Er Rashid Husain

Abstract Tragedy

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Er Rashid Husain

Abstract Tragedy

यतीम

यतीम

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मुझे खाने दो....मुझे खाने दो। बड़बड़ाते हुए शरीफ हड़बड़ाकर नींद से जाग उठा । अंधेरी कोठरी में उसने इधर–उधर देखा पास रखी डिबिया शायद घासलेट खत्म हो जाने की वजह से बुझ गई थी। शरीफ चारपाई से उठा और कोठरी से बाहर आ गया। उसकी भूख की शिद्दत अब और भी बढ़ गई थी क्योंकि उसने अभी – अभी ख्वाब में बढ़िया–बढ़िया लजीज खाने जो देखे थे । आधी रात का वक्त था। कुछ देर तक वह सोचता रहा फिर घेरनुमा चौपाल के एक कोने में खुदी कुईया के पास गया और दोलची डालकर पानी निकाला और पीने लगा। भूख कम न होते देख शरीफ ने अपना अंगोछा पानी में भिगोया और पेट पर रख लेट कर सोचने लगा ... कैसे मिटेगी भूख! उसके होठों पर बस एक ही फरियाद थी– ऐ अल्लाह! पेट भर कर लजीज खाना मिल जाए। मैं भी लेना चाहता हूं इसका स्वाद कैसा है? इसके नशे में मदहोश होना चाहता हूं। यही सोचते हुए कब सहर हो गई पता ही नहीं चला।

पूर्वोत्तर का झरिया गांव, जिससे सटकर बहती नदी में आती साल दर साल बाढ़ से फसलें बरबाद हो जाती थी जिस कारण खेती किसानी पर निर्भर इस गांव के लोगों की हालत दयनीय थी और इसी गांव के एक गरीब मजदूर किसान के घर पैदा हुआ था शरीफ। उसके जन्म के समय ही मां चल बसी । किसी तरह पिता ने पाला पोसा और एक दिन वह भी टीबी की बीमारी से जूझता हुआ जिंदगी से हार गया। शरीफ की उम्र उस समय लगभग सात साल की रही होगी। बेसहारा हुए शरीफ को उसका मामा अपने साथ ले गया लेकिन पहले से ही तंगहाली में गुजर–बसर कर रहे उसके परिवार में खर्च के एक और इजाफे से रोज़–रोज़ के झगड़े होने लगे। आखिरकार मामा ने भी अपना पीछा छुड़ाते हुए उसका एक ऐसे स्कूल में दाखिला करा दिया जहां पढ़ाई के साथ–साथ रहने खाने का भी इंतजाम था।

स्कूल में रहकर शरीफ तालीम हासिल करने लगा कुछ महीने ठीक ठाक गुज़र गए लेकिन अफसोस, शरीफ की किस्मत ने यहां भी साथ नहीं दिया। कुछ लोगों की मदद से चल रहे इस स्कूल के हालात भी काफी खस्ताहाल हो रहे थे जैसे तैसे स्कूल के बच्चों के साथ खाना मिल तो जाता लेकिन पेट भर कर अच्छा खाने और तन ढकने के लिए नए कपड़ों के लिए उसे तरसना ही पड़ता ऊपर से पढ़ाई के बोझ ने उसको स्कूल से भागने पर मजबूर कर दिया।

स्कूल में दोबारा वापस जाने के डर से शरीफ दूर और दूर भागता रहा और भटकता हुआ उत्तर प्रदेश के एक आर्थिक रूप से संपन्न गांव में आ गया। यहां पर किसान छिद्दआ ने अपने घेर में रहने की जगह दे दी जहां उसके मवेशी भी बंधते थे। कुछ दिनों तक उसके खाने का ख्याल भी किसान ने ही रखा । शरीफ को लगा जैसे उसको खोया हुआ परिवार फिर से मिल गया हो लेकिन धीरे-धीरे किसान का ध्यान उससे हटता गया। अब शरीफ को दोपहर का खाना तो मिल जाता लेकिन शाम का इंतजाम भारी पड़ता । एक दिन शरीफ गांव में लगे साप्ताहिक बाजार में शाम तक घूमता रहा उसने देखा पैठ उजड़ जाने के बाद कई दुकानदार बिकने से रह गई सब्जियां वहीं छोड़कर चले गए । शरीफ वहां से कुछ गाजरें उठा लाया और खा कर सो गया। सस्ते का जमाना था तब दुकानदार अक्सर बची हुई सब्जियां छोड़ जाते थे। शरीफ को यह तरकीब अच्छी लगी अब उसने आसपास के गांवों में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों का पता किया और जिस दिन जहां बाजार लगता। वह चला जाता वहां से वह गाजर मूली खीरे ककड़ी टमाटर इत्यादि उठा लाता और खा कर सो जाता। एक दिन लगे बाजार में सभी दुकानदारों की सारी सब्जियां बिक गई और छोड़कर जाने को कुछ नहीं बचा। शाम तक इंतजार करने के बाद शरीफ मायूस ही लौट आया और उस दिन वह पानी पीकर सो गया।

सुबह उठने पर शरीफ ने लोगों के छोटे-छोटे घरेलू कामों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। चक्की से किसी के गेहूं पिसवा लाता किसी के लिए जलाने की लकड़ियां ला देता तो कोई उपले(कंडे) मंगवा लेता इसके एवज में उसे एक वक्त का खाना मिल जाता और साथ ही अठन्नी–चवन्नी मिल जाती जिससे वह परेशानी में लगी बीड़ी पीने की लत को पूरा कर लेता।

घरेलू कामों से शरीफ को अब गांव के काफी लोग जानने लगे थे इस पहचान का शरीफ को फायदा भी पहुंचने लगा गांव में किसी की भी शादी ब्याह होता वह बिन बुलाए पहुंच जाता और खूब पेट भर कर खाना खाता धीरे-धीरे शरीफ की उम्र कटने लगी बचपन से गम झेलते झेलते जवान हुए शरीफ की मायूसियां बढ़ रही थी उसकी तन्हाई और अकेलेपन ने उसके दिमाग को कुंद कर दिया था जिसकी वजह से वह ना चाह कर भी बेवकूफी भरी हरकतें करने लगता इसी वजह से उसे अब गांव के लोग शरीफ बावला कहने लगे और वह इस नाम से पूरे गांव में मशहूर हो गया। गांव में जब भी किसी की बारात चढ़ती । लोग उसे चिढ़ाते शरीफ बावले तू भी शादी कर ले दूसरे को दूल्हा बने देख शरीफ के दिल में भी लड्डू फूटते और कुछ देर के लिए आई उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फौरन ही खत्म हो जाती। वह फिर सोचने लगता काश, उसका भी परिवार होता तो उसका भी घर बस जाता मगर अफसोस ऐसा नहीं हुआ । वह सोचता ...मुझ यतीम के सर पर कौन हाथ रखेगा? कौन उसे अपनाएगा? बिना परिवार के कैसे कटेगा उसका बुढ़ापा? वक्त तेजी के साथ गुजरता गया शरीफ की उम्र भी अब पचास पार कर चुकी थी। उसकी दिमागी हालात भी धीरे-धीरे और खराब होती जा रही थी। ज्यादा बीड़ी पीने की वजह से वह ज्यादातर खांसता रहता उसके जिस्म में अब पहले जैसी ताकत भी नहीं रही थी। गांव के लोग उसकी मदद तो करते पर अब उससे दूर ही रहते शरीफ तन्हाई से लड़ रहा था और बेबसी ने उसको जकड़ रखा था। अपना परिवार होने की तमन्ना और खुशहाल जिंदगी जीने की आरज़ू में जूझता हुआ उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचा शरीफ अब काफी थकान महसूस करने लगा था ।एक दिन उसे तेज बुखार चढ़ गया और हांफता कांपता वह वैद्य जी के पास पहुंचा वैद्य जी ने खाने के लिए दवाई दे दी और साथ ही सर पर गीले कपड़े की पट्टी रखने की सलाह भी दी। कम दिमाग शरीफ को जब जिस्म की तपन बर्दाश्त नहीं हुई तो वह घेर में लगे सरकारी नल के नीचे बैठ गया और नहाने लगा और वहीं पर उसका शरीर ठंडा होता चला गया । उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। उस यतीम की हसरतें उसके दिल में ही दफन हो गई। वो अपनी शादी का खाना तो न बनवा सका मगर अपनी भाती (मृत्यु भोज) सबको खिला गया । गांव के कई लोगों ने मिलकर उसको सुपुर्दे खाक कर दिया। उस दिन गांव में सभी को यतीम शरीफ की कमी का बहुत एहसास हुआ था।



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