Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

मजदूर की लुगाई ..

मजदूर की लुगाई ..

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निर्माण की जा रही बहुमंजिला इमारत का काम रुक गया था। पहले, आशा थी कि 21 दिन बाद, सब सामान्य हो जाएगा। कोरोना महामारी से निबटने के लिए उपचार खोज लिया जाएगा। कोरोना का फैलाव नियंत्रित हो जाएगा। अस्पतालों में आवश्यक व्यवस्था कर ली जायेगी लेकिन जब, लॉक डाउन बार बार आगे तक के लिए बढ़ाया जाने लगा तो जगन निराश हुआ था।


एक शाम सरोज से जगन ने कहा- कमाई तो बंद हुई है। बैठे-बैठे खायेंगे तो जुड़ा सब पैसा खर्च हो जाएगा। हम गाँव चलते हैं, यहाँ से सस्ते में वहाँ सब मिलेगा। कम खर्चे में गुजर होगी। फिर सरोज और जगन मुंबई से गाँव तक की, पैदल यात्रा पर चल निकले थे।


दरअसल, जगन 10 साल से मुंबई में बेलदार/मिस्त्री का काम किया करता था। यहाँ से कमा कर पिता को बचत किये पैसे पहुँचाता था, ताकि छोटे भाई बहन की परवरिश में उन पर भार, कुछ कम हो जाये। जगन का गाँव 1200 किमी दूर था। 6 साल पूर्व जगन की शादी, पड़ोस के गाँव की सरोज से हुई थी। 


हर दिन बढ़ती जा रही गर्मी में, इतने दूर चलना, जगन-सरोज की कल्पना से ज्यादा कठिन काम था। वे रास्ते में कई जगह, गाँव की दिशा में 20-40 किमी का कोई ट्रक-बस या अन्य साधन, मिलता तो उसमें सफर करते। जब कुछ नहीं मिलता तो 20-30 किमी लगातार पैदल चलते।

ऐसे सफर में सरोज ने रास्ते में, देशवासियों के कई रंग अनुभव किये।

अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में, जहाँ रहकर जगन के तरह के लोग, उनके आशियाने निर्माण करते थे। आज वही लोग, मजदूरों की पैदल, गाँव जाती भीड़ को, हिकारत से देखते मिलते।


ज्यादातर लोग (ट्रक ड्राइवर आदि) मदद की अपेक्षा, उनसे ज्यादा कमाई करने की कोशिश करते। यात्री भरते हुए, उन पर लोभ हावी होता। ज्यादा भरे जाने पर संक्रमण के खतरे की, उन्हें परवाह नहीं होती।

ठसाठस भरी गाड़ियों में, मर्द-औरत पास पास होते। इस विपदा काल में भी, गैर मर्दों पर हावी कामुकता, अनेक मौकों पर सरोज को, अपने बदन पर अनुभव होती।


कभी पैदल-कभी गाड़ियों पर, ऐसे उनकी यात्रा चलती। रास्ते में पड़ते शहर-गाँव में कहीं परोपकारी मुफ्त भोजन बाँटते मिलते। कहीं छुटभैय्ये नेता मिलते तो खाना देने के साथ पार्टी का नाम बताते। सहायता के भाव से ज्यादा, हममें, अगले चुनाव में इन्हें, अपने लिए संभावना दिखाई पड़ती।

वितरण करने वाले मर्द, कुछ दया दृष्टि से तो, कुछ ख़राब नीयत से औरत को देख, उन्हें पहले पैकेट्स देते। जबकि जगन को पैकेट लेने में, ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती। खाना वितरण की भीड़ में, अतः लाचारी में जगन, सरोज को आगे करता।


सहायता लेने वाले भी कई तरह के मिलते। कुछ अपने मिले पैकेट्स, ज्यादा भूखे को दे, फिर नये पैकेट्स लेने के प्रयास में लगते। कुछ लोभ में अधिक पैकेट्स लेते और उदार पूर्ति के बाद भी, अपने पास छुपा कर रखते। रात से सुबह तक ख़राब हो जायें तो फेंक देने में, उन्हें कोई अफ़सोस नहीं होता। किसी को, मुफ्त की मिली चीज का व्यर्थ जाया होने का, रंज कहाँ होता है।


रास्ते में कई लोगों की दृष्टि में, सहानुभूति तो, कई की नज़र में नफरत देखने मिलती, जैसे कि वे साक्षात कोरोना को ही देख रहे हों।

पुलिस कहीं सहयोगी मिलती तो, कहीं इतनी गर्मी में भी, दूर से आ रहे थके लोगों पर, लट्ठ भाँजने में कोई दया नहीं दिखाती।

इन कटु तथा बीच बीच के रोमाँचक अनुभवों भरी यात्रा, अंततः 16 दिनों में पूरी हुई थी। घर पहुँचकर, सरोज और जगन ने अन्य सदस्यों से सावधानी बतौर दूरी रखने की कोशिश की तो, घर में कुछ लोगों को इसमें, दोनों का शहरी घमंड दिखाई दिया। 


अच्छी नीयत से ही (क्वॉरंटीन जैसे) घर के अन्य सदस्यों से दूरी के विचार से, रात जल्दी ही सरोज, पीछे के कमरे में जगन के पास चली गई। अगली सुबह, कुएँ पर देवरानी ने ताना मारा- छह साल में तो पैदा कर नहीं पाई जिठानी, क्या यहाँ एक ही रात में औलाद पैदा करना चाहती हो?

सरोज सुनकर बुरी तरह आहत हुई। उसे यात्रा के ख़राब अनुभवों से लेकर, इस वाक्य तक की, हलकी/संकीर्ण मानसिकता पर रोष हो आया।

वह, नहाते हुए सोचने लगी, कोरोना वायरस तो जान ले सकता है मगर समाज विचारों में लगा संक्रमण तो, औरत को जीते जी मारता है ..


 



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