क्यों

क्यों

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घर की ज़िम्मेदार बहू थी, सुधा। बड़े से लेकर छोटे तक सबका ख्याल रखती। किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देती थी। पर फिर भी कई बार असहज हो जाती थी। कई बार जब घर के अन्य सदस्य बैठ कर बातें कर रहे होते , उसके आते ही चुप हो जाते। सुधा को लगता , अभी शादी हुई है शायद इसलिए। 'समय लगेगा ' , कह कर खुद को समझा लेती । समय बीतता चला जा रहा था। जब उसकी ननद सीमा की शादी हुई तब भी सास ने उसके गहनों में से कुछ गहने दे दिए। यहां तक कि उसके मायके का सेट भी दे दिया। सुधा ने कुछ नहीं कहा, ये सोचकर कि हम एक परिवार है । वह सबके लिए नि स्वार्थ भाव से करती रही।

पर वह असहजता खतम ही नहीं हो रही थी। पतिदेव नीरज तो मौन दर्शक बने देखते रहते। सुधा ने जब भी कुछ कहना चाहा तो इतना कसके डपट दिया कि उसकी हिम्मत नहीं पड़ी, उसके बाद। उसने भी सब कुछ समय पर छोड़ दिया । कुछ रिश्ते समय आने पर ही असर दिखाते हैं। वैसे परिवार में सब ठीक ही चल रहा था। ससुर जी की तबीयत एक दिन अचानक खराब हो गई। जांच में पता चला कि उनकी एक किडनी खराब हो गई है। जल्दी डोनर मिल नहीं रहा था। सारे टेस्ट करवाए गए तो सुधा का ब्लड ग्रुप मिल गया और उसने भी सहर्ष हामी भर दी। यह सोचकर कि अपने पिता के लिए भी तो वह यही करती।

सब लोग उसके आभारी थे और उसकी प्रशंसा भी कर रहे थे। पर वह असहजता अभी भी महसूस करती थी। ससुर जी के मेडिकल का सारा खर्चा नीरज के ऑफिस से वापिस मिल जाना था। वह कुछ कागज देख रही थी तभी उस में नीरज के बीमा के काग़ज़ मिले जो उन्होंने कुछ दिन पहले ही करवाया था, वह काग़ज़ देखकर हैरान रह गई। पति ने नॉमिनी में अपनी माता और उनके न रहने पर अपने पिता का नाम लिखवाया था। बस, उस दिन उसका माथा कुछ ठनका। उसने अपने आस - पास की चीज़ों का ध्यान रखना शुरू कर दिया।

एक दिन रात के खाने के बाद सब लोग बातें कर रहे थे और सुधा रसोई साफ़ कर रही थी। तभी पति का फोन बजा, फोन कमरे में था तो वह बैठक में देने चली गई। उसने देखा, सब लोग उसके बारे में ही बात कर रहे हैं। उसकी सास बोल रही थी," बहुओं के हाथ में रुपए - पैसे नहीं रखने चाहिए, वरना फिर ये सुनेंगी नहीं।। मैंने तो बड़ी होशियारी से उसके मायके के गहने भी सीमा के शादी में दिलवा दिए और यहां के गहने अपने पास रखे हैं। कभी दूंगी नहीं उसे।" ससुर जी भी बोले," सही कह रही हो, पैसे से तो मजबूती आती है। फिर ये सर चढ़ के बोलेंगी। चलो, उसने अपनी किडनी भी दे दी।

हमारे तो सारे पैसे बच गए।" उसे उम्मीद थी कि उसका पति नीरज तो कुछ बोलेगा, वह भी बोला," हां मां, सही कहा आपने । तभी तो मैंने अपने सारे अकाउंट में, बीमे में आप लोगों का नाम पड़वा रखा है, उसका नाम नहीं। यहां तक कि मैंने जो नया मकान खरीदा है वो भी आपके ही नाम है, उसका नाम कहीं नहीं लिखवाया ।" सास ने कहा, "हां बेटा, बहुएं आती तो दूसरे घर से ही हैं, पता नहीं अपने मायके क्या दे दें? इनको तो खाली ही रखना चाहिए।" ये सारी बातें सुनकर सुधा को ऐसा लगा जैसे कान में किसी ने गरम सीसा उड़ेल दिया हो। क्या परिवार को अपनाना सिर्फ बहू का फ़र्ज़ होता है? ससुराल वालों का कोई फ़र्ज़ नहीं होता कि जो लड़की अपना घर - परिवार सब कुछ छोड़ कर आई है, उसको भी प्यार और अपनत्व मिले। क्यों इतना सब करके भी वह आज तक पराई है ? क्यों ?


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