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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy Inspirational

3  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy Inspirational

मैं व्यथित हूँ (3)….

मैं व्यथित हूँ (3)….

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नफीसा का, मुझे बुलाने का रहस्य क्या है, सोचते हुए कुछ पल बीते थे। तब कमरे से निकलते हुए नफीसा की अम्मी एवं आपा दिखाई पड़ी थीं। नफीसा की अम्मी मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गईं थीं, उनके मुख पर पीड़ा की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं। अप्पी (नफीसा की दीदी) बैठी नहीं खड़ी ही रही थी। पीछे नफीसा भी आ खड़ी हुई थी। 

उन (अम्मी) का वेदना की अधिकता से हुआ करुण स्वर, मुझे सुनाई पड़ा था। वे अटक अटक कर बोल रहीं थीं - 

पूरी रात सो नहीं पाईं हूँ। कई बार उल्टियाँ हुईं हैं। पेट में बहुत अधिक दर्द हो रहा है। नफीसा के अब्बू, बाहेर गए हुए हैं। समझ नहीं आ रहा है, क्या करूं। 

मैं सोच रहा था कि नफीसा को मुझे बुला लाने के लिए उसे, शायद किसी ने नहीं कहा था। यह नफीसा की अपनी ही समझ थी कि उसने मुझे बुलाया था। बोलने सुनने में असमर्थ वह, शायद बॉडी लैंगएज समझती थी। अम्मी के तकलीफ के इस समय में शायद उसे, मैं उसकी अम्मी के कष्ट के समय में मददगार हो सकने वाला हितैषी लगा था। 

अम्मी चुप हुईं तो अप्पी ने कहना आरंभ किया - 

अपने कॉन्टेक्ट्स से मैं सुबह 4 बजे से ही बात कर रही हूँ। आज संडे है, कोई भी डॉक्टर नहीं मिल पा रहा है। 

मैंने पूछा - क्या यह तकलीफ पहले भी हुई है? घर में किसी को हुई तकलीफ का इलाज किस डॉक्टर से लिया जाता है?

अप्पी ने बताया - इतनी तकलीफ कभी पहले नहीं हुई है। हम, जिस डॉक्टर के यहाँ जाते हैं, उनसे मोबाइल पर बात नहीं हो पा रही है? 

समस्या गैस्ट्रोएन्टरालजी की थी। पूर्व में पचपेढ़ी में रहने से, डॉ कर्नल आनंद से हम सामान्य उपचार लिया करते थे। मुझे पता था कि वे गैस्ट्रोएन्टरालजिस्ट हैं। मेरा उनसे परिचय डॉ.- पेशेंट वाला ही था। मुझे आत्मविश्वास नहीं था कि आज रविवार के दिन मैं, इन्हें, उनसे कोई फेवर दिला पाऊंगा, मगर रोगी की मनःस्थिति समझ कर उन्हें आश्वस्त कराना मैंने उचित समझा था। मैंने कहा -  

डॉ कर्नल आनंद, ऐसी समस्याओं के विशेषज्ञ हैं। मेरा मोबाइल घर पर है, मैं घर जाकर उनसे बात करता हूँ। 

अप्पी ने कहा - डॉ आनंद का नाम, हमने भी सुन रखा है। उनके क्लिनिक कभी गए नहीं हैं। 

मैं घर आने के लिए उठ गया था। मैंने भरोसा तो उन्हें दिला दिया था मगर स्वयं ही अनिश्चय की स्थिति में था। घर आकर प्रिस्क्रिप्शन ढूँढते हुए, सब बातें रचना को बताईं थी। 

उन्होंने कहा - नासमझ नफीसा के बुला ले जाने पर आपका वहां जाना, उन्हें पसंद भी आया होगा? ये लोग अपने आप में रहते हैं, विशेषकर उनकी बेटियां, औरतें!

मैंने कहा - अभी यह नहीं सोचना है, उन्हें इलाज दिलवा पाएं अभी यह ही उचित होगा। 

मैंने पर्चे से डॉ. आनंद के नंबर देखे थे। रविवार क्लिनिक तो खुलता नहीं है, विचार करते हुए उनके निवास के लैंडलाइन फोन पर, मैंने अल्पविश्वास से कॉल किया था। तब फोन अटेंड किया गया था इससे मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। खुद डॉ. आनंद फोन पर थे। मैंने उन्हें पूरी बात बताई थी। उन्होंने कहा - 

आज क्लिनिक तो बंद रहना है। मैं, जबलपुर हॉस्पिटल में एक घंटे के राउंड पर जाता हूँ। आप पेशेंट को लेकर 8 बजे वहाँ आ जाएं। मैं वहां जाँच कर लूँगा। 

मुझे लॉटरी लगने वाली ख़ुशी अनुभव हुई थी। मुझे लग रहा था, मैं नफीसा की अपेक्षा पर खरा उतर पा रहा था। 

मैं वापस उनके घर गया था। मैंने, अप्पी को बताया - अभी 8 बजे, अम्मी को लेकर जबलपुर हॉस्पिटल पहुँचना है। 

फिर मुझे रचना की बात का विचार आया था, अब्बू की अनुपस्थिति में, अब आगे यह मेरी मदद लेना मुनासिब भी समझेंगे या नहीं? मैंने पूछा - 

आप हॉस्पिटल स्वयं चले जाएंगे या मैं साथ लिए चलूँ? 

अप्पी ने उत्तर दिया - 

अंकल, आपको समय हो तो हम आपके साथ ही चलते हैं। 

अभी आधा घंटा समय था, मैंने कहा - 

अम्मी को कुछ हल्का खिला दो ताकि उन्हें चलने की शक्ति मिल जाए। तब आप उनके साथ तैयार मिलना, मैं आधे घंटे में आता हूँ। 

मैं घर वापस आते हुए सोच रहा था, शायद मैं, अपनी ऐसी जरूरत पर डॉ. से फेवर लेने की हिम्मत नहीं कर पाता। यह मुझ पर परहित की भावना हावी थी जिससे संकोची मैं, यह काम आत्मविश्वास जुटाकर संभव कर पाया था। 

फिर आठ बजे पिछली सीट पर उन्हें बैठाकर, कार चलाते हुए मैं अस्पताल पहुँच गया था। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद डॉ. आनंद ने उनकी जाँच की थी। जाँच किए जाते समय मैं, उनके साथ किसी परिजन की भांति, जाँच कक्ष में नहीं गया था। मुस्लिम महिलाओं के कुछ अधिक ही संकोची होने की जानकारी मुझे थी। 

डॉ. ने दवाएं और परीक्षण लिखे थे। कहा था दवाएं अभी से शुरू करनी है। जाँच रिपोर्ट, कल 10 बजे मेरे क्लिनिक में आकर दिखा दीजिए। 

तब मैंने, उन्हें दवाई दिलवाई और पैथोलॉजी में उन्हें ले जा कर, उनसे जाँच के लिए सैंपल देने कहा था। मैं खुद अपनी कार में आकर उनकी प्रतीक्षा करने लगा था। बाहर गर्मी बहुत थी। मैंने कार का एसी चालू किया था कि उनके आते तक कुछ ठंडक हो जाए। 

कुछ समय में अप्पी का सहारा लेते हुए, उनकी अम्मी बाहर आईं थीं। मैंने रास्ते में उनसे कहा डॉ. आनंद बहुत अच्छे डॉ. हैं। आपको इन दवाओं से निश्चित ही आराम मिल जाएगा। उनके घर के दरवाजे पर मैंने कार रोकी थी। अम्मी, शुक्रिया कहते हुए उतरीं फिर गेट खोलकर भीतर चलीं गईं थीं। मेडिसिन और फीस के लिए जो भुगतान मैंने किया था, अप्पी ने कार में बैठे रहकर मुझसे उसका विवरण पूछा था। परोपकार के विचार से चिकित्सा पर किया गया खर्च मैं, उनसे लेना नहीं चाहता था। फिर भी अप्पी के आदेशात्मक स्वर को अनुभव कर, न बताने का विकल्प नहीं है, मैंने समझा था। 

जब वह अपने पर्स में से रूपये गिनने लगी तब मैंने कहा - 

इसकी जल्दी क्या है मैं, आपके पापा के आने पर उनसे ले लूंगा। 

अप्पी ने मंजूर नहीं किया था। मेरे बताए गए रुपए उसने मुझे दिए थे। मैंने कहा - कल, आप जाँच रिपोर्ट दिखाने खुद चली जाएंगी या मैं आऊं?

अप्पी ने कहा - जी, अंकल मैं खुद जाकर डॉ. को दिखा दूंगी। आपका कल ऑफिस रहेगा। 

मैं मुस्कुराया था। कार से उतरकर, अप्पी ने हाथ हिलाकर बाय किया था। अपने घर के सामने कार पार्क करते हुए मैं सोच रहा था, इमरजेंसी तो निबट ली गई है। अब उनसे, इससे अधिक करीब का मेरा भाव (Gesture) उचित नहीं है। 

इस घटना से ही मुझे लग रहा था कि शमीम भाई के लिए, अंतिम साबित हुई 25 अगस्त 2021 की रात, उन्हें मेरी याद आई होगी। 

एहसान, कौन किसी का रखना चाहता है। नफीसा की अम्मी ठीक हो गईं थीं। तीन दिन बाद शमीम भाई लौट आए थे। अम्मी, साढ़े छह वर्षों में पहली बार हमारे घर आईं थीं। उन्होंने रचना को लीची देते हुए कहा, नफीसा के पापा, बिहार से आए हैं और लीची लाए हैं। रचना ने उनकी लाई लीची में से थोड़ी ले ली थीं। 

वहाँ रहने के बाद के दिनों में, यह हमारे पारिवारिक संबंधों की शुरुआत बनी थी। 

मैं फेसबुक पर मुस्लिम-गैर मुस्लिम की पोस्ट, कमेंट्स आदि में परस्पर नफरत एवं कोसने वाले अप्रिय अपशब्द एवं गालियों के आदान प्रदान देखा करता था। कट्टरपंथियों की हमें काफिर मानने और इस्लामिक राष्ट्रों, विशेषकर पाकिस्तान का हमें, दुश्मन देखने के तथ्य से भी मैं परिचित था। मुस्लिम-गैर मुस्लिम में जब तब होती हिंसा भी मुझे व्यथित करती थी। लव जिहाद में, एकतरफा गैर मुस्लिम लड़कियों का लक्ष्य करना भी मुझे, उनकी और अपनी लड़कियों पर अन्याय लगता था। 

तब भी, जिसे हमारे लोग मूर्खता कहेंगे, मैंने वह काम करना आरंभ किया था। मैं, शमीम भाई के परिवार से नजदीकी बढ़ाने के कार्य करने लगा था। 

यह सिलसिला मेरा सोचा समझा एक प्रयोग था। मैं सोचता था कि इस परिवार के साथ, मैं इतनी आत्मीयता से पेश आऊँ कि भविष्य में जब कभी, इस परिवार का कोई सदस्य मुस्लिम-गैर मुस्लिम के बीच हिंसा में उद्वेलित हो और इनकी तलवार किसी गैर मुस्लिम (तथाकथित काफिर) पर वार करने लगे, तब इन्हें मेरा विचार आ जाए। तब मेरे व्यवहार की याद कर, गैर मुस्लिम लोग काफिर नहीं होते हैं विचार करके ये अपनी तलवार नीचे कर लें। खुद हिंसक होने से ये स्वयं को रोक लें। 

मेरा मानना है कि हिंसा की प्रतिक्रिया, हिंसा ही होती है। इस प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया भी हिंसा ही होती है। और ऐसी प्रतिक्रियाओं के सिलसिले का कोई अंत नहीं होता है। 

मेरा यह भी मानना है कि जब क्रिया, प्रतिक्रिया, और उसकी प्रतिक्रियाओं का सिलसिला थमने वाला नहीं होता है, तब क्रिया अहिंसा होनी चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया भी अहिंसा की हो सकती है। अहिंसा प्रतिक्रिया, इस वास्तविकता के कारण आवश्यक होती है कि जगत में जन्मा हर जीव, जीवन चाहता है, अकाल मौत नहीं! ….           



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