कुर्की
कुर्की
अभी यह क्या गाज गिरी घर पर हे भगवान, यह कौन सा दिन दिखाया आपने। कहां तो शादी की गहमागहमी और कहां कुर्की का यह नोटिस। खैरियत थी कि शादी निपट
गई थी, लड़की सारे सामान के साथ विदा हो गई थी। वर-विदाई से समधी और बाराती प्रसन्न थे। लेकिन इस आफ़त की घड़ी में बाबा कहीं गायब हो गये थे।
कुर्की करने वाले आ गये थे और एक-एक सामान घर से हटाया जा रहा था और बाबा नि:शब्द घर के सामने वाले टीले पर बैठकर खून के आंसू रो रहे थे। जब उनके प्यारे गाय-बैलों को हांक कर लें जाया गया तो बाबा की आँखों में कुर्की का खौफ छा गया।
बाबा को हर जगह खोजा जा रहा था पर वो कहीं दिख नहीं रहे थे। घर में चीख-पुकार मची थी। सारी औरतें रोने में लगी थी, वो समझ ही नहीं पा रहीं थीं कि करूं क्या।
बेटी की शादी में बाबा ने सरकारी कर्ज लिया था। और समय पर चुका नहीं पाये थे।
इधर घर वालों पर तिहरी मार पड़ी थी। एक तो लाडली बेटी की विदाई, दूसरे सारे सामान से खाली घर और सबसे महत्वपूर्ण बाबा का गायब हो जाना।
दादी का तो रोते-रोते बुरा हाल था, वो रह-रह कर मुर्छित हो रही थीं। आने वाले मेहमान धीरे-धीरे जाने की तैयारी में लग गये। वे सब रिश्तेदार बाबा-दादी से इस हंगामें से नाराज़ थे। कहां उन्हें लगता था कि, विदाई के वक्त उन्हें खूब अच्छे कपड़े और टीके में हजार-दो हजार रुपए मिलेंगे, कहां इस आफ़त में फंसना पड़ा। अगर वो रूक गये तो कहीं घर वालों की मदद न करनी पड़े। धीरे-धीरे सारे रिश्तेदार एक-एक कर रवाना हो गए।
बहुत रात बितने पर बाबा घर तो आये पर, नीम पागलों की तरह।उनकी आँखें बिल्कुल लाल और सुजी हुईं थीं। वे हाथों से अपने गाय-बैलों को उनका नाम ले-लेकर हांकते चले आ रहे थे। तरह-तरह की आकृति और मुद्रा से वे अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे थे।
उनके बहू-बेटे, बेटी दामाद सब चिंतित थे। उन्हें घर भी खाली करना था। न पास में पैसा और न खाने को अन्न का दाना और नहीं रहने को ठिकाना। बड़ी बिकट स्थिति थी। वे सब बाबा और दादी को लेकर नीम के पेड़ के नीचे आ गये। बाबा वहीं चबुतरे पर बैठकर अपनी काल्पनिक बातों में डूब गये और दादी को धूप में लिटा दिया गया।
तभी उनके घर की पुरानी दाई एक घड़ा और कुछ खाने का सामान लेकर आयी। उसने खाने का सामान हलवाई से लिया था क्योंकि वह जानती थी कि वे लोग उसका छूआ नहीं खायेंगे।
पहले छोटे बच्चों को खिलाया गया फिर सब लोगों ने खाना खाया। दाई उन सब को अपने घर ले गई और क्षमा मांगते हुए उसने कुछ रूपये बाबा के बड़े बेटे को यह कहकर दिया कि, ये सब उन्हीं के घर में शादी के नेग में मिले पैसे हैं, इससे कुछ दिन काम चल जायेगा।
बाबा के दोनों बेटों ने मिलकर पुआल इक्कठा किया, बहुओं ने रास्ते में पड़े गोबर को इकट्ठा किया और उन दोनों को मिलाकर उपले बनाये। सुखने पर उनकी दाई ने बाजार में उन्हें बेंच दिया। कुछ पैसे हाथ में आने पर कुछ पुआल खरीदे गए और पुनः उपले बनाये गये इस बार अच्छे दाम मिले।
अब दोनों भाइयों ने गेहूं और धान की फसल कट जाने के बाद खेतों से उनकी खुदाई करके जड़ समेत पराली निकाल ली और फिर उपले बनाये अब तो खेत वाले भी खुश। वे पराली जलाने से बच भी गये थे और मुफ्त में खेत खुदकर अगली फसल के लिए तैयार भी हो गये थे।
अब स्थिति धीरे-धीरे सुधर रही थी तभी उनकी दाई ने प्रस्ताव रखा कि अगर वो लोग उसका यह घर खरीद लें और उसे एक कोने में जगह दे दें तो कैसा रहेगा वैसे भी उसका कोई नहीं है और पैसा भी धीरे-धीरे वे देते रहें जब मुल्य चुकता हो जायेगा तब वो घर उनका हो जायेगा। यह तो वरदान था उन सब के लिए। दादी ने दाई को अपने सीने से चिपका लिया और रोने लगीं।
कहते हैं न माॅं लक्ष्मी मेहनतकश लोगों के पास रहती हैं, बस यही सार्थक हो रहा था। धीरे-धीरे उन दोनों भाइयों ने वो मकान खरीद लिया बच्चों को स्कुल में नाम लिखवा दिया। अब लोग उनसे मेल-मिलाप बढा़ने लगे पर परिवार ने इतनी मुसीबत झेली थी कि अब वो सब समझ चुके थे, कि जो विपदा में काम दे वही अपना है।
बस एक ही जगह वो मायूस हो जाते थे और वह थी बाबा की हालत जिसमें रत्ती भर भी फर्क नहीं था।बाबा की आँखों में बसा वह कुर्की होते दृश्य का खौफ। समय बढ़ता गया।
आज बाबा के पोती की शादी थी।उन दोनों भाइयों ने श्यामा और भूरी दो गायें खरीदी थी, दो जोड़ी बैल थे और दो भैंसें भी दरवाजे पर बंधी थी। उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार को नहीं बुलाया था। अपने सहयोगियों को सपरिवार बुलाया था। गांव में किसी को निमंत्रण नहीं दिया गया था।
दादी दाई के सहयोग से छोटे-छोटे काम कर रही थीं। आंगन में मंडप गड़ा था, शादी के गीत गाए जा रहे थे। तभी बाबा अपने कमरे से बाहर निकले और यह सब देखकर तुरंत दौड़ते हुये बाहर आये। वह श्यामा और भूरी को गले लगाकर रोने लगे, उनकी स्मृति लौट आई थी। फिर अंदर जाकर उन्होंने दादी से कहा- “मालकिनी कोई कुर्की नहीं हुई है। मैंने शायद कोई बुरा सपना देखा था।”
अब बाबा की आँखों से कुर्की का वह खौफ निकल गया था। और दाई तो दादी की बहन बन गईं थीं।