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Dr. Hafeez Uddin Ahmed Kirmani

Tragedy Children

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Dr. Hafeez Uddin Ahmed Kirmani

Tragedy Children

माफ़ीनामा

माफ़ीनामा

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गजानंद मिश्रा जी सरकारी विद्यालय से सेवानिवृत्त होने के बाद घर पर नहीं बैठे या यूँ कहिये कि निजी विद्यालयों ने बैठने न दिया। उनके दीर्घकालीन शिक्षण अनुभव एवं उनकी ख्याति का लाभ सभी उठाना चाहते थे। 'सादा जीवन उच्च विचार' के सिद्धांत पर चल कर उन्होंने संयमित जीवन व्यतीत किया जिसके कारण सत्तर वर्ष की आयु पार करने के बाद भी वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ थे और अपने ज्ञान स्रोत से शिक्षा जगत को संचित करने की क्षमता रखते थे। ज्ञान के अतुल भंडार, बहुआयामी प्रतिभाओं के स्वामी श्री गजानंद शुक्ला जी समाज में ‘गुरु जी’ के नाम से लोकप्रिय थे। यूँ तो उनका मुख्य विषय भौतिक विज्ञान था किंतु ऐसा कोई भी विषय नहीं था जिसमें उनका हस्तक्षेप न हो।

एक अच्छा शिक्षक होने के साथ ही साथ वह एक सफल परामर्शदाता भी थे। अपनी सहृदयता, मृदभाषिता और स्वभाव की कोमलता से वह सारे विद्यार्थियों का मन मोह लेते थे। शिष्यों की समस्याओं को व्यक्तिगत समस्या के रूप में लेकर वह उस समय तक चैन से न बैठते जब तक समस्या का समाधान न हो जाता। युवक युवतियों के आपसी अनुराग की समस्या से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिताओं को जीतने तक की समस्याओं का हल उनके पास होता था।

नवचेतन माध्यमिक विद्यालय में उन्हें नियुक्त हुये अभी कुछ ही दिन हुये थे कि उन्हें कक्षा 11 में भौतिक विज्ञान पढ़ाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया।

इस कक्षा में एक छात्रा थी जिसका नाम था अरशीन। बारीक नाक नक़शे वाली यह, दुबली, पतली, लम्बी आकर्षक व्यक्तित्व वाली लड़की कक्षा में सब से अलग दिखाई देती थी। उसकी आंखों में बुद्धिमत्ता और जिज्ञासा थी और मुखमंडल पर सजगता एवं जागरूकता। पढ़ाई में तो वह अग्रणीय थी ही, वाद-विवाद, खेलकूद एवं अन्य प्रतियोगिताओं में भी पुरुस्कार जीत कर वह सब से अपनी बहुमुखी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी थी।

ऐसी आशा की जाती है कि इस प्रकार की लड़की अध्यापकों की आँख का तारा होगी और सहपाठियों का गर्व। किंतु ऐसा नहीं था। प्रकृत के खेल निराले हैं। वह किसी को हज़ार गुण देती है तो उसमें कुछ ऐसी बातें भी डाल देती है जो सब को प्रिय नहीं होतीं-- सम्भवतः कुदृष्टि से बचाने के लिये। इतने गुणों का भंडार होने के बाद भी उसके आचरण एवं व्यवहार में कुछ ऐसी कमियाँ थीं जिनके कारण सहपाठी और अध्यापक उससे प्रसन्न नहीं रहते थे।

अरशीन में सहनशीलता की कमी थी। उसे बात बात पर क्रोध आ जाता था और ऐसे में वह अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रख पाती थी और छोटे बड़े का अंतर भूल जाती थी। अरशीन के इन दोषों को प्रोत्साहित करने में उसकी सहपाठी मुनमुन का बड़ा हाथ था। मुनमुन की मम्मी अरुणिमा मैम, विद्यालय की एक वरिष्ठ अध्यापिका थीं।

मुनमुन सांवले रंग की दुबली पतली छोटे क़द की लड़की थी। दूसरों को आपस में लड़ाकर अपना काम निकालना, सहपाठियों और अध्यापकों की पीठ पीछे बुराई करना और मित्रों के बीच वैमनस्य उत्पन्न कराना, उसके मनोरंजन के साधन थे। वह धीमे बोलती थी और अपनी छोटी छोटी आँखों और सजग कानों से हर बात की ख़बर रखती थी।

अरशीन और मुनमुन के घर पास-पास थे और उनके परिवारों में भी घनिष्ठ संबंध थे। मुनमुन और अरशीन ने एक साथ प्ले-वे में प्रवेश लिया था। प्लेवे से लेकर कक्षा ग्यारह तक साथ साथ रहने के कारण और निकट पारिवारिक संबंधों के कारण दोनों में घनिष्ठता होना स्वाभाविक ही था। अरशीन मुनमुन को अपनी सब से अच्छी सहेली मानती थी लेकिन उसे नहीं मालूम था कि उसके व्यक्तित्व, सौंदर्य एवं उपलब्धियों के कारण मुनमुन हीन भावना का शिकार रहती है। दोस्ती की आड़ में वह अरशीन को ऐसे परामर्श देती जो अंततः अरशीन के कष्ट का कारण बनते। वह अरशीन के चित की अस्थिरता एवं मित्रों पर विश्वास कर लेने के गुण का भरपूर लाभ उठाती।

अध्यापक यह सोच कर कि ‘अपनी इज़्ज़त अपने हाथ’, अरशीन से कम से कम संबंध रखते थे। आरम्भ में अध्यापकों ने गुरु जी को अरशीन के बारे में बताने की कोई आवश्यकता न समझी लेकिन जब उनको पता चला कि गुरु जी को कक्षा ग्यारह-ऐ में पढ़ाना है तो उन्होंने अरशीन के व्यवहार का संक्षिप्त परिचय देते हुये गुरु जी को उसकी ओर से सतर्क रहने का परामर्श दिया।

कक्षा में पहुँचने से पहले ही गुरु जी ने सोच लिया था कि अरशीन उनके लिये एक चैलेंज है और वह उसके व्यवहार और आचरण में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिये हर संभव उपाय करेंगे।

प्रायः अध्यापक विद्यार्थियों से प्रश्न पूछने के लिये पहले उन्हें खड़े होने का आदेश देते हैं और फिर सीधा सपाट प्रश्न करते हैं लेकिन गुरु जी ने अरशीन से प्रश्न करने की शैली ही बदल डाली। उदाहरण के लिये वह मुस्कुराते हुये प्रश्न करते, ”बेटा अरशीनक्या आप बतायेंगी कि अंतरिक्ष की कौन सी घटनायें न्यूटन के गति के पहले नियम को सिद्ध करती हैं। ’क्या आप बतायेंगी’ में छुपी आज़ादी और ‘बेटा’ और ‘आप’ में निहित प्रेमभाव और सम्मानभाव अरशीन को खड़े होने और मुस्कुरा कर उत्तर देने के लिये विवश कर देते।

गुरु जी के अनुभवों ने काम किया। अरशीन के स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन दिखने लगे। अब वह गुरु जी से खुल कर बात करती, अपनी निजी समस्याओं पर उनका परामर्श लेती और उनके सुझावों का अनुपालन करती। सहपाठियों के साथ भी वह मित्रता का व्यवहार करती और अध्यापकों का आदर करती।

किंतु पुरानी आदतें आसानी से नहीं छूटती हैं। अरशीन कभी कभी ऐसा व्यवहार करती जो कक्षा-अनुशासन के सामान्य नियमों के प्रतिकूल होता। जैसे बिना आज्ञा खाना खाने लगना। एक स्थान छोड़ कर दूसरे स्थान पर बैठ जाना आदि। निश्चित रुप से यह बातें अनुशासन के दृष्टिकोण से अनुचित थीं और अध्यापक के लिये थोड़ा अपमानजनक भी। लेकिन वह इन बातों को अनदेखा कर जाते थे। वह जानते थे कि गिरी चीज़ उठाने के लिये झुकना ही पड़ता है। 

मुनमुन की मम्मी अरुणिमा मैंम विद्यालय की वरिष्ठ अध्यापिकाओं में से एक थीं। पठन पाठन से अधिक उन्हें राजनीति में रुचि थी। अपनी कूटनीति द्वारा उन्होंने प्रबंधन समिति में भी अपनी पहुँच बना ली थी। विद्यालय का कोई भी कार्य ऐसा न होता जिसमें उनका हस्तक्षेप न हो। प्रयोग परीक्षाओं के परीक्षकों को वह स्टेशन से लातीं, अपने घर पर ठहरातीं, और होटल के झूठे बिल बनवा कर उन्हें अनुगृहीत करतीं और इसके बदले बच्चों को इच्छानुसार नम्बर दिलवातीं। प्रबंधन उनके इस योगदान की भूरी भूरी प्रशंसा करता।

गुरु जी जितने सरल स्वभाव के थे उतने ही सिद्धांतवादी भी थे। अनुचित बातें उनसे सहन नहीं होती थीं।

कोविड काल में अरुणिमा मैम ने होली मिलन और ईद मिलन के कार्यक्रमों के आयोजन का प्रस्ताव रखा। गुरु जी ने इन प्रस्तावों का विरोध किया। अरुणिमा मैम अपने निजी कार्य जैसे हाज़िरी रजिस्टर का जोड़ करवाना, परीक्षा की उत्तर-पुस्तिकाओं का जोड़ करवाना आदि कार्य बच्चों से करवाती थीं। गुरु जी इस प्रकार के सारे कार्यों का विरोध करते थे। अरुणिमा मैम बच्चों की छोटी छोटी त्रुटि पर उन्हें सस्पेंड करने का अनुमोदन करतीं जो उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगता था।

अरुणिमा मैम को उनकी उपस्थिति खलने लगी। अपनी स्वच्छंदता पर अंकुश लगते देख वह तिलमिला उठीं। अरशीन को लेकर गुरु जी की सफलता भी उनके लिये किसी चैलेंज से कम न थी। उन्होंने प्रण कर लिया कि वह गुरु जी को स्कूल से निकलवा कर ही दम लेंगी।

गुरु जी कभी कभी बच्चों को चुलबुला, चुलबुली, नटखट, शैतान आदि शब्दों से सम्बोधित कर दिया करते थे। लेकिन उनको यह नहीं मालूम था कि उनके यह प्यार भरे सम्बोधन एक दिन उनके लिये बड़ी समस्या बन सकते हैं।

अरशीन को पानी पीने के लिये बाहर जाना था। वह अपने स्थान से उठी और पूरी कक्षा का चक्कर लगाते हुए उसने कहा, “मैं पानी पीने जा रही हूँ” और कक्षा से निकल गई। गुरु जी ने उसकी इस अनुशासनहीनता को हलका बनाने के लिये कह दिया, “बड़ी शैतान है”। पूरी कक्षा गुरु जी की इस बात पर हंस दी। निकलते निकलते अरशीन ने भी यह हंसी सुनी। पानी पीकर वह वापस आई और सामान्य रुप से अपने स्थान पर बैठ गई।

सब कुछ सामान्य था किंतु मुनमुन व्याकुल थी।

दूसरे दिन जैसे ही गुरु जी कक्षा में आये, अरशीन खड़ी हो गई और कहने लगी, “आपने कल मुझे शैतान क्यों कहा था। मैंने कौन सी ग़लती की थी। मैं तो बस पानी पीने गई थी।”

गुरु जी ने कहा, “बेटा मैंने तुम्हें प्यार से शैतान कहा था बुरा कहने के लिये नहीं।”

“नहीं, मेरे साथ आपका बर्ताव बस दिखावा है। आप की सारी बातें दिखावे की हैं। अगर आप मुझे मानते होते तो पूरे क्लास में मेरा मज़ाक़ न उड़ाते। पूरा क्लास मेरे ऊपर हंसा। अब दोबारा मुझे ऐसी बात न कहियेगा।” इतना कह कर वह बैठ गई।

कक्षा के कई बच्चों ने उसके शब्द ‘दिखावे’ के प्रति आपत्ति जताना चाही लेकिन गुरु जी ने सब को समझा बुझा कर चुप करा दिया।

अरशीन के वाक्य जलते तीर की भांति उनके मन में उतरते चले गये। कई असंगठित विचारों ने उनकी निर्णय लेने की क्षमता को दबोच लिया। मन में नकारात्मक प्रश्न उभरने लगे। अरशीन को सुधारने में क्या वह पूरी तरह असफल हो चुके हैं? क्या उनकी सफलता सचमुच दिखावा थी? असफलता के विचार के साथ ही अपमान का भी बोध हुआ। वह जानते थे कि अरशीन को सुधारने में उन्हें अनेकों बार अपमान का सामना करना पड़ सकता है। हवन करने में हाथ तो जल ही सकता है। लेकिन यहाँ बात निजि मान अपमान की नहीं थी। उसका आचरण कक्षा समेत पूरे विद्यालय के अनुशासन के लिये एक चुनौती था। उन्हें लगा कि जैसे उनका मन सिकुड़ गया है और उनका क़द छोटा हो गया है। उनके पास स्तब्ध होने का भी समय नहीं था। पूरी कक्षा एकटक उन्हें देखे जा रही थी और उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी।

 वह उपाहपोह में पड़ गये। क्या करें। अरशीन को डाटें या प्राधानाचार्या से शिकायत करें या उसे एक थप्पड़ रसीद कर दें। क्या इतने दिनों में उससे जो निकटता स्थापित हुई थी उसमें उन्हें थप्पड़ मारने का भी अधिकार नहीं मिला था? क्या ऐसी स्थिति में वह अपनी पुत्री को थप्पड़ न मारते। क्या इससे समस्या का समाधान हो जायेगा? क्या वह सुधर जाएगी?

किसी प्रकार उन्होंने अपने ऊपर नियंत्रण किया और बोले, “अरशीन तुम अपने होश में नहीं हो। तुमको नहीं मालूम तुम क्या कह रही हो। जाओ जाकर मुँह धो और पानी पीयो । बाद में बात करना।” वह यह कहती हुई कि ‘मुझे कोई बात नहीं करना है’, बैठ गई। कुछ देर बैठी रही और फिर पानी पीने कक्षा से बाहर चली गई।

गुरु जी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। बच्चों के सामने अपनी इज़्ज़त कैसे बचायें। वह बस इतना कह कर चुप हो गये, “बच्चों आप तो जानते ही हैं उसका स्वभाव कैसा है, थोड़ी देर में ठीक हो जायेगी।”

गुरु जी ने प्राधानार्चा से अरशीन की शिकायत नहीं की किंतु मैम अरुणिमा द्वारा सारी बात उन तक पहुँच चुकी थीं। उन्होंने गुरु जी को बुलवाकर हर बात की पुष्टि की। अरुणिमा मैंम वहाँ उपस्थित थीं। उन्होंने अरशीन को सस्पेंड करने का परामर्श दिया। प्रधानार्चाया ने अरुणिमा मैंम की बात अनसुनी करते हुये गुरु जी से कहा, “आप सारी बातें लिख कर दें मैं अरशीन के विरुद्ध कड़ी कारवाई करुँगी।”

गुरु जी बोले, “आपको सारी बातें मालूम हैं, सारी घटना भरे क्लास में हुई है। अब मैं लिख कर क्या दूँ।” प्रधानाचार्या ने कहा, “आप अरशीन को बचाने की कोशिश ना कीजिये। उसे कम से कम आप से माफ़ी तो मांगना ही पड़ेगी। उसका माफ़ीनामा ठीक से रखियेगा। अगर उसकी अगली शिकायत आई तो मैं उसे सस्पेंड कर दूँगी। वह बस वार्षिक परीक्षा के लिये ही विद्यालय आ सकेगी।”

अगले दिन अरशीन माफ़ीनामा लेकर गुरु जी के सामने खड़ी थी। उसकी कंपित वाणी और अनियंत्रित चाल उसकी मानसिक व्यथा का प्रतिबिंबन कह रही थीं। वह सोच रही थी कि हर बार वह मुनमुन की बात क्यों मान लेती है। मैंने बात क्यों बढ़ाई? मेरे मन में इतनी अस्थिरता क्यों है? मैं अपने निर्णयों पर टिकी क्यों नहीं रह पाती? मैंने गुरु जी का अपमान क्यों किया? मेरे आचरण से गुरु जी को कितनी निराशा हुई होगी और कितना दुख हुआ होगा। गुरु जी पहले अध्यापक हैं जिन्होंने मुझे समझा, मेरी मनोस्थिति को समझा। मेरे दोषों में भी सकारात्मकता ढूँढी और मुझे सुमार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया। वह स्वयं को धिक्कारे जा रही थी। उसके लिये गुरु जी से आँख मिलाना कठिन हो रहा था। उसने लिखा थाः

अति आदरणीय गुरु जी,

मैं स्वीकार करती हूँ कि मैंने आप पर ‘दिखावा’ करने का नितांत झूठा और आधारहीन लांछन लगा कर आपकी अवमानना करने का भारी अपराध किया है। मैं यह भी स्वीकार करती हूँ कि मैंने आपसे ज़बान दराज़ी करने का भी अपराध किया है।

पूर्व में भी मैं आपकी मान मर्यादा एवं प्रतिष्ठा के विरुद्ध निराधार एवं अशोभनीय आरोप लगाती रही हूँ और आपको अकारण बुरा भला कहती रही हूँ, किंतु क्रोधित होने के स्थान पर आपने सदैव मेरे दोषों की उपेक्षा की, मुझे दंडित करने के स्थान पर मेरे गंभीर अपराधों को साधारण त्रुटि की भांति लिया और उन्हें सुधारने के लिए अति सौम्यता के साथ अनुकरणीय परामर्श दिए, मुझे उच्च मानवीय मूल्यों को अपनाने के लिये प्रेरित किया और अपने स्नेह पुंज से मेरे विकरित मन को शुद्ध करके मुझे आदर्श मार्ग का अवलोकन कराया।

आप सम्पूर्ण विद्यालय के लिए नैतिकता का प्रकाश पुंज हैं। आप पर आरोप लगा कर मैंने नैतिकता को ही कलंकित कर दिया है।

मेरे अशोभनीय व्यवहार के लिये मेरा अंतर्मन मुझे धिक्कार रहा है। मैं अपने इन घृणित अपराधों के लिए अत्यंत लज्जित एवं दुखी हूँ और आप से क्षमा की याची हूँ।

मुझे आशा है कि आप पूर्व की भाँति अपनी विशाल हृदयता का परिचय दे कर अपनी पुत्री रूपी शिष्या को अवश्य क्षमा प्रदान कर देंगे और उसे अपने संरक्षण में सुधरने का एक और अवसर प्रदान करेंगे।

मैं आपको वचन देती हूँ कि भविष्य में मेरे द्वारा किसी भी निंदनीय व्यवहार की पुनरावृत्ति नहीं होगी। केवल आप ही के साथ नहीं अपितु सारे गुरुओं के साथ मेरा व्यवहार प्रशंसनीय होगा। मैं आपको इस बात का भी आश्वासन दिलाती हूँ कि मैं कभी आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग नहीं करुँगी। मैं विद्यालय के नियमों के पालन को अपना पुनीत कर्तव्य मानूँगी। सहपाठियों के साथ भी मेरा व्यवहार शोभनीय होगा।

आपको अपमानित करने के अधम अपराध के लिये मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ। आपके द्वारा प्रस्तावित कठोर से कठोर दंड भी मेरे लिये तबर्रुक की भाँति पवित्र और गृहणीय होगा। प्रायश्चित के दंड की प्रतीक्षा में,

आपकी शिष्या,

अरशीन

माफ़ीनामें में दिये गये वचनों से उनको बहुत संतोष मिला। अभी वह अपनी प्रतिक्रिया प्रकट भी न कर पाये थे कि अरशीनबोल पड़ी, “गुरु जी मेरे प्रायश्चित के लिये दंड निश्चित कर दीजिए।”

गुरु जी ने उत्तर दिया, “तुम्हारे द्वारा दिये गये वचनों का अनुपालन ही तुम्हारा प्रायश्चित है।”

पहली बार अरशीन ने अपने वचनों के प्रति गंभीरता दिखाई। कक्षा ग्यारह के बचे हुये सात महीनों में उसने विद्यालय के नियमों का पालन किया और किसी को भी शिकायत का अवसर नहीं दिया।

नये सत्र के दूसरे महीने में स्टूडेंट-काउंसिल के पदों के लिये विद्यार्थियों का चयन होना था। इस प्रयोजन के लिये, वरिष्ठ अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं पर आधारित एक समिति का गठन किया गया था। गुरु जी भी इसके सदस्य थे लेकिन वह समिति की बैठक में भाग न ले सके क्योंकि उन्हें बोर्ड द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में भाषण देने जाना था।

चयन समिति के कई सदस्यों का मानना था कि अरशीन के व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन को देखते हुये उसके उत्साहवर्धक के लिये उसे कम से कम प्रिफ़ेक्ट का पद अवश्य दिया जाना चाहिये। लेकिन अरुणिमा मैम ने इस प्रस्ताव का विरोध यह कर किया कि वह हमारे विद्यालय के वयोवृद्ध गुरु जी के साथ अभद्र व्यवहार कर चुकी है। उसकी इस अभद्रता को भुलाया नहीं जाना चाहिए। अरशीन को कोई भी पद देने का निर्णय विद्यार्थियों के अनुशासन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।

अरशीन ने मुनमुन से बातचीत कम कर दी थी। माफ़ीनामा लिखते समय भी उसने मुनमुन से परामर्श नहीं लिया था। लेकिन चूंकि दोनों के घर पास-पास थे और उनके पारिवारिक सम्बंध भी थे इसलिये अरशीन के लिए मुनमुन से पूर्णतया संबंध विच्छेद करना संभव न था।

उसी रात अरुणिमा मैम अरशीन की मम्मी से कह रही थीं, “मैंने बहुत कोशिश की कि अरशीन को कम से कम प्रिफ़ेक्ट बना दिया जाये लेकिन माफ़ीनामे के कारण कुछ न हो सका।”

अरशीन ने पूछा, “क्या गुरु जी भी चयन समिति के सदस्य थे?” अरुणिमा मैम ने उत्तर दिया, “सारे वरिष्ठ अध्यापक चयन समिति के सदस्य होते हैं।” अरुणिमा मैम का यह कूटनीतिक उत्तर अरशीन की समझ से परे था।

अरशीन ने आश्चर्यचकित होकर कहा, “ऐसा कैसे हो सकता है? गुरु जी मेरा विरोध नहीं कर सकते।”

अरुणिमा मैम बालीं, “ऐसा ही हुआ है। वह अपमान की बात को भूले नहीं हैं। उन्होंने तुमसे बदला लिया है। उस माफ़ीनामे से गुरु जी तुम्हें और भी हानि पहुँचा सकते हैं। उसके कारण तुम्हारा आचरण प्रमाण पत्र भी प्रभावित हो सकता है।”

अरशीन अति दुखी मन से बोली, “गुरु जी मुझे बहुत मानते हैं, वह ऐसा नहीं करेंगे।”

मुनमुन पास ही बैठी थी, बोली, “उनकी नियत में खोट है। यदि ऐसा न होता तो वह माफ़ीनामा लेते ही क्यों, पढ़ कर वापस न कर देते।”

उसका मन मानने को तैयार नहीं था कि गुरु जी उसके साथ छल कर सकते हैं लेकिन सारे तथ्य गुरु जी के विरुद्ध जा रहे थे। अरशीन को लगा मुनमुन की बातों में सच्चाई है। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। घबरा कर उसने अरुणिमा मैम को देखा और बोली, “आंटी बताइये अब क्या करें?”

अरुणिमा मैम ने कहा, “इसमें घबराने या परेशान होने की कोई बात नहीं। कल जब स्कूल जाना तो उनसे माफ़ीनामा वापस मांग लेना” और आगे यह भी जोड़ दिया, “देखो वापस देते भी हैं या नहीं”। यह बात केवल उन्हीं को ज्ञात थी कि गुरु जी प्रधानाचार्या के आदेश के कारण माफ़ीनामा वापस नहीं कर सकते थे। उनके अंतिम वाक्य ने अरशीन को बुरी तरह डरा दिया।

उसकी सारी रात रोते और टहलते गुज़री। विचारों की आंधियाँ कभी आशा के फूल लातीं कभी निराशा के पतझड़।

अगले दिन स्कूल पहुंचते ही वह गुरु जी के पास गई। गुरु जी उसकी हालत देखकर चिंतित हुए और पूछा, “क्या बात है बहुत परेशान लग रही हो। सब ठीक तो है ना?”

उत्तर में वह जल्दी से बोली, “गुरु जी मेरा माफ़ीनामा वापस कर दीजिये।”

गुरु जी बोले, “माफ़ीनामे के लिये इतनी चिंतित क्यों हो। मिल जाएगा।”

अरशीन ने प्रश्न किया, “गुरु जी क्या आप भी चयन समिति के सदस्य थे?”

गुरु जी ने उत्तर दिया, “हाँ मैं भी सदस्य था लेकिन......”

अभी वह अपनी बात पूरी भी न कर पाये थे कि अरशीन बोल पड़ी, “गुरु जी मुझे अच्छा बनने से क्या मिला। मैंने आप पर कितना विश्वास किया मुझे क्या मिला। कौंसिल में मुझे एक भी आफ़िस नहीं मिला।”

गुरु जी बोले, “मैं कुछ नहीं कर सकता था क्योंकि.....”

अरशीन गुरु जी की बात काटते हुये बोली, “गुरु जी आप बहुत कुछ कर सकते थे। आपकी बात कोई नहीं टालता है।”

गुरु जी ने उसे रोकने की कोशिश करते हुये बोले, “मेरी बात सुने बिना तुम अपनी बात कहे जा रही हो।”

वह जल्दी जल्दी बोली, “गुरु जी अब सुनने के लिए बचा ही क्या है। गुरु जी प्लीज़ माफ़ीनामा वापस कर दीजिये। आप जानते हैं उस घटना के बाद से मैं पूरी तरह सुधर गई हूँ। जब भी मैं आप के साथ अपने दुर्व्यवहार के बारे में सोचती हूँ मुझे आत्मग्लानि होने लगती है।”

गुरु जी को याद था कि प्रधानार्चाया ने उनसे माफ़ीनामे को ठीक से रखने के लिये कहा था। अपनी ओर से उन्होंने सोच रखा था कि प्रीर्बोड परीक्षा के बाद वह उसे माफी-नामा वापस कर देंगे।

उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया, “तुम्हारा माफ़ीनामा विद्यालय की संपत्ति है। प्रीर्बोड परीक्षा के बाद मैं तुमको वापस कर दूँगा।

अरशीन यह कहते हुए कि, “कोई विश्वास योग्य नहीं”, बाहर निकल गई।

गुरु जी उसके अप्रत्याशित एवं विचित्र व्यवहार को समझ नहीं पा रहे थे।

अरशीन ने गुरु जी की बातों को अरुणिमा मैम की बातों से मिलाया। उसका विश्वास पक्का हो गया कि गुरु जी के कारण ही उसे कोई पद नहीं मिल सका है।

अगले दिन दोनों परिवार यह तय करने के लिये इकठ्ठा हुये कि गुरु जी से माफ़ीनामा कैसे निकलवाया जाये। अरुणिमा मैंम बोलीं “जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी ही करना पड़ती है। वह बहुत ढीठ हैं। बातों से नहीं मानेंगे। वह अरशीन को अकारण परेशान कर रहे हैं। माफ़ीनामे को किसी भी तरह निकलवा लेना ही अच्छा है। आप लोगों को चाहिये कि गुरु जी पर नाबालिग़ बालिका से अभद्र व्यवहार करने का केस चला दें।”

अरशीन ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुये कहा, “मैं गुरु जी पर इतना बड़ा और झूठा आरोप नहीं लगा सकती। उन्होंने हमेशा मुझे बेटी का प्यार दिया है। मैं यह नहीं कर सकती।”

फिर कुछ सोच कर बोली, “आंटी एक बार आप गुरु जी से बात कर के देखिये या प्रिंसपल मैम से कहलवाइये, हो सकता है वह माफ़ीनामा वापस कर दें।”

अरुणिमा मैम बोलीं, “तुम क्या समझती हो, क्या मैंने कोशिश नहीं की? मैं सब करके हार चुकी हूँ। तुम लोगों को मेरी सलाह मानना है तो मानों नहीं मानना है तो न मानो। माफ़ीनामे को लेकर अगर उन्होंने किसी इक्ज़ामिनर से प्रेक्टिकल में नम्बर कम करवाये तो मैं तुम्हारी कोई सहायता न कर पाऊँगी। बस इतना ही नहीं, भविष्य में जब तुम उच्च शिक्षा के लिये प्रवेश लेने की कोशिश करोगी तो उस समय भी इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। इस माफ़ीनामे के कारण तुम्हारा भविष्य असुरक्षित है।”

 अरशीन का परिवार पैसे की ओर से मजबूत था। उसके पिता के चिकन के कई काख़ाने थे लेकिन वह लोग अधिक शिक्षित नहीं थे। वे शिक्षा जगत की ऊँच नीच और नियमों आदि से परिचित नहीं थे। इसके अतिरिक्त वह अरुणिमा मैम पर बहुत विश्वास करते थे। इन कारणों से वह वार्तालाप में भाग नहीं ले रहे थे। पर प्रेक्टिकल के नम्बरों की बात सुन कर वह भी चिंतित हो गये। अरशीन भी चुप हो गई।

तीर निशाने पर लगता देख अरुणिमा मैम बालीं, “हम लोग गुरु जी को सज़ा थोड़ी ही दिलवाना चाहते हैं। बस इतना चाहते हैं कि केस से डर कर वह माफ़ीनामा वापस कर दें। यह निश्चित है कि केस शुरु होते ही वह माफ़ीनामा वापस कर देंगे।”


दो दिनों बाद गुरु जी के पास अदालती नोटिस आ गई।

अदालत में आरोप पत्र पढ़ कर सुनाया गया। उन पर अश्लील ठंग से अरशीन के गाल और पीठ छूने का आरोप था। जब जज ने अरशीन से पूछा कि क्या गुरु जी पर लगाये गये आरोप सही हैं तो उसने सर झुकाए झुकाए हलके से हाँ में सर हिला दिया।

और इस घटना की गवाह थी मुनमुन।

प्राधानार्चाया को जब इस घटना की जानकारी मिली तो वह स्तब्ध रह गईं। उन्होंने गुरु जी से कहा कि आप माफ़ीनामा तुरंत वापस कर दीजिये और उससे केस वापस लेने के लिये कहिये।

गुरु जी ने माफ़ीनामा ढूँढा लेकिन नहीं मिला। यह बात उन्होंने किसी को बताई भी नहीं। उन्होंने सोचा कि उनकी स्मर्ण शक्ति कमज़ोर हो गई है। कहीं रख कर भूल गये हैं।

अरशीनसमेत सब को आर्श्चय था कि गुरु जी माफ़ीनामा वापस ना करके बात को क्यों बढ़ा रहे हैं।

हर तारीख़ से पहले वह यही सोचते थे कि पचास साल पढ़ाने के बाद शिक्षा जगत से क्या उनको यही बदनामी और तिरस्कार का उपहार मिलना था? हर तारीख़ से पहले उनके मन में आत्महत्या का विचार आता लेकिन यह सोच कर रह जाते कि आत्महत्या करने से लोग उन्हीं को दोषी मानेंगे। वह चाहते थे कि अदालत उन्हें बाइज़्ज़त बरी करे।

अरशीन जब अदालत में गुरु जी की मार्मिक हालत देखती, वोह ग्लानि से भर जाती। उसका मन होता कि धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये। कई बार उसके मन में आया कि वह जज को सारी बातें सच सच बात बता दे किंतु सब के दबाव के कारण वह ऐसा न कर सकी। हर ओर से निराश होकर उसने गुरु जी के बाइज़्ज़त बरी होने के लिए पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ना शुरु कर दी थी और हर नमाज़ के बाद वह रो रो कर गुरु जी के लिए दुआ करती।

माफ़ीनामा उन्हें निर्दोष सिद्ध करने का सब से शक्तिशाली दस्तावेज़ था। अरशीन ने माफ़ीनामे में स्वीकारा था कि वह गुरु जी के साथ बुरा बर्ताव करती रही है और झूठे आरोप लगाती रही है।

सरकारी वकील को भी गुरु जी के साथ सहानुभूति थी। उसने गुरु जी से कहा आप माफ़ीनामा ले आइये मैं उस पर जिरह नहीं करूँगा। सरकारी वकील की बात सुन कर अरशीन की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसको लगा कि ख़ुदा ने उसकी दुआ क़ुबूल कर ली है।

एकबार फिर माफ़ीनामे की खोज शुरु हुई। माफ़ीनामा ढूँढ़ने में विद्यालय और घर एक कर दिया गया लेकिन उसे न मिलना था न मिला।

निर्णय हो चुका था।


उसी शाम ‘संध्या समाचार’ का अंक लिये मुनमुन अरशीन के सामने खड़ी कह रही थी, “किसी ने भी यह न सोचा था कि गुरु जी इतने कायर निकलेंगे।” अरशीन काँप उठी। गुरु जी ने ऐसा क्यों किया? कल अदालत में माफ़ीनामा पेश करके वह बरी हो ही जाते। मन में उठने वाले यह प्रश्न उसने मुनमुन के सामने भी रख दिये।

मुनमुन बोली, “वह माफ़ीनामा अदालत में कैसे पेश कर सकते थे। केस शुरु होने से पहले ही मैंने माफ़ीनामा उनकी अलमारी से निकाल लिया था। यह लो माफ़ीनामा। अब तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है।”


रात की तन्हाई में अरशीन एक नोट लिख रही थीः

'गुरु जी मैं आपके पास आ रही हूँ, यह पूछने के लिये कि मैं इस अंतिम अपराध का प्रायश्चित कैसे करूँ।'



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