Er Rashid Husain

Abstract

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Er Rashid Husain

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मजबूर ही आखिर मजदूर है

मजबूर ही आखिर मजदूर है

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भले ही हमारे रोजमर्रा के जीवन में मजदूरों की वह जिंदगी एक सामान्य से प्रतीत होती है और जिसे हम देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।

वह भोर की किरण फूटने से पहले गांव छोड़कर शहर की ओर निकल पड़ते हैं ट्रेनों बसों और साइक्लो से झुंड के झुंड चलकर शहर के विभिन्न चौराहों पर लगने वाली मजदूर मंडियों में शामिल हो जाते हैं अपने पसीने को बेचने के लिए फिर शाम ढलते अपने आशियाने की तरफ लपक ते हैं परास्त और पस्त। मुक्तसर ये हजारों मजदूरों की यह कहानी है। गांव में घटते रोजगार, कम मजदूरी, उधारी, बेगारी, जनसंख्या वृद्धि बढ़ते कंक्रीट के जंगल और सिकुड़ती खेती की जमीन तथा जातिवादी अहंकारों ने गांव के मजदूर और हुनरमंदो को शहर की मंडियों में खड़ा होने को मजबूर कर दिया है । यह तो सिर्फ शहर के करीब लगने वाले आस-पास के गांव देहात के मजदूरों की है और जब यह खबर की गई थी तब कारोबारी हालात आज जितने खराब नहीं थे वहीं दूसरी तरफ वह मजदूर है जो रोजगार की तलाश में देश के बड़े शहरों में कुछ अकेले तो कुछ परिवार सहित बस गए हैं। इस समय उन्हीं पर तालाबंदी की मार सबसे ज्यादा पड़ी है। यहां अपना मैं एक अनुभव साझा कर रहा हूं। कई साल पहले की बात है मैं दिल्ली में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में साइट इंजीनियर के तौर पर नौकरी करता था हमारी साइट पर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल की काफी लेबर काम करती थी अपनी आदत के मुताबिक मैं सभी से घुलमिल गया था सभी मजदूर मेरी बहुत इज्जत करते थे और कभी-कभी वह अपने घर परिवार की बातें भी साझा कर लेते थे मजदूरों का कार्य दिवस सुबह 9:00 बजे से शाम 6:00 बजे तक का होता था जिसमें एक घंटा खाना खाने के लिए छुट्टी दे दी जाती थी। अधिकतर मजदूर शाम को 6:00 बजे ड्यूटी पूरी करके चले जाते थे लेकिन कुछ मजदूर ओवर टाइम रात 10:00 बजे तक करते थे।एक दिन एक मजदूर से मैंने कहा तुम इतनी मेहनत क्यों करते हो जवाब मिला बाबूजी दिनभर की दिहाड़ी से घर का खर्च उठाना भारी पड़ता है और घरवालों की आस भी हमसे लगी रहती है हमारी कमाई में वहां दूर हमारे घरों में चूल्हे जलते हैं यहां तक तो बात समझ में आ गई थी लेकिन एक कमजोर से दिख रहे मजदूर से जब मैंने हंसते हुए कहा अरे भाई तू इतनी मेहनत करता है दूध पी लिया कर तब उसने बड़ी मायूस आंखों से मेरी तरफ देखा और कहा बाबू जी अगर मैं यहां दूध पियूंगा तो वहां गांव में मेरा बच्चा क्या पिएगा ? उसकी इस बात को सुनकर मैं चुप रह गया और मेरे पास कोई जवाब नहीं था। वह ज्यादा पैसा कमाने के लिए 8 घंटे काम करने के बाद भी 4 घंटे और अपने शरीर से पसीना बहाते हैं तो वह उनकी मजबूरी थी।

आज जिस तरह से मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है और आत्मनिर्भर बनने की बातें हो रही हैं बहुत ही पीड़ादायक है। हम तो बस साल में एक बार मजदूर दिवस मना कर अपने काम की इतिश्री कर लेते हैं। सरकार द्वारा चलाई गई गरीबी उन्मूलन की तमाम विकास योजनाएं धरातल पर कहीं दिखाई नहीं देती जिसके कारण मजदूरों के जीवन में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है ।

2020 में जब कोरोना महामारी ने देश मे दस्तक दी तब तालाबंदी करनी पड़ी थी जिस कारण तालाबंदी की मार सबसे ज़्यादा मजदूर पर पड़ी थी और आज भी उन्ही पर पड़ रही है । अधिकतर मजदूर खूनी सड़को और रेल की पटरी पर से गुजरते हुए अपने घर पहुंच चुके थे। और कुछ रास्तों में थे।भले ही देर से सही सरकार ने ट्रेनों और बसों का इंतजाम तो किया था लेकिन वह नाकाफी था और उनसे पहले ही लाखों मजदूर अपने गांव की तरफ लौट चले थे।

कुछ मजदूर कभी वापस न लौटने की बात कह कर गए थे मगर स्थिति कुछ सामान्य होने पर पेट की भूख उन्हें बड़े शहरों की तरफ फिर वापस ले आयी थी। भले ही सप्ताह में एक दिन,दो दिन या तीन दिन ही काम मिल सका लेकिन कुछ अच्छा होने की उम्मीद थी जो अब धराशाई होती दिख रही है। अब चूंकि कोरोना महामारी के हालात फिर से भयावह हो गए हैं जिस कारण देश मे कुछ शहरों में पूर्ण लॉकडाउन और कुछ में सप्ताह में दो दिन तो कंही नाईट कर्फ्यू लगाना पड़ रहा है पूरे देश मे फिर से पूर्ण तालाबंदी के डर की आशंका के चलते फिर से मजदूर घर वापसी कर रहा है।

फिलहाल स्थिति सामान्य होने पर बंद पड़े आर्थिक गतिविधि के पहिए को घुमाने के लिए उनको वापस लाना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि कुछ मजदूर कभी वापस न लौटने की बात कह कर गए हैं। उनका विश्वास बड़े शहरों सरकार और उद्यमियों से टूटा है। आज जरूरत सरकार को उनका विश्वास जीतने की है जो उनके हकूक है उन पर जमीनी स्तर पर काम करने की है। मजदूरों की दशा सुधारने की है क्योंकि यह हमारे राष्ट्र निर्माता हैं।


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