मेरा प्यार भी तू है, ये बहार भी तू है
मेरा प्यार भी तू है, ये बहार भी तू है
आनंद बहुत ही सीधा साधा इंसान था। गरीबी मे बचपन बिता। जैसे तैसे पढाई पूरी की। पिताजी ने साथ छोड़ दिया। बस , माँ थी और उसके बड़े घर से दहेज लाने वाली बहू के अरमान.....
पर, आनंद के सपने अलग थे। वो अपने हमसफर के रूप मे अपनी जैसी ही साधारण और पढ़ी लिखी लड़की को सोचता। आखिर उसे गाँव की खुशी पसंद आ गई। खुशी के पिताजी शिक्षक थे। उन्होंने अपनी हैसियत के हिसाब से दान- दहेज देकर बेटी को बिदा किया । पर आनंद की माँ अपनी बहू से हमेशा नाख़ुश रहती थी। दिन भर जली कटी सुनाते रहती। आनंद बेचारा असहाय था। विवाह के दस वर्षों के बाद दोनों का जीवन तो सुखमय था। पर उनको कोई संतान नही थी। आनंद की माँ ने पोते के हाथ से मोक्ष मिलने की आस अधूरी लेकर ही संसार से बिदा ले लिया।
लोग कुछ भी कहते रहे पर आनंद और खुशी की सुखद जीवन पर कोई प्रभाव नही पड़ता था। बस, खुशी की शादी के बाद से ही ताजमहल देखने की बड़ी इच्छा थी। पर दोनों जिम्मेदारी की वजह से जा ही नही पाए।
दोनों के शादी की पचासवीं सालगिरह थी। आनंद आज खुशी को एक अनोखा उपहार देने वाला था । पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। अभी आनंद अपना उपहार देने ही वाला था कि अश्रु पूरित नेत्रों से खुशी ने एक फाइल हाथ मे थमा दिया। यह कहते हुए कि "अब आगे का सफर आपको अकेले ही तय करना होगा। मुझे क्षमा करना, मैं आगे जीवन के फेरे मे साथ नही दे पाऊँगी। इस जनम का साथ बस अब कुछ दिनों का है...। " आनंद किंकर्तियविमुढ सा खड़ा था। ये जीवन का कैसा क्रुर मज़ाक?
बेचारे आनंद के हाथों मे आगरा जाने की दो टिकटें उसकी विवशता समझ रही थी। आनंद ने बहुत सेवा- सुश्रुषा की। खुशी के लिए दुआ मांगी। आखिर एक दिन खुशी ने आनंद की बाहों मे अपनी अंतिम साँस ली। आनंद ने उसे ताजमहल ना दिखा पाने के लिए क्षमा मांगी। खुशी ने अपनी अंतिम इच्छा मे अस्थि कलश का विसर्जन ताजमहल के पास बहती नदी मे करने को कहा।
अतः आनंद अपनी जीवन संगिनी की अस्थि विसर्जन ताजमहल की नदी मे करने के बाद सरोवर के पास बैठा। उसे लगा आसमाँ से खुशी उसे पुकार रही है। वो भी उसकी ओर चला जा रहा है...... अनंत स्वर्ग की यात्रा पर.....
हाँ, आनंद अपनी खुशी के पास जा चुका था।