महामारी और हमारी जिम्मेदारी
महामारी और हमारी जिम्मेदारी
तमाम दुनिया के साथ इस समय हिंदुस्तान में भी फैली महामारी से पार पाने के लिए जैसे जैसे लॉक डाउन बढ़ाया जा रहा है वैसे वैसे लोगों की दुश्वारियां भी बढ़ती जा रही हैं और कई दिल को झकझोरने वाली कहानियां भी सामने आ रही हैं ऐसा ही एक वाकया बीती रात मेरे सामने पेश आया रात के लगभग साढ़े दस या ग्यारह बजे का वक़्त रहा होगा में अपने ड्राइंग रूम मैं बैठा एक मित्र से बाटे कर रहा था उसी वक़्त दरवाज़े पर दस्तक हुई मैन दरवाज़ा खोला तो देखता हूँ कि लगभग दस से बारह साल के दो बच्चे जिनके हाथ में एक प्लास्टीक का थे ला था मुझसे बोले अंकल डबल रोटी (जिसे रमज़ान के महीने में रोज़ेदार सेहरी में दूध में भिगोकर खाते हैं) लेंगे मैंने कहा नहीं बेटे डबलरोटी तो रखी है ये सुनकर कुछ मायूस होते हुए चले गए और में भी वापस आकर अपने मित्र के साथ बातों में मशगूल हो गया मित्र के जाने के बाद में उन बच्चों के बारे में सोचने लगा कि इनकी ऐसी क्या मजबूरी रही होगी ? जो इतनी रात को डबलरोटी बेचने के लिए निकले और वो भी एक छोटे थैले में जिसमें मुश्किल से दो या तीन पीस ही होंगे
क्या उनके घर में कोई बड़ा कमाने वाला नहीं था ? इसी तरह के कई सवाल मन को कचोट रहे थे और सोचते हुए सहर हो गयी मैंने सेहरी करी और सो गया। सुबह उठकर उन बच्चों के बारे में मोहल्ले में मालूमात करनी चाही लेकिन कुछ पता नहीं चल सका
बहरहाल ऐसी बहुत सी वीभत्स कहानियां सामने आयी हैं और आ रही हैं पिछले साल 2020 में जब कोरोना महामारी ने पैर पसारे जिस कारण ताला बन्दी करनी पड़ी तब हमने देखा था भूखे प्यासे रोटी और ज़िन्दगी की आस में सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल चल कर अपने गाँव अपने घर लौटते मजबूर मज़दूरों के पैरों के छाले और उनके साथ चलती महिलाओं के चेहरों की थकान लंगड़ाकर मासूम कदमों से चलते छोटे छोटे बच्चों के उदास चेहरे जो थोड़ी थोड़ी दूर चलकर थक कर बैठ जाते थे। कहीं किसी की मदद से कुछ मिल गया तो खा लेते थे और आगे के सफर पर निकल पड़ते थे उन मासूमों का दर्द किसी भी इंसान के दिल में टीस पैदा कर सकता है।
अब एक बार फिर से कोरोना की दूसरी लहर आयी है जिसको कोरोना की सुनामी कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी । ऐसे में फिर से तालाबंदी करनी पड़ रही है और हालात बाद से बद्दतर होते जा रहे हैं। इस बार मौतों का आंकड़ा चौकाने वाला है । ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार दोस्त अहबाब की ज़िन्दगी इस बीमारी से खत्म हुई है ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व है कि हम इस बार ईद बहुत सादगी के साथ मनाएं और अल्लाह की बारगाह में हाथ उठाकर रहम की दुआ करें तमाम ही दुनिया के साथ हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में भी इस बीमारी से निजात मिल जाए अमनो अमान कायम हो जाए और ज़िन्दगी फिर से खुशहाल पटरी पर लौट आए।
आज ज़रूरत है सभी साहिबे निसाब (आर्थिक स्थिति से मजबूत) लोगों को की वह अपने आस पड़ोस गली मोहल्ले और कालोनियों में ऐसे खुद्दार लोगों की पहचान करें और उनकी ऐसे मदद करें कि उनके सम्मान को ठेस न पहुंचे क्योंकि गरीब मजदूर के साथ निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की तादाद भी बहुत अधिक है जो मुंह से कुछ नहीं कह सकते और भूखे रहने को। मजबूर हो सकते हैं। भले ही उनके घर के दरवाज़ों पर इज़्ज़त का साफ सुथरा पर्दा पड़ा हो मगर अंदर पलंग पर बिछी चादरों में पैबंद हो सकते हैं । मेरा मानना है कि ऐसे लोग भी मदद के हकदार हैं हर ज़रूरतमंद की मदद करना खास कर इस समय इंसानियत का तकाजा है जो हम सबकी जिम्मेदारी है