लॉक डाउन से उपजी दूरियां...
लॉक डाउन से उपजी दूरियां...
डायरी से....
"अब समय ही नहीं मिलता यार!"...ये लाइन कितनी ही बार मन ही मन दुहरायी है कि कोई पूछे "तुम अब पहले जैसे बात क्यों नहीं करती?" तो बस यही एक जुमला निकले मुंह से।
बीते साल, पूरे साल (मार्च 2020 से अप्रैल 2021 आखिर तक ) जिस हद तक जिस्म, जहन और जिगर में बेइंतहा दर्द दौड़ता रहा(न्यूरो प्रॉब्लम, बेडरेस्ट , अवसाद, अकेलापन) कुतरता, चीड़ फाड़ करता रहा धीरे धीरे हर खास रिशते को ...उसका खामियाजा आज... मैं खुद और शायद मेरे कुछ करीबी बेकसूर(?!) लोग भी भुगत रहे हैं। शायद यूँ की अब यकीन नहीं रहा की कभी किसी ने यकीनी तौर पर करीबी माना हो, ओकेशनली तो कोई भी मुस्करा कर देख ले।
कोरोना, लॉक डाउन और उस बीच बढ़ती संवादहीनता/संवेदनहीनता ने जिस तरह से गलतफहमियों की दीवारें और कहीं-कहीं गहरी खाइयां अस्तित्व में ला दी हैं, वो अब... मुश्किल सी लगती हैं कि कभी गिरें या भरें। क्योंकि समय बहुत बह चुका।
हमारी नई परिस्थितिजन्य सोच और निष्कर्ष बेहद दम घोंटू माहौल में उपजे है। और सब मानेंगे ही कि विकट परिस्थितियों में उगा कोई भी कैक्टस सा अनुभव लंबे समय तक अपनी चुभन महसूस कराता ही रहता है।
मैंने कहीं कहीं देखा है लोगों ने यादों में इन कैक्टस को इतने सलीके से सजाया है कि मानो उन्हें आनंद आता है या फिर वे आदि हो गए हैं टॉक्सिसिटी के।
मेरे जेहन में भी तमाम शिकवे, शिकायतें हैं मेरे चंद अजीजों के लिए। मगर दिल आदतन अब भी बस रिसते हुए मुस्कराता है उनकी ओर। उनके लिए छांव भी रखता है दिल की देहरी पर लेकिन कहीं अंदर की अपनी ही बनाई दलदल में फंस कर शर्मिंदा न हो जाये ..ये दिल उन्हें अनुमति नहीं देता प्रवेश करने की जबकि वहीं स्थापित किये थे कभी मैंने उनसे जुड़े जज्बात।
सच में, महसूस किया है की एक डर, एक अविश्वास सा मंडराता रहता है आस पास कि मुसीबत में इनमें से कोई पास न होगा..खुद ही खुद को सम्भालना होगा । यह अहसास एक तरफ जहां मजबूत करता है अन्तस् को वहीं रिक्त करता चलता है रिश्तों में ज़रा बची आत्मीयता की भावना को।
मुझे कहा किसी ने कि उसको कहीं बेहद डर लग रहा है। मानो एक अघोषित आपातकाल सा चल रहा है रिश्तों-अहसासों का... जाने अनजाने ही कृत्रिम से होते जा रहे हैं , और ये और बहुत नुकसान पहुंचा रहा है... "फॉसिल" होते जा रहे उपेक्षित हृदय की कोमलता को। अगर कभी वर्षों बाद यदि किसी को सुध आयी, तो "फॉइलाइज़्ड " हृदय पर कुछ चिह्नों को देख कर रो तो नहीं देंगे न...सब अकेले, अपने-अपने एकांत में।
ख़ैर जो हुआ वो न अपने हाथ था और जो होगा न वो अपने हाथ। किसी को क्या दिलासा दूं।शायद ये एक तरीका रहा हो ऊपरवाले का सीखाने का की " खुद की कद्र करो"। सो , बस वर्तमान में रहते हुए इस जुमले में ही सुकून देती हूँ कि "अब समय ही नहीं मिलता यार!"
तो बस यही जुमला आगे बढ़ा देती हूँ ..किसी मंत्र सा।जरा सा भरम बना रहता है रिश्तों में रिश्तों का।
06/07/2021
1:00 PMहरिद्वार।