिस्कुट का बड़ा सा डिब्बा और सूखे दूध के पाउडर का एक डिब्बा सामान में रख दिया तो शिवेंद्र बोला-

"क्या अम्माँ ! अरे हम जंगल में थोड़े ही जा रहे हैं। अब तो बद्रीनाथ केदारनाथ सब जगह घनी बस्ती होटल और बाजार बन गए हैं। सब कुछ मिलता है वहां और मैंने अपना ए टी एम कार्ड भी रख लिया है। पैसों की जरूरत पड़ेगी तो वही निकाल लेंगे। आप चिंता मत करो। " लेकिन मां की जिद माननी ही पड़ी।

गौरी ने उनके दिए सब सामान को अपने बैग में डाल लिया। यही क्या कम था कि उन्होंने जाने की आज्ञा दे दी थी। एक दिन हरिद्वार में रुक कर वे आगे बढ़े।    

जून के महीने में भी वहां का मौसम ठंडा और खुशगवार था। गंगा की निर्मल धारा और चारों ओर फैली हरियाली। विभिन्न मंदिरों में मत्था टेकते आगे बढ़ते रहे। गौरीकुंड तक उनकी कार ने साथ दिया। उसके आगे का रास्ता पैदल तय करना था। शिवेंद्र ने एक दिन वही रुकने का प्रोग्राम बनाया, शाम होने वाली थी। इसलिए वे वही एक होटल में कमरा लेकर ठहर गए।

दूसरे दिन सुबह सवेरे जल्दी निकलना होगा इसलिए रात में ही गौरी ने अपना बैग तैयार कर लिया। उसने राजू के कुछ कपड़े, बिस्कुट का डिब्बा, ग्लूकोस, दूध का डिब्बा, इसके अलावा एक बोतल पानी की भी रख लिया। खाना खाकर रात ग्यारह बजे तक सब सोए।

अभी नींद ठीक से आई भी न थी कि द्वार पर खटखटाहट हुई। शिवेंद्र ने दरवाजा खोला। बाहर होटल का मैनेजर था। बोला -

"कमरा खाली करो। ऊपर बादल फटा है। जल्दी करो, बाहर निकल लो सब।" कहता वह दूसरे कमरे के दरवाजे की ओर बढ़ गया। 

 बाहर कोलाहल हो रहा था, शिवेंद्र दे जल्दी से पत्नी को जगाया। राजू को गोद में उठाया और बाहर की ओर भागा। दरवाजे तक पहुंचकर गौरी पलट गई। भागकर उसने तैयार किया हुआ बैग उठा कर कंधे पर लटका लिया। दोनों होटल से बाहर पहुंचे तो भगदड़ मची हुई थी। चारों ओर से टार्चें चमकाते चीखते चिल्लाते लोग भागे जा रहे थे। वे भी उन्हीं के साथ हो लिए।

अनजानी जगह, अनजाना रास्ता। कुछ पता नहीं था कि वे किधर जा रहे हैं। बस आगे आगे भागते हुए लोग और पीछे हर-हराता हुआ जल दानव जो सबको निगल जाना चाहता था। आगे भागने वालों में कुछ स्थानीय लोग थे। वे चिल्लाए-

"बाएँ... बाएँ चलो। जंगल ..... जंगल की ओर चढ़ जाओ। " भीड़ बायीं ओर मुड़ गयी।

भाग कर वे एक चट्टान पर चढ़ ही पाए थे कि तभी जैसे प्रलय आ गई। पीछे चीख-पुकार मच गई। पानी का एक बड़ा रेला आया और सब कुछ बहा ले गया। शिवेंद्र राजू को सीने से लगाए एक हाथ से चट्टान का कोना पकड़ कर चिपका हुआ था। उसी के पास पड़ी गौरी हाँफ रही थी।

नीचे बहता पानी गौरी के पैरों को भिगो रहा था। किसी प्रकार सरक कर वह थोड़ा ऊपर आ गई। पति और पुत्र को निकट देखकर थोड़ा धीरज हुआ। वर्षा पूरे जोर से हो रही थी। ठंडे पानी से भीग कर उनके दांत बज रहे थे। ठंड से कांपता राजू पिता के सीने से चिपका जा रहा था।

 "हे शिव जी ! हे बाबा केदारनाथ ! रक्षा करो शंकर जी !" दोनों होठों ही होठों में बुदबुदाते प्रार्थना कर रहे थे। पानी की तेज धार चट्टान से टकराती बह रही थी। लगता था जैसे वह चट्टान को भी उखाड़ कर अपने साथ बहा ले जाएगी। रात के अंधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। 

"राजू के बापू ! हमें डर लग रहा है। कहीं यह चट्टान बह गई तो ......"

गौरी ने कांपते स्वर में कहा। "कुछ नहीं होगा गौरी। शंकर जी रक्षा करेंगे। इस अंधेरे में किधर बढ़ें ? थोड़ा उजाला हो जाए तो ......"

शिवेंद्र की बात पूरी भी न हुई थी कि वह चट्टान हिल उठी। चीख पड़े लोग। ऊपर पहाड़ी से किसी ने टोर्च की रोशनी दिखा कर कर चीख कर कहा-

"इस ओर ऊपर आ जाओ, इधर। "   

 शिवेंद्र ने सिर उठाकर देखा। ऊपर कई लोग चढ़ गए थे। किसी प्रकार संभलकर वह भी ऊपर की ओर चढ़ने लगा। उसके पीछे गौरी थी। चट्टान से ऊपर अभी वह चार कदम ही चले थे कि तेज पानी की धार ने उस चट्टान को उखाड़ दिया। तेजी से लुढ़क कर वह लहरों में समा गई। 

गोरी के मुंह से चीख निकल गई। उन्हें वहां से हटने में दो मिनट की भी देर हो गई होती तो .....। इसके आगे वह नहीं सोच सकी। अंधेरे में गिरते पड़ते ऊपर चढ़ते लोगों की आवाजों के सहारे ठोकर खाते वे ऊपर चढ़ते रहे। 

कुछ ऊपर पहुंचने पर एक घने वृक्ष का सहारा पाकर गौरी बैठ गई।

"बस राजू के बापू ! अब थोड़ा दम ले लो। "

"ठीक कह रही हो। " वही पर ठहर गए वे। पेड़ के नीचे होने के कारण वर्षा की बौछारों से कुछ राहत मिल गई उन्हें। 

वहीं बैठे बैठे सवेरा हो गया। गौरी ने आंखें खोली। नीचे चारों तरफ पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। उनका होटल,आसपास के होटल,धर्मशालाएं , सड़क के किनारे बनी छोटी-छोटी दुकानें .... कहां गई सब ? जैसे किसी ने सब पर पानी का कीचड़ भरा रंग फेर दिया था। हर हराता पानी अपने साथ सब कुछ बहा ले गया था, इमारतों ही नहीं इंसानों को भी। सड़क कहां गई ? जगह-जगह टूटे रास्ते, गड्ढे और मलबे का ढेर ... और सब के बीच बहता कीचड़ पानी। शायद यहीं प्रलय है ... जल प्रलय जिस की कथा पुराणों में मिलती है।

वे और उनके निकट फैले हुए लोग, खाली हाथ, बस जान बचा कर भाग आये लोग। किसी किसी के पास बैग और किसी किसी के हाथ में पानी की बोतल। सभी घायल, आहत टूटे हुए।

"उठो गोरी ! और ऊपर चलना होगा। ऊपर जंगल में।"

"वहां जानवर भी तो होंगे ?" गौरी ने पूछा। 

"हां,लेकिन ऊपर तो चलना ही होगा। यहां रहने से क्या होगा ?" शिवेंद्र ने उठते हुए कहा।

आसपास के लोग भी एकत्र हो गए और ऊपर जंगल में चलने के लिए तैयार हो गए। उजाला हुआ, प्राण बच गए तो वे अपने साथियों, परिवार वालों को ढूंढने लगे। किसी की मां नहीं मिल रही थी तो किसी का पति या साथी छूट गया था।

जो पीछे छूट गए उनके मिलने की तो कोई आशा ही नहीं थी। पता नहीं पानी बहा ले गया उन्हें या ऊपर से बह कर आयी गाद ने अपनी गोद में दफन कर लिया। परंतु आशा, आशा ही तो मनुष्य को हर परिस्थिति में जीवित रहने की प्रेरणा देती है।

"परेशान मत हो। शायद वह लोग भी कहीं ऊपर चढ़ गए होंगे। अब पहाड़ कोई छोटा सा तो है नहीं। चलो, शायद ऊपर मिल जाएंगे।" 

किसी ने जोर से कहा, बहते आंसू ठिठक गए। आंखें सूखने लगी। जो सामने थे उनकी रक्षा का प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ।

राजू को भीगने के कारण बुखार आ गया था। गौरी ने बैग में से निकाल कर उसे अपनी शॉल उढ़ा दी। थोड़ा सा सूखा दूध चटा कर उसे पानी पिलाया और आगे बढ़ चले। घना जंगल बाहें पसारे उनका स्वागत कर रहा था। सारा दिन जंगल में भटकते बीत गया। न कहीं रास्ता है न मंजिल। न खाने के लिए कुछ था न पीने के लिए साफ पानी।

गौरी ने दोपहर होने पर बिस्कुट का पैकेट खोल कर राजू को दो बिस्कुट दिए। एक शिवेंद्र को दिया और एक खुद ले लिया। बच्चे को पानी पिलाकर एक एक घूंट से गला तर कर लिया। इतना भटकने पर भी कहीं पानी नहीं मिला था। जो छोटे-मोटे गड्ढे वगैरह थे वे भी गंदे पानी से भरे थे। कुछ लोगों ने विवश होकर वहीं गंदा पानी चुल्लू भर पी लिया। भूख से व्याकुल होकर कुछ लोगों ने पेड़ों के मुलायम पत्ते तोड़कर उन्हें ही चबा चबा कर निगल लिया। रात आई तो जिनको जहां जगह मिली खुले आसमान के नीचे या पेड़ों के साए में गीली जमीन पर किसी तरह लेट बैठ कर झपकी ले ली।

दूसरी सुबह कई लोग ठंड खा गए। कुछ तो गंदा पानी पीने से डायरिया हो गया तो कुछ लोग कुछ भी न खाया होने के कारण उल्टियां करने लगे। गौरी और शिवेंद्र एक चट्टान के सहारे लेटे थे। कहीं से दो व्यक्ति और आ गए थे। वे भी उन्हीं के पास आकर बैठ गए। वृद्ध दंपति के आश्रय लेने से उन्हें भी अच्छा लगा। नींद तो मौत के मुंह में भी आ जाती है। न जाने कब उनकी भी आंख लग गई। शिवेंद्र ने सुबह उठ कर किसी तरह कमर सीधी की।

"उठो गोरी ! राजू को मुझे दे दो।" उसने कहा।

राजू रात मां की गोद में सोया था। गौरी रात सोए में वृद्धा से लिपट कर सो गई थी। राजू को गोद में उठाते हुए वह बोली -

"उठो माताजी ! सवेरा हो गया।" 

शिवेंद्र ने बच्चे को गोद में ले लिया।

"लगता है माताजी गहरी नींद में है अभी।"

गौरी ने उन्हें हिलाया तो उनका शरीर एक और लुढ़क गया। 

"हे भगवान मैं रात भर की लाश से लिपटकर सोती रही ?" गौरी चिल्ला पड़ी।

फटी फटी आंखों से वह उन्हें देख रही थी। वृद्ध भी उठ गए थे। पत्नी के शव से लिपटकर वह रो पड़े। "इसे ठंड नहीं सहन होती थी। चली गई मुझे छोड़कर।" 

गौरी की गोद में राजू को दे कर शिवेंद्र ने उन्हें संभाला, सांत्वना दी।

"आइये बाबा ! आगे चलें।"

"और इसे इसे यूं ही छोड़ दे ?" उन्होंने बड़ी मासूमियत से पूछा।

"छोड़ना ही होगा बाबा ! शायद भोलेनाथ की यही मर्जी थी।" 

उसने वृद्ध को सहारा देकर उठाया। बार-बार छलछला आती आंखों से पत्नी के शव को देखते हुए वे आगे बढ़ चले।

जब भी कोई नया दल मिलता वह अपने परिजनों को ढूंढने लगते। जंगल में भटकते भटकते दिन रात बीतने जा रहे थे। लगता था जैसे न यह जंगल खत्म होगा और न उनका भटकना। एक एक बूंद पानी और एक-एक टुकड़ा भोजन के लिए तरस रहे थे वे। जंगल के कड़वे कसैले फल फूल और पत्तियां चबाते अच्छे खाने का स्वाद भूल चुके थे वे।

 कितने घर बहे, कितनी गाड़ियां पेड़ के पत्तों की तरह बह गई, कितनी इमारतें धराशाई हुई, कोई हिसाब नहीं। कितने लोगों को पानी बहा ले गया, कितने पहाड़ों से बहकर आई गाद में दफन हो गए, कोई गिनती नहीं। गिनती तो उनकी भी नहीं हो पाई जो किसी प्रकार अपने प्राण बचा पाए। और वे भी कितने दिन जी सकेंगे ? कब मिलेगी उन्हें सहायता ? कोई उत्तर नहीं। 

 और फिर यह संकट केवल यात्रियों के लिए ही नहीं था। उस सैलाब में सैकड़ों गांव बह गए। खेतों में खड़ी फसल पर पहाड़ से बहकर आई गाद की मोटी परत जमा हो गई। कितनों को तो ढंग के कपड़े पहने तक का समय नहीं मिल पाया था। प्रकृति के इस आक्रोश ने हजारों प्राण ले लिए। हजारों को बेघर, बेआसरा कर दिया। क्या होगा उनका ? कैसे स्वयं को फिर से स्थापित कर सकेंगे वे ?

पाँच दिन हो गए थे उन्हें भटकते हुए। जंगल में स्थान स्थान पर लोग प्राण दे रहे थे। कितने ही शव इधर-उधर बिखरे हुए थे। गौरी की बोतल एक दिन पहले ही खाली हो चुकी थी। प्यास से होंठ चटकने लगे थे। नन्हा राजू भूख से बिलख रहा था। बरसात से भीगे अपने कपड़े चूस कर उन्होंने अपने सूखे ओठ तर किये परन्तु बच्चे को क्या दें ? बिना पानी के सूखा दूध गले से नहीं उतरता। ग्लूकोस भी खत्म हो चुका था। गौरी की आंखें पानी की तलाश में भटक रही थी। 

वे जिस ओर बढ़ रहे थे वहां शायद कुछ शव सड़ने लगे थे। बदबू के कारण सांस लेना दूभर हो रहा था। तभी गौरी की दृष्टि एक गिरे हुए सूखे पेड़ के पास पड़ी बोतल पर पड़ी। पेड़ के नीचे से बोतल का ढक्कन दिखाई दे रहा था। वह झपट कर उधर बढ़ी।

निकट जाकर देखा एक हाथ बोतल थामे हुए था। पेड़ के पीछे एक स्त्री का शव पड़ा था जिसने हाथ में बोतल पकड़ रखी थी। गौरी ठिठक गई। आंखें छलक पड़ी। हाथ जोड़कर बोली-

"क्षमा करना बहन ! इस पानी की मेरे बच्चे को ज्यादा जरूरत है।" 

 उसने धीरे से शव की उंगलियों में फंसी बोतल खींच ली और वापस लौट आई। उसकी आंखों में ममता और तृप्ति का सागर लहरा रहा था। बोतल में भरा तीन चौथाई पानी उसके बच्चे का जीवन बचा सकता था। और क्या चाहिए एक मां को ?

उसने बोतल से पानी लेकर उसमें दूध घोला और बच्चे के मुंह से लगा दिया। गौरी की आंखों से गंगा जमुना बह रही थी।

आठ दिन बाद मिलिट्री के जवानों ने उन्हें हरिद्वार पहुंचा दिया। परंतु यह भी क्या आसान था ? वे भटकते भटकते किसी प्रकार जंगल से नीचे उतर कर खुले में आए। जवानों ने रस्सी के सहारे उन्हें किसी प्रकार नीचे समतल स्थान पर उतारा जहां हेलीकॉप्टर उतारना संभव था।

दो दिन की प्रतीक्षा करने के बाद कहीं उनका नंबर आया। कितने आबाल वृद्ध, नर नारी, सबकी आंखों में निराशा भूख और प्यास करवटें बदलती दिखाई दे रही थी। सैनिकों ने ही उन्हें ब्रेड और पानी दिया जिससे थोड़ी भूख प्यास मिटी।

और फिर हरिद्वार पहुंचने पर भी दिल्ली तक जाने के लिए साधन ढूंढना। ट्रेनों में पैर रखने की भी जगह नहीं थी। किसी प्रकार डिब्बे में घुसे। जैसे तैसे करके घर पहुंचे। इतने दिनों में माँ जी का रो रो कर बुरा हाल था। सारे दिन मंदिर में पड़ी भगवान से अपने बच्चों के सकुशल लौट आने की प्रार्थना किया करती। बच्चों को देखते ही छाती से लगाकर फफक फफक कर रो पड़ी।

"अब अब न जाना बच्चों ! अब न जाना इस बुढ़िया को छोड़कर।"

"हाँ माँ जी ! अब बस। बिना आपकी आज्ञा के अब कहीं नहीं जाएंगे हम।" कह कर गौरी ने सास की गोद में मुंह छुपा लिया।


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