मामक सार (उपन्यास) - 8
मामक सार (उपन्यास) - 8
हमीद काफी देर तक बैठा उसके चेहरे को पढ़ता रहा फिर पूछ बैठा--
" थोबड़ा क्यों बना है?"
शफीक ने एक गहरी सांस ली।
" क्या बतायें यार, कल शमीम से सात बजे सिटी पैलेस पर मिलने को कहा तो उसने इंकार कर दिया। बोली--दुलाभाई हैं इसलिए नहीं आ पाऊंगी। उसके इंकार से मुझे गुस्सा आ गया और उसे अपशब्द कह दिया। थोड़ी देर तक वह मुझे चुप खड़ी देखती रही फिर रोने लगी पर मैं उसे वहीं छोड़ कर चला आया।"
" यार, अजीब आदत है तुम्हारी! कम से कम यही सोच लेते कि वह उम्र में तुमसे बड़ी है।"
" सोचने को तो बहुत कुछ सोचा जा सकता था पर प्यार में अगर उम्र और क्वालीफिकेशन देखने लगेगा न, तो बर्फ का तेल बोरे में भर कर बेचेगा और कुछ नहीं!…… आज उसके दुलाभाई गोरखपुर चले जायेंगे। यार, उसे मनाने की कोई तरकीब निकालो!"
" शमीम से मिला जरूर हूं पर उसके घर नहीं गया हूं।" हमीद कुछ सोचने लगा।
" अच्छा, तुम बैठो मैं आ रहा हूं।"
हमीद थोड़ी देर बाद लौटा। शफीक बेचैन था।
" क्या हुआ?"
" दिखी नहीं। थोड़ी देर बाद फिर जाऊंगा।"
" अच्छा, मैं घर से होकर आता हूं। तुम फिर एक चक्कर लगा लेना।" शफीक चला गया तो हमीद दुकान छोड़कर फिर एक बार शमीम की तरफ चक्कर लगा आया। इस बार भी वह नहीं दिखी। अब वह बैठ गया। शमीम और शफीक के सम्बन्ध बड़े अजीब ढंग से बने हैं। शमीम शफीक की बहन की सहेली होने के नाते उसके यहाँ आती रही और शफीक दोनों सहेलियों के बीच निकले कामों के सिलसिले में शमीम से मिलता रहा। शमीम और शफीक के बीच होने वाली बातों का क्रम जुड़ता रहा और दोनों अपनी-अपनी बौद्धिकता से सामने वाले को परास्त करने की कोशिश में एक-दूसरे को कब चाहने लगे, कोई नहीं जान पाया।
शफीक ने आते ही पूछा--
" क्या हुआ, मिली?"
शफीक की बेचैनी देखकर हमीद की हिम्मत ही नहीं हुई कि वह कह दे कि, नहीं मिली। " हां, मिली थी। सात बजे शाम को वह इधर आयेगी।"
शफीक का चेहरा खिल उठा पर हमीद बेचैन हो गया। थोड़ी देर बैठा रहा फिर उठकर खड़ा हो गया।
"शफीक तुम बैठो, मैं अभी आ रहा हूं।"
"हमीद दुकान से नीचे आ गया। ढलान से उतर कर वह आगे बढ़ता चला गया। उसे दरवाजे पर कोई नहीं दिखा। वह थोड़ी दूर जाकर लौटा तभी उसे शमीम घर से निकलते दिख गयी। कहीं जा रही थी। वह उसके करीब पहुंच गया।
" आपको सात बजे दुकान की तरफ आना है।"
उसने एक बार हमीद का चेहरा देखा फिर मुस्करा दी।
" अच्छा।" स्वीकृति मिलते ही वह तेज कदमों से आगे बढ़ चला पर तभी शमीम ने पुकार लिया तो वह रुक गया।
" कितने बजे?" शमीम ने पूछा।
" सात बजे।"
इस बार वह कुछ नहीं बोली। बस, होठों की मुस्कराहट बरकरार रही। वह चला आया। शाम को ठीक सात बजे शमीम दुकान के सामने से गुजरी। दोनों बैठे इंतजार कर रहे थे। शफीक देखते ही उछल पड़ा।
" वो जा रही है।"हमीद ने उसका हाथ पकड़, बिठा लिया।
" तुम थोड़ी देर बाद दुकान बन्द करके स्टेच्यू पर आओ।"
हमीद शमीम के बराबर आकर साथ-साथ चलने लगा।
" क्यों भई, छोटी-छोटी बातों पर आप लोग मन मुटाव पैदा कर लेती हैं।"
दूर-दूर पोल लाईट होने के कारण लगभग पूरा रास्ता अंधेरे में गुजर रहा था। शमीम सिर नीचे किये चल रही थी।
" हमीद उन्होंने ऐसे कैसे कह दिया?" शमीम की आवाज़ भर्रा गयी।
" उसकी तो आदत है। कभी-कभी हम लोगों को ऐसी बात कह देता है कि जी करता है जिन्दगी भर के लिए दोस्ती खत्म कर दें पर आप दोनों तो उस स्तर पर जुड़े हैं, जहाँ सारे रिश्ते झूठे पड़ जाते हैं। उसे जब हम लोग माफ कर सकते हैं तो क्या आप माफ नहीं कर सकतीं?"
दोनों स्टेच्यू के चबूतरे पर आकर बैठ गये जहाँ अक्सर शमीम शफीक के साथ बैठा करती थी। शमीम ने हमीद के सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। बस, चुपचाप बैठी रही। थोड़ी देर बाद शफीक आ गया तो हमीद उठकर खड़ा हो गया।
" आप लोग बात कीजिए, मैं अभी आ रहा हूं।"
हमीद कालेज की बाउन्ड्री से निकल कर सड़क पर आ गया उसने ठेले पर से दो पैकेट मूंगफली खरीदी और खुद टूंगता हुआ धीरे-धीरे लौट पड़ा।
शमीम-शफीक बैठे बतिया रहे थे। उसने मूंगफली शमीम की गोद में डाल दी और थोड़ा-सा खुद लेकर फोड़ने लगा।
" बाबू जी, आठ बज गये। गेट बन्द होने वाला है।" काॅलेज का चौकीदार बोला तो सब खड़े हो गए।
"शफीक, चाभी दो। मैं दुकान पर चल रहा हूं, तुम आओ।"
"शफीक मुझे भी चलने दो। कल यहीं मिलूंगी।"
शमीम बोली तो थोड़ी देर सोचने के बाद शफीक ने इजाजत दे दी।
" अच्छा, चलो।"
शमीम रिक्शे पर बैठकर घर की तरफ बढ़ चली पर आज घर लौटते वक्त मालूम नहीं क्यों दिल घबरा रहा था। उसे लगा, जैसे कोई अप्रिय घटना की सूचना दे रहा है। वह दरवाजे पर ज्यों पहुंची, उसे दुलाभाई दिख गये तो वह चौंक गयी।
" आप तो गोरखपुर……?" पर उसकी बात बीच से टूट गयी।
"कहां गयी थी?" उसके दुलाभाई गुस्से में थे।
वह कुछ नहीं बोली। सीधे कमरे में चलती चली गयी। पीछे-पीछे उसके दुलाभाई भी पहुंच गये।
" मैं पूछता हूं, कहां गयी थी?" दुलाभाई चिल्ला उठे पर वह शान्ति रही।
" सहेली के यहाँ।"
" सहेली के यहाँ या अपने यार के यहाँ?"
" दुलाभाई !" उसका चेहरा लाल हो गया। अचानक एक थप्पड़ आकर उसके गाल पर पड़ा तो वह फिर चीख उठी।
" दुलाभाई ! अब हाथ मत उठाइयेगा वरना मैं भूल जाऊंगी कि आप मेरी बहन के शौहर हैं।…… हां, मैं अपने यार से मिलने गयी थी। मिलती रही हूं और मिलती रहूंगी। आप कौन होते हैं रोकने वाले?" शमीम खूंखार हो उठी तो उसके दुलाभाई गुस्से से कांपने लगे।
" मैं, मैं तुमसे प्यार करता हूं और तुमसे शादी करूंगा।"
शमीम और उसकी आपा सन्न खड़ी रह गयीं पर उसके दुलाभाई के चेहरे पर अब संतोष की झलक थी।
****
शमीम के घर की तरफ ले जाने वाली ढलान से उतर कर शफीक, हमीद और एक दोस्त अनूप खोखे में चाय पीने के लिए बैठे ही थे कि इशा की आजान होने लगी। शफीक बेचैन हो उठा। जब से शमीम के दुलाभाई ने शमीम-शफीक के प्रेम-प्रसंग पर रोक लगायी है, तब से यह तय हुआ था कि इशा की आजान सुनते ही वह दरवाजे पर आकर खड़ी हो जायगी और शफीक उसके दरवाजे के सामने वाली सड़क से होकर गुजरेगा।
शमीम के अब्बू का इन्तेकाल हो चुका था। भाई बाहर सर्विस करता था। पुरूष के नाम पर नौकरी पेशा उसके दुलाभाई ही बचते थे। वह भी गोरखपुर से हफ्ते में एक बार आते थे इसलिए दोनों को बाहर मिलने के मौके काफी थे। अब नहीं। लेकिन शफीक आज कुछ ज्यादा ही परेशान नजर आ रहा था।
" यार, उसे जाकर देख आऊं। आजान हो रही है, वह दरवाजे पर जरूर खड़ी होगी।"
" अच्छा, तुम जाओ। हम लोग यहीं बैठे हैं।"
हमीद और अनूप बैठकर चाय पीने लगे। शफीक शमीम के घर की तरफ बढ़ चला। अचानक ढलान से उतरते एक रिक्शे पर हमीद की नजर पड़ी तो वह चौंककर खड़ा हो गया।
" अरे यार, गजब हो गया। शमीम के साथ उसका दुलाभाई रिक्शे से जा रहा है।"
दोनों हाथ में चाय का गिलास लिए-लिए रिक्शा के पीछे दौड़ चले। रिक्शा दरवाजे के सामने जाकर रुक गया। शमीम उतर कर घर की तरफ बढ़ी और वह रिक्शे वाले को पैसा देने लगा अचानक पास ही लगे स्ट्रीट लाईट की रौशनी में उसने शफीक को देख लिया। शफीक आगे बढ़ा जा रहा था। उसने शफीक को पुकारा।
" ऐ मिस्टर !"
शफीक सुनकर भी अनजान बना, तेजी से आगे बढ़ने लगा। उसने फिर पुकारा।
" शफीक !"
शफीक को लगा कि अब बात नहीं बनेगी तो लौट पड़ा। शफीक एकदम घबरा गया था। शमीम के दुलाभाई बहुत गुस्से में लग रहे थे। हमीद दौड़कर उन दोनों के बीच पहुंच गया
" क्या बात है शफीक ?"
दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। बस दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ते रहे। तभी अनूप भी पहुंच गया।
"क्या बात है शफीक ?"
अनूप के पहुंचने पर शमीम के दुलाभाई को लगा कि शफीक अकेला नहीं है। शमीम भी अन्दर जाते-जाते रुक गयी।
" कौन है? किसको पुकार रहे हो?"
उसके सवाल का जवाब भी किसी ने नहीं दिया। शफीक के कंधे पर उसके दुलाभाई बड़े प्यार से हाथ रखकर बोले--
" शफीक, तुमसे कुछ बातें करनी हैं।" और शफीक को सीधे घर के अन्दर लिए चला गया। कमरे में पहुंच कर उसने पुकारा।
" शमीम !"
शमीम थोड़ी देर बाद कमरे में आकर खड़ी हो गयी। खामोश। डरी-डरी-सी।
" तुम दोनों बातें करो, मैं अभी आ रहा हूं।"
वह उन दोनों को कमरे में छोड़कर अन्दर चला गया। थोड़ी देर बाद बाहर से अनूप की आवाज़ आयी।
" शफीक क्या बात है ?"
" कोई बात नहीं है अनूप, तुम घर जाओ मैं अभी आ रहा हूं।"
शमीम सिर नीचे किये चुपचाप बैठी रही। शफीक शमीम की तरफ घूमा।
" शमीम, यह सब क्या है ?"
" मैंने दुलाभाई को सब कुछ बता दिया है। यहां तक कि हम लोग कहां-कहां मिलते थे और कैसे बैठते थे।…… शफीक, मैंने तुम्हें नहीं बताया था…… दुलाभाई मुझे चाहते हैं और मुझसे शादी करना चाहते हैं।"
"तो परेशानी क्या है ? शादी कर लो।"
" कैसी बातें कर रहे हो शफीक ! मैंने सब के दिल का ठेका थोड़े ही ले रखा है कि जो मुझे चाहे उसी से मैं शादी कर लूं। मेरी मर्जी भी तो शामिल होनी चाहिए। फिर हमारे यहाँ ऐसी शादी हराम है। "
शफीक ने महसूस किया कि यदि वह अपनी चाहत उस पर जाहिर कर सकते हैं तो शादी न होने की सूरत में उसकी बहन को तलाक भी दे सकते हैं।
" शफीक, तुम सिर्फ प्यार करते हो या शादी भी करना चाहते हो ?" दुलाभाई ने दो प्याली चाय लाकर सामने पड़े टेबल पर रख दी। शफीक ने उसे गौर से देखा।
" मैं शादी करूंगा।"
" अच्छा हुआ शादी के लिए तुमने हामी भर ली वरना अभी हमारी चप्पल होती और तुम्हारा सिर।…… लो चाय पियो। सुबह दस बजे यहीं आ जाना। मैं कोर्ट में शादी करा दूंगा।"
शमीम के दुलाभाई का इतनी जल्दी-जल्दी रंग बदलना उसकी समझ में ही नहीं आया। वह चाय पीकर बाहर निकल आया। खोखे पर हमीद और अनूप उसका इंतजार कर रहे थे। तीनों साथ हो लिए।
दूसरे दिन सुबह ठीक दस बजे तीनों शमीम के घर की तरफ चले तो उसके दुलाभाई ढलान के ऊपर ही मिल गये।
" चलिए, हम लोग आ गये हैं।" शफीक बोला पर दुलाभाई दूसरी तरफ बढ़ चले। तीनों साथ हो गये। थोड़ी देर तक वह चुप रहे फिर बोले--
" लेकिन शमीम शादी से इंकार कर रही है।"
" क्यों ?" तीनों एक साथ चौंके।
" तुम लोग पढ़े-लिखे हो। ये अभी किसी काम से भी नहीं लगे हैं। फिर शादी अगर हो भी जाती है तो कहाँ से खुद खायेंगे और कहाँ से उसे खिलायेंगे?"
शफीक को लगा, उसका कोर एकदम बचा हुआ है।वह अब कभी भी अपनी बाजी भुना सकता है।
(शेष भाग 9 में पढ़ें)
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