मेरी नानी
मेरी नानी


बचपन के अलावा जीवन में पहली बार मेरी आँखों से भावनाओं का सैलाब तब उमड़ पड़ा जब एक दिन अचानक से मेरी वृद्ध नानी माँ श्रीमती पूर्णदेवी बजाज का निधन हो गया।
कारण स्पष्ट था कि मैं उनके बेहद करीब था, उनके लाड-प्यार और देखभाल का खूब आशीर्वाद मुझे मिला।
आज मैं उस अप्रसिद्ध लेकिन विशाल व्यक्तित्व को शब्दों में बांधने की कोशिश कर रहा हूँ जिसके अपनेपन की अमिट छाप मेरे हृदय पर आज भी ज्यों की त्यों विद्यमान है।
मैं जब भी कभी एकाग्रचित्त होकर ननिहाल को याद करता हूँ तो गाँव की गलियां और नानी का व्यक्तित्व एक पल में आंखों के आगे जीवंत हो उठता है।
मेरी नानी अपनेपन और प्रेम से लबालब विशाल हृदय की मालिक थी। मैंने जितना उसके प्रेम और सेवा भाव को महसूस किया है, उतना शायद शब्दों से व्यक्त भी नहीं किया जा सकता। उसके छोटे से छोटे कार्य भी प्रेम और आत्मीयता से ओतप्रोत होते थे।
जब कभी ननिहाल जाते तो नानी दूर से ही बाहें फैलाये सीने से लगाने को आतुर स्वागत में खड़ी दिखाई देती। उसकी वो जादू की झप्पी आज भी स्मृतिपटल पर उसी भाव के साथ विद्यमान है। ननिहाल जाने का जितना चाव हमें होता , उससे भी कहीं ज्यादा शायद उसे हमारे आने का होता।प्रेम से परिपूर्ण वो बड़े प्यार से चूल्हे पर रोटियाँ सेक कर, रोटी में अपनी उंगलियों से खड्डे करके उसमें खूब सारा देशी घी डाल कर हमें खिलाती।खाने पीने की हमारी हर इच्छा पूर्ण करती। वो चाहे गर्मियों में आमरस, कुल्फी हो या सर्दियों में गूंद के लड्डू, सरसों का साग और मक्की की रोटी हो। बिना शिकन के अपने प्रेम और अपनेपन को हम पर उड़ेलती।
ननिहाल के पड़ोस में एक पब्लिक स्कूल था जहाँ मैंने एक वर्ष तक अध्ययन किया। हालांकि मैं अपने घर से खा-पी कर रिक्शा से स्कूल आता जाता था पर मेरी नानी रोज टिफिन लेकर मुझसे मिलने चली आती।उनके उस टिफ़िन में मेरे लिए अथाह प्रेम से रखे देसी घी से सिंचित 2 परांठों का स्वाद आज भी जीभ पर वैसे ही है। परांठों से भी ज्यादा उनका स्नेह और लगाव मेरे लिए अविस्मरणीय है जो मैं आज तक नहीं भूला।
उनकी ये आत्मीयता, उनका ये प्रेम सबके लिए समान था। कोई राहगीर उनके दरवाजे से भूखा नहीं लौटता। कोई जरूरतमंद कभी खाली हाथ नहीं लौटा। हर वर्ष 20 किलो कैरी का अचार वो लोगों को बाँटने कर लिए ही डालती थी।हमारे लिए प्रेम से ओतप्रोत देशी घी, गूंद के लड्डू,शुद्ध दलहन व अनाज बिन कहे ही घर पहुंच जाते। उनकी पोटली में हर किसी के लिए कुछ ना कुछ जरूर होता। उनका प्रेम केवल मनुज प्रेम तक ही सीमित नहीं था। उनके आँगन के पालतू जानवर - बिल्ली, मिठ्ठू तोता और जिम्मी उनके जीवमात्र से प्रेम के ताउम्र साक्षी रहे। मिठ्ठू तोता उनकी आवाज के पीछे राम राम बोलता।जिम्मी एक आवाज में दौड़कर आ जाता। यूँ लगता कि नानी इनकी मूक भाषा जानती हो और ये पालतू भी नानी की भाषा जानते हो।
जीवमात्र प्रेम के अलावा उनमें प्रकृति प्रेम भी अथाह भरा था। उन्होंने घर में एक छोटी सी बगिया भी बना रखी थी।जिसमें अलग अलग फूलों के पौधों के अलावा कुछ औषधीय पादप भी लगे थे। हमारी गर्मी की दोपहर भी अकसर उस छोटे नीम के नीचे बिता करती थी जो उन्होंने अपने घर के आँगन में लगा रखा था।
खाली समय में भी नानी, मेरी माँ की तरह कभी खाली नहीं बैठती। कभी हाथ से सूत कातते, तो कभी गेंहू के पौधे की नाड़ से टोकरी बनाते। कभी गोबर से आँगन लीपना तो कभी घर की सार संभाल के कार्य करना। दुबले पतले से शरीर के हरपल कुछ ना कुछ करते रहते।
सोचता हूँ एक व्यक्ति में इतने गुण एक साथ और भाव केवल एक परसेवा, परमार्थ सेवा।
कभी कभी लगता है कि जरूरी नहीं हम विवेकानंद को पढ़े या अबुल कलाम को। नानी के जैसे हमारे आस पास ही अनेक ऐसे व्यक्तित्व होते है जो जीवन के लिए आवश्यक मार्गदर्शन और प्रेरणा देने वाले होते है। बस जरूरत है तो केवल इतनी कि हम समय पर उनको पहचाने और उनकी कद्र करें।
लव यू नानी।