Shubhra Varshney

Abstract

5.0  

Shubhra Varshney

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मेरे स्कूल जीवन की अनुपम यादें

मेरे स्कूल जीवन की अनुपम यादें

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चाहें हम किसी भी अवस्था में क्यों न पहुंच जाएं, अपने बचपन में स्कूल की यादें दिल के किसी कोने में उस रियल किराएदार की तरह है जिसे उम्र रूपी मकान मालिक घर खाली करने को तो कह और वह यादें पर कब्जा ही कर लें

अब याद करूं तो मेरी धुंधली स्मृतियां मुझे ले जाती है उस समय खंड में जब मैं डरी सहमी मां की उंगली पकड़कर स्कूल गई थी। कैसे मिस खान ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे क्लास में बैठाया था।

कभी मेरा मन घूमता है उस समय में जब छुट्टी हो जाने पर रिक्शेवाले भैया को दिल पुकारता कि वे और देर करें और हम झूले की पीने लेते रहे।

कैसे भूल सकती हूं वह क्लास में मैडम आप भी ना पाए और एकमेव स्वर में सबका गुड मॉर्निंग बोलना। चाहे उन्हें हमारा अति व्याकुल अति शीघ्र बोलना गुड लगे या ना लगे।

फिर चाहे वह मॉनिटर बनने का सपना हो जो उस समय का जीवन का उच्चतम लक्ष्य बन गया था। या फिर मैडम का पेन मांगने पर मेरा भाग कर उन्हें पहुंचाना और वहां पहले से ही पहुचीं मेरी सहेली की मुस्कान देखकर मेरा बेहद दुखी होना।

कैसे भूलूं मैं अपना शोर जब कक्षा में टीचर के ना आने पर मैंने सहेलियों के साथ शोर मचाना और फिर प्रधानाचार्य से सजा के तौर पर मैदान में हाथ ऊपर करके खड़ा होना।

उनकी पैनी निगाह मुझ पर पड़ने पर दिल की धड़कन खरगोश की भांति जो भागी वह मुझे आज भी स्मरण है।

फिर कैसे भूलूँ अपने पेन की फास्ट स्पीड जो स्कूल पहुंचने पर भूले होमवर्क को करने की होती थी उस समय तो वह मिल्खा सिंह को भी मात दे दी थी।

वह संगीत की कक्षा इतनी छोटी और सामाजिक विज्ञान की सुरसा के मुंह जैसी बड़ी क्यों होती थी मुझे यह आज तक पहेली लगी।

समाजिक विज्ञान की कक्षा में झपकी आने पर और टीचर की मुझसे पूछे प्रश्न का उत्तर मेरे मित्र के द्वारा चुपके से मुझे बताने क पर मुझे वह अपने जीवन का सबसे बड़ा रेस्क्यू ऑपरेशन लगा।

कैसे भूलूं मैं अपनी वाक कला कौशल को जब छठी क्लास में गणतंत्र दिवस पर अपने पिताजी के तैयार करे भाषण पर देर तक बजती तालियां और अगले दिन जब मुझे पुरस्कृत करने के लिए अपने ऑफिस में बुलाकर पेन देना प्रधानाचार्य का मुझे आज तक का सबसे बड़ा अवार्ड लगता है। उनके ऑफिस से निकलते हुए मेरी चाल ऐसी थी कि जैसे मानो मैंने परमवीर चक्र प्राप्त कर लिया था।

कैसे भूलूं मैं 2 अक्टूबर जब कई दिन अनुपस्थित रहने के बाद 1 दिन पहले मिली सूचना के अनुसार मुझे भाषण तैयार करना पड़ा और पूरी शाम रटने के बावजूद भी ऐन मौके में मेरा भाषण आधा छूट गया । मेरे पैर मानो जड़ हो गए गला अवरुद्ध हो गया था शब्द याद नहीं आ रहे थे। कुछ मिनट निशब्द मैं माइक लिए खड़ी रही। तभी अचानक मेरी प्रधानाचार्य की करतल ध्वनि को पूरे विद्यालय का साथ मिल गया और मेरे निस्तेज शरीर में प्राण वापस लौटे आए।

कैसे भूलूं अपनी उन कर्तव्य परायण शिक्षकों को जो पीरियड समाप्ति के बाद भी देर तक पढ़ाते थे जब तक दूसरे शिक्षक कक्षा में आ ना जाएं। और जो हम सब बेचैनी के कारण खुसर पुसर करते तो वह शिक्षक अपनी आग्नेय नेत्रों से पूरी कक्षा पर जो सर्चलाइट डालते तो सब बच्चे ऐसे शांत बैठ जाते जैसे शिकारी को देखकर शावक चुप हो जाता है।

कैसे भूलूँ वह नीरस विषय पर अन मनाते बच्चों पर शिक्षक का सटीक चौक का निशाना मानो यहां शिक्षा देने से पहले वह गुरु द्रोणाचार्य के शिष्य थे।

परीक्षा के दौरान पूरी कक्षा किसी वीडियो गेम की तरह चलती कि मिले प्रश्न एक टास्क थे जो निर्धारित समय में पूरे करने थे।

परीक्षा शुरू होने से पहले कुछ मित्र अपनी पसंद के परीक्षक के लिए राम नाम जपते और पढ़ने वाली कॉपी मिलते ही जो उसमें सिर घुसा तो वह सर 3 घंटे बाद ही उठता।

अनगिनत यादें हैं किस्से हैं ।समय के साथ गुरु से नाता कम और विषय से ज्यादा होता गया।

जो 8 घंटे का समय स्कूल में बीतता था फिर चंद घंटे पर आते-आते स्व अध्ययन में बदलता गया।

फिर जीवन की आपाधापी में कर्तव्य पथ पर चलते हुए जीवन की घुड़दौड़ में वह सम्मानित शिक्षक जो हमें आगे बढ़ते देखकर गर्व करते थे पीछे छूटते गए पर साथ आए उनके ऊर्जावान उपदेश।

उत्साह से भरी सीख प्रेम से भरी डांट अपने लिए हमेशा तैयार उनका समय और उनका जीवन हमारे लिए सदैव तैयार था।

आज मैं जिस सफलता रूपी भवन पर हूं वह उन गुरु की बनी हुई नींव पर टिकी है। उन्होंने हमारे छोटे दिमाग को आकार देकर हमारा पथ प्रदर्शन किया।

मैं अपने जीवन में यह समय कभी नहीं भूल सकती।


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