माफ़ी
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पूजनीय पिता जी,
सादर प्रणाम आज मैं आपको एक पत्र लिख रही हूं। काश कि यह पत्र आप तक पहुंच पाता! उन पत्रों की तरह जो मैंने 1969 के उन 10 महीनों में आप को लिखे थे।आपको याद है पिताजी, जब मैं दीदी के यहां कश्मीर में थी और आप अकेले अहमदाबाद में थे, मैं हर सोमवार को आप को पत्र लिखती और आपका जवाब हर गुरुवार को आ जाता ? मैंने डाकिए के आने का समय भी जान लिया था, और घर की दूसरी मंजिली से उतर कर सामने बनी पुलिया पर बैठ जाती और उसका इंतजार करती।आपका पत्र पाते ही लपक कर वहीं बैठे- बैठे पढ़ लेती, फिर ऊपर आती और तुरंत उसका जवाब लिखने बैठ जाती।शाम को पोस्ट भी तो करना होता था।अगर देर हो जाती तो मेरा पत्र ना छूट जाता !!पता नहीं क्यों जब भी मैं लेटर बॉक्स में पत्र पोस्ट करती तो हाथ जितना नीचे तक जा सकता वहां तक डालती, कि कहीं कोई निकाल न ले और यही लाल गाड़ी आने के समय उलझन में रहती कि मेरा पत्र तली में ना छूट जाए!! मगर नहीं, फिर सोमवार को आपका पत्र मिल जाता। लंबा अरसा बीत गया अब मुझे याद भी नहीं है कि मैं उन पत्रों में क्या लिखती थी, जरूर बचकानी बातों के अलावा अपनी जरूरतों की फेहरिस्त ही भेजती रही होउंगी और आप अपने सीमित साधनों से उस फेहरिस्त में बिना कोई कतर - ब्योंत किए मेरी वीश लिस्ट को पूरी करते। मुझे याद है एक कश्मीरी कोट पर मेरा दिल आ गया था। मैं दीदी से नहीं खरीदवाना चाहती थी। मैंने आपको उस कोट की कीमत लिखी और लौटती डाक से आपका मनी आर्डर आ गया था। फिर एक बार स्कूल की तरफ से हमारा टूर राजस्थान जा रहा था, मैंने आपसे जाने की अनुमति के साथ शुल्क के लिए भी लिखा और वही, फिर आपने लौटती डाक से मनी ऑर्डर कर दिया था और कुछ हिदायतें भी दी थीं जो मुझे उस टूर के दौरान ध्यान में रखनी थी। पिताजी, ऐसा क्यों होता है कि हम माता-पिता की अहमियत को समझने में बहुत देर लगा देते हैं, बहुत देर ? मां नहीं थी, आप अकेले रहते थे, आप कैसे सब मैनेज करते रहे होंगे, मैंने कभी भी नहीं सोचा। दीदी मुझे अपने साथ ले आई थीं, मेरी सुरक्षा की खातिर। मगर हमने यह क्यों नहीं सोचा कि वहां आपका ख्याल कौन रखेगा?मां के न रहने के साल भर बाद आपने मेरे लिए भावी वर ढूंढ लिया था। मेरी उम्र 18 साल थी। मैं बहुत दिनों आपको उलाहना देती रही कि आपने अपने सर का बोझ उतार दिया। क्यों नहीं समझ पाई की आप बिन मां की बच्ची की देखभाल करते या घर के बाहर अपना कामकाज देखते। और फिर यह कोई आज की बात नहीं थी, आज लड़कियां पढ़ -लिखकर अपने पैरों पर खड़ी होकर विवाह के बारे में सोचती हैं। उन दिनों इसी उम्र में विवाह हो जाया करते थे, मगर मैंने बहुत दिनों तक आप को माफ़ नहीं किया था ,अब सोचकर अफ़सोस होता है और दिल में कहीं गहरे तक टीस होती है।अपने बच्चे हो जाने पर तो मैं आपकी तरफ से बिल्कुल गाफिल हो गई थी। आप साल में दो-चार दिनों के लिए आते, हाल -चाल लेते और लौट जाते ।क्यों नहीं मैंने आग्रह से, अनुरोध से आपको अपने पास ही रख लिया? बच्चे क्यों इतने कृतज्ञ हो जाते हैं कितने स्वार्थी हो जाते हैं? फिर जब आपका पैर फ्रैक्चर हो गया था, मैं नौकरी करती थी, नहीं गई, हां, यह गए थे और 15-20 दिन आपके पास रहकर आपकी सेवा की थी। इन्होंने आपको अपने साथ लाना चाहा मगर आपने कहा , सर्दियों में आऊंगा, जब बेटी की छुट्टियां होंगी। वह मुझे लेने भी आ सकेगी, तब तक मैं ठीक भी हो जाऊंगा।सर्दी की छुट्टियां तो आईं मगर इस बीच आप चले गए!! आज भी मेरे दिल पर अपराध बोध है, क्यों मैं छुट्टी लेकर नहीं चली गई थी? लोग कहते हैं माता-पिता कहीं नहीं जाते ,हमारे आस- पास ही रहते हैं ,अगर यह सच है तो पिताजी क्या आप मुझे माफ कर पाएंगे?मैं अपने आप को आज भी माफ नहीं कर पाई हूं।