Nisha Singh

Inspirational

4.0  

Nisha Singh

Inspirational

मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ- 2

मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ- 2

5 mins
193


जैसे तैसे बच कर आया हूँ। जाने कहाँ जाने की ज़िद पकड़ के आये थे, थोड़ी देर के लिये टाल दिया है। पहले आपसे बातें कर लूँ तब जाऊँगा इन दोनों के पास।

अरे, आपको तो मिलवा ही नहीं पाया दोनों से। ये जो मेरे बाईं ओर खड़ा था ना, गबरू जवान वो सुखदेव था और दाईं ओर छोटे कद वाला राजगुरू।

अरे अरे उसके कद पे मत जाइये। दिखने में भले ही छोटा है पर है गुरुघंटाल। बातों में तो आप इससे जीत ही नहीं सकते। सुखदेव तो दिल से सोचता है, जज़्बाती है थोड़ा,पर ये गुरूघंटाल बीरबल का भी बाप है।

चलिये इनके बारे में आपको फ़िर कभी बताऊँगा।

तो मैं क्या कह रहा था...

हाँ, तो मेरे दादाजी के तीनों बेटे मेरे बापू और दोनों चाचा, तीनों के दिल में गज़ब की देशभक्ति थी। आज जब सोचता हूँ तो समझ आता है कि मेरे अंदर ये जज़्बा, मेरी ये सोच सब कुछ इन्हीं से तो मिला है मुझे।

उन दिनों जब लोग रूढ़िवादी सोच की ज़ंजीरों मे जकड़े हुए जीते थे तब भी मेरे दादाजी की सोच प्रगतिवादी विचारों से प्रेरित थी। दादाजी कहा करते थे “संसार में मनुष्य की पहचान उसकी धर्मिक, सामाजिक या आर्थिक स्थिति से नहीं, अपितु उसके सत्कर्मों और गुणों से होनी चाहिये। मानवता ही आपसी प्रेम, स्नेह और सौहाद्रपूर्ण व्यव्हार को उत्पन्न करती है। इसलिये मनुष्य को केवल इसी का अनुसरण करना चाहिये।”

देखा आपने उस वक़्त भी दादाजी के विचारों मे कितनी आधुनिकता थी।

मेरे बापू सरदार किशन सिंह अपने तीनों भाइयों में सबसे बड़े थे। और शायद सबसे ज्यादा संजीदा भी। देश सेवा राष्ट्रसेवा ही उनकी ज़िंदगी का लक्ष्य था। शायद इसी संजीदगी के चलते उन्होंने राजनीति की तरफ रुख़ कभी नहीं किया। नेता बनने के बजाय उन्हें सेवक बनना ज्यादा बेहतर लगा। यही वजह रही कि अपने सेवा भाव से उन्होंने लोगों के बीच गहरी पैठ बना ली।

आप लोगों ने शायद सुना हो, सन 1898 में विदर्भ में अकाल पड़ गया था। काफ़ी मदद माँगने के बावजूद भी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसे में बापू ने उनकी हर सम्भव मदद की। यही नहीं,वहाँ से लौटते वक़्त अपने साथ वहाँ के 50 अनाथ बच्चों को ले आये और फ़िरोज़पुर में उनके लिये अनाथालय भी बनवा दिया।

आपने पंजाब में चले किसान आंदोलन के बारे में सुना है? पूरे देश में ये आंदोलन ‘पगड़ी सम्भाल जट्टा’ के नाम से जाना जाता था। ये वो वक़्त था जब अंग्रेज़ी हुकूमत क्रांतिकारियों और देश में चलने वाले आंदोलनों पर बड़ी ही पैनी नज़र रखे हुए थी। ऐसे माहौल में लोगों तक अपनी बात पहुँचा पाना थोड़ा मुश्किल हो गया था। लेकिन ये मुश्किल आसान की मेरे चाचा सरदार अजीत सिंह ने, ‘भारत माता सोसाइटी’ की स्थापना कर के। इसी के ज़रिये क्रांतिकारी सहित्य का प्रकाशन होना शुरू हो गया। ‘पगड़ी सम्भाल जट्टा’ को लोगों तक पहुँचाने में भारत माता सोसाइटी की अहम भूमिका रही। लोगों के अंदर जोश जगाने से लेकर उन्हें एक जुट करने तक का काम भारत माता सोसाइटी ने बख़ूबी किया। कह सकते हैं कि भारत माता सोसाइटी अंग्रेज़ी हुकूमत को अब खटकने लगी थी। एक चीज़ और थी जो इन नामुरादों को खटकती थी, मेरे चाचा सरदार अजीत सिंह। हाँ जी... सरदार अजीत सिंह के भाषणों में इतना तेज हुआ करता था कि लोग ना सिर्फ़ उन्हें घंटों बैठ कर सुनते थे बल्कि उनकी कही बातों से प्रभावित भी होते थे। उनके इसी बढ़ते प्रभाव के चलते अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें मांडले के किले में 6 महीने के लिये नज़रबंद कर दिया था।

दिसम्बर 1907 सूरत में हुए कांग्रेस के एक अधिवेशन में उनकी मुलाकात लोकमान्य तिलक जी से हुई थी। उस मुलाकात से प्रभावित होकर तिलक जी ने कहा था कि हमारे पास सरदार अजीत सिंह जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है।

मांडले से उनके लौटने के बाद आज़ादी के लिये चल रहे आंदोलनो ने और ज़ोर पकड़ लिया। एक तरफ़ तो जहाँ क्रांतिकारी सहित्य के प्रकाशन से जनता में जोश और आक्रोश बढ़ रहा था वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ क्रांतिकारियों के दल को तैयार किया जा रहा था। लेकिन ये सब ज्यादा दिन तक नहीं चल सका सरकार के खिलाफ़ चल रही हर योजना की ख़बर उस तक पहुँच चुकी थी। और सरकार ने अपने रास्ते के कांटे को हटाने की पूरी तैयारी कर ली थी। इससे पहले सरकार अपने मनसूबों में कामयाब हो पाती सरदार अजीत सिंह को इसकी ख़बर लग गई और उसी वक़्त उन्हें देश छोड़ कर जाना पड़ा। सन 1909 में उन्होंने देश छोडा और करीब 37 साल तक उन्हें बाहरी देशों की धूल छाननी पड़ी। इतने वक़्त वतन से दूर रहने के बावजूद भी उन्होंने अपने फर्ज़ से कभी मुँह नहीं मोड़ा और ना ही अपनी परिस्थितियों के चलते कभी निराश हुए। बल्कि देश छोड़ने के बाद उन्होंने कई विदेश यात्रायें कीं और दुनियाँ को भारत की स्थिति और स्वतंत्रता के लिये चल रहे अथक प्रयासों के बारे में बताया। दूसरे विश्व युद्धके दौरान जो भाषण देश के लोगों के लिये प्रसारित किया गया था, वो सरदार अजीत सिंह का भाषण था। सारी दुनियाँ ने सराहा था उसे।

अब आप सोच रहे होंगे कि सरदार अजीत सिंह के जाने के बाद भारत माता सोसाइटी का क्या हुआ होगा? सही सोच रहे हैं आप। सच कहूँ तो सरदार अजीत सिंह भारत माता सोसाइटी की एक मजबूत कड़ी थे। उनके जाने से सोसाइटी के प्रभाव में कुछ कमीं तो आई लेकिन उनके दोनों भाइयों ने मिल कर इसे अच्छे से सम्भाल लिया।

सरदार स्वर्ण सिंह प्रमुख रूप से जनता में जोश बरकरार रखने के लिये आगे आये। सरदार अजीत सिंह के जाने के मुद्दे को लेकर उन्होंने कई लेख लिखे और जनता में बाँटे। जिसका नतीजा ये निकला कि जनता पहले से भी ज्यादा आक्रोश में आ गई। या कह सकते हैं कि सरदार अजीत सिंह का जाना आग में घी की तरह काम कर गया। जगह जगह जुलूस निकाले जा रहे थे। सरकार के विरोध में जलने वाली आग के चलते सरकार की आँखों की नई किरकिरी बने सरदार स्वर्ण सिंह। जो गलती सरदार अजीत सिंह के वक़्त की थी वो गलती वो अब नहीं करना चाहती थी। और की भी नहीं। सरदार स्वर्ण सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला और दो साल की सज़ा सुना दी गई। सज़ा क्या सुनाई थी नर्क में धकेला था। जानवरों की तरह काम कराया पर खाने के लिये जानवरों से भी बद्तर खाना दिया। इसी की वजह से वो बीमार पड़े और कुल जमा 23 साल की उम्र में हम सब को छोड़ कर चले गये। मेरा जन्म भी इसी दौरान हुआ था 28 सितम्बर 1907 को।

रुकिये ज़रा पानी पी लूँ, बातें करते करते गला ही सूख गया।    


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational