मैं तलंक हूँ
मैं तलंक हूँ


लाल जोड़े में जब कार से नीचे उतरी तो सबकी नजरें मुझपर ही थी। बड़ी बुआ ने जब घूंघट उठाया तो सब वाह वाह कर उठे। तभी मेरी नज़र ऊपर खिड़की पर पड़ी। कोई लड़की झांक कर मुझे देख रही थी। जब इनसे पूछा तो बोले कि वो मुन्नी है, इनकी छोटी बहन। "बड़ी अजीब बात है भाई की शादी में ही शामिल नहीं हुई ये कैसी बहन है। "मन ही मन मैंने सोचा। सारी रस्में हुई पर मुन्नी मुझे न दिखी।
दूसरे दिन रसोई की रस्म थी सो मैंने खीर बनाई थी। सबने खाई और मेरी तारीफों के पुल बंध गए। "माँ, मुन्नी को भी बुला लेते न, वो भी तो मिले अपनी भाभी से।" मैंने सासू माँ से पूछा। न जाने क्यों पर मुन्नी का नाम सुन जैसे वो सकते में आ गयी।" नहीं कोई ज़रूरत नहीं है, मुन्नी बहुत संकोची है किसी से नहीं मिलती। अपने कमरे में ही खुश रहती है।" कह सासूमाँ चली गयी। पर मेरे दिमाग में तो बात घर कर गयी थी कि कुछ गड़बड़ जरूर है।
एक दिन बाई से पूछा मुन्नी के बारे में,"का बताए बहुरिया सोना है मौडी पर किस्मत ने ऐसी तलवार चलाई बेचारी के ऊपर कि कैद मिल गयी अपने ही घर में। कछु नाइ केत है बस अपने कमरा में डरी रात है।" अब तो मेरी उत्सुकता अपने चरम सीमा पर थी। उस रात पूरा परिवार चाची के घर शादी में जाने को तैयार हुआ। मैं यह सुनहरा मौका नहीं छोड़ना चाहती थी सो मैंने पेट दर्द का बहाना बना दिया। सबके जाते ही मैं तुरंत ऊपर वाले कमरे में पहुँची। दरवाज़ा खटखटाया तो सहमी सी मुन्नी बाहर आई और चौंक गयी।
"तुम तो नई भाभी से मिलने नहीं आयी सो मैं ही आ गयी।" मैंने प्यार से कहा। पर मुन्नी कुछ न बोली बस मूर्ति की तरह नज़रें झुकाए खड़ी हो गई। "क्या बात है भाभी को देख खुश नहीं हुई?" मेरे पूछने पर बस हाँ में सिर हिला दिया। "मुन्नी तुम नीचे क्यों नहीं आती? यहाँ क्या करती रहती हो?" मेरे सवाल खत्म ही नहीं हो रहे थे और उसने घबराकर दरवाज़ा बंद कर दिया। मनोचिकित्सक हूँ न तो मुन्नी का यह व्यवहार मुझे उलझा रहा था। अगले दिन क्लिनिक से आई तो सासू माँ को मेरी मुन्नी से मुलाकात का पता चल चुका था।
"तुमको मैंने समझाया था कि मुन्नी संकोची है किसी से मिलना पसंद नहीं करती, फिर तुमको नहीं जाना चाहिए था। आगे से याद रहे। सासू माँ क्लास ले चली गई। मेरी आँखों में आंसू देख बाई बोली,"तुम नाहक की हैरान हुई बहुरिया, मुन्नी कछु न बोले। दस साल की थी तबाई से कमरा में बंद कर दाओ तो, बेचारी तोतली है न।" 'तोतली, बस तोतली है तो क्या उसे कैदियों की तरह जीने देंगे।" मैं हैरान थी कि अपनी ही बेटी के साथ कोई ऐसे कैसे कर सकता है।" बस फिर क्या विरोध के स्वर जाग चुके थे मेरे भीतर।
अब जब भी कुछ बनाती मुन्नी को ऊपर देने जरूर जाती। कुछ दिन तो मुन्नी भी सकुचाई फिर धीरे धीरे खुलने लगी। एक दिन बारिश हुई तो मैं उसे छत पर ले गयी। उसके भाव देखते ही बन रहे थे मानो बरसों बाद एक पंछी ने साँस ली हो। बारिश में हम दोनों खूब भीगे। जब मैं जाने लगी तो बोली, "भाभी, आपको तान्हा ने भेजा है न? मेरी पुकार थुन ली उन्होंने।" उसकी बात सुन मेरी आँखें भर आयी। कितनी मासूमियत थी उसकी बातों में, मुझे उसकी हालत पर तरस भी आता कैसे उसने ये बंधन स्वीकार लिया। मैं उसे यूट्यूब पर वीडियो भी दिखाती। मैंने चुपचाप उसे भी मोबाइल दिया और वह तो एक ही दिन में सारे सिस्टम समझ गई।
मेरा पहला जन्मदिन था, सारा दिन बस फ़ोन पर ही गुज़र गया। रात को सभी लोग बाहर चले कि तभी फ़ोन बीप हुआ। मैंने भी अनदेखा कर दिया। घर आ कर देखा तो मुन्नी के message थे, वह मेरा इंतज़ार कर रही थी। मन आत्मग्लानि से भर गया और मैं दौड़ के ऊपर गयी। बेचारी मेरे लिए ही जागी हुई थी। "भाभी मुधे पता था आप दलूल आओगे। देखो मैंने त्या बनाया आपते लिए।" गले लगाते हुए एक पैकेट थमाया मुझे। पैकेट खोला तो एक बेहतरीन कुर्ती थी।" वाह मुन्नी कितनी खूबसूरत है कहाँ से मँगवाई?"
"त्या भाभी मेले पाथ पैथे तहाँ थे आये? मैंने थुद बनाया है यूतयूब से देखकल।" वह खुश हो रही थी। सच उसके हाथों में हुनर था वरना सुई धागे से कौन बना पाता है इतनी सुंदर कुर्ती। फिर मैंने उसे सिलाई मशीन ला दी। एक दिन बहुत ज़िद की बाजार चलने की पर वह राज़ी न हुई। मैं ही उसे सारा सामान ला कर देती। मां का जब ब्लाउज बनाया तो वे भी स्तब्ध रह गयी। कुछ न बोली बस मेरे सिर पर हाथ फेर दिया।
जो वीडियो में देखती उसे हूबहू वैसा ही बना देती। एक दिन उसके डिज़ाइन किये हुए कपड़ों की फ़ोटो मैंने एक फैशन इंस्टीटूट को मेल कर दी। कुछ दिन बाद जवाब आया कि वे इन डिज़ाइन से प्रभावित हुए है और बनाने वाले को मुफ्त कोर्स कराएंगे।
मैंने मां बाबूजी को दिखाया तो वे दोनों तो ऐसे हो गए मानो कुछ असंभव सा हो गया है। मुन्नी को नीचे बुलाया गया। कांपती हुई वो लड़की नीचे आयी। इतनी डरी सहमी की खड़ा भी न हुआ जा रहा था। मैं उसके पास गई, "मुन्नी अब दिल्ली जाना है तुमको, सिलाई का एक बड़ा कोर्स करने, देखो मेल आया है।" मोबाइल दिखाते हुए में बोली।
"मैं तहि नहीं दाऊंगी भाभी। मैं तूथ नहीं तर थकती अपने दीवन में। मैं तलंक हूं इथ पलिवाल पे।" मैं सन्न रह गयी उसकी बात सुन कर। माँ बाबूजी नज़रें झुकाए हुए थे। इन्होंने भी कुछ न कहा।
मैंने मुन्नी को बहुत समझाया पर वह न मानी। इस सुनहरे मौके को वो समझ नहीं पा रही थी। एक नई सुबह उसे इंतज़ार में थी पर उसे जैसे रात के अंधेरे की आदत हो चुकी थी। सुबह की चकाचौंध से डरती थी वो। परिवार वालों ने भी उसे प्रेरित नहीं किया। वह अपनी सिलाई मशीन के साथ ही अपने ऊपर वाले कमरे में खुश थी। आज शादी के दस साल भी मुन्नी ऊपर वाले कमरे में ही रहती है। बस नीचे आती जाती है। मेरे दोनों बच्चों की माँ है वो। सारा दिन उनका ख्याल रखती, उनके साथ खेलती।
कितनी अजीब बात है आज जब हम सभी महिला सशक्तिकरण की बातें करते है वही आज भी हमारे समाज में ऐसी महिलायें भी है जिनके दिलो दिमाग में यह बात भर दी जाती है कि वे किसी काम की नहीं और घर की चार दीवारी ही उनका संसार है। कितनी आसानी से वे अपना पूरा जीवन हँसी खुशी बिता देती है। उनपर अत्याचार होता है तो नसीब मान कर सह लेती है ।जरूरत सिर्फ बातों की नहीं, समाज को बदलने की नहीं सबसे पहले औरतों की सोच बदलने की है। जिन्होंने अपनी औरत ज़ात को ही कमज़ोर मान लिया हो वे सशक्तिकरण के मायने क्या समझेंगी।