कुमाता भाग १७
कुमाता भाग १७
महाराज दशरथ की अनजाने में हुई भूल सुधारकर आखिर संसार के नियंत्रा धरती पर अवतरित हुए। माना जाता है कि अधर्म का अंत कर धर्म स्थापना करने की इच्छा ही भगवान को नर रूप में धरा पर ले आयी। पर शायद यह आंशिक ही सत्य है। जो मात्र अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण कर देते हैं, सृष्टि का अंत कर देते हैं, जिनकी शक्तियों का कोई पार नहीं है, जिनके चरित्रों को वेद भी नेति नेति कहकर पुकारते हैं, वह केवल अधर्मियों के नाश के लिये ही धरती पर आये, यह परिकल्पना पूरी नहीं लगती।
भगवान धरती पर अवतरित होते हैं ताकि उनके उन चरित्रों का चिंतन कर सामान्य मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकें। युगों युगों तक अपने पावन चरित्र से भक्तों के मन में बसने के लिये ही भगवान धरा पर अवतरित होते हैं।दुष्टों का सहार तो बाद में पर साधुओं का परित्राण उनका प्रथम लक्ष्य होता है। ऐसा ही श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में बताया है।
भगवान धरती पर आये माता कौशल्या के गर्भ से। पर उन्हें अपना हर तरीके से पुत्र स्वीकार किया, माता कैकेयी ने। कैकेयी राम के लिये खुद को भी भूल गयी। दिन हो या रात, कैकेयी का एक ही काम, राम की चिंता करना। राम को स्नान कराना, वस्त्र पहनाना, श्रंगार करना, दूध पिलाना, खिलाना, लोरी सुनाकर सुलाना सभी कुछ तो माता कैकेयी करती थीं।
राम कभी चांद की मांग करते तो कभी तितलियों की देख उनकी याचना करते। बालक राम की अनोखी मांगों को माता कैकेयी ही पूरी करतीं। बचपन से ही खेलकूद का अभ्यास करने बाली कैकेयी के लिये तितलियों को पकड़ना कठिन न था। धरती पर जल में चंद्रमा को परछाई में उतारना माता कैकेयी की बाल मनोवैज्ञानिक समझ का परिचय देता। महारानी कैकेयी जो खुद बचपन से माता के प्रेम से बंचित थी, माॅ बनने के बाद अपने पुत्रों को अपने प्रेम से सींच रही थी। निश्चित ही चारों पुत्रों के प्रति उनका प्रेम समान न था। मनुष्य कभी भी सभी से बराबर प्रेम नहीं कर सकता। यह मानव का स्वभाव है। पर कैकेयी के प्रेम का मुख्य पात्र राम थे, यह उसकी महानता थी।
बच्चों के साथ माॅ एक बार फिर से अपना बचपन जीती है। कैकेयी ने अपना बचपन जीने में कोई कंजूसी नहीं की। पर साथ ही साथ माता का धर्म निभाने में भी पीछे नहीं रही। बच्चों को कितना प्रेम देना चाहिये, इसका भी एक समीकरण है। सही समय पर संस्कारों की और अनुशासन की शिक्षा देनी आवश्यक है। माता ही तो संतान की प्रथम गुरु होती है। बचपन में दिये गये संस्कार जीवन भर मिटते नहीं है। बालमन पर जो भी छापा जाता है, वह पत्थर की लकीर बन जाता है।
विद्या केवल जीवन जीने का साधन नहीं होती है। उससे बहुत आगे विद्या मुक्ति का मार्ग होती है। यह मुक्ति शव्द भी एक विस्तृत अर्थी शव्द है। शायद मुक्त वही है जो संसार में जीता है तो परोपकार के लिये। जिसके जीने का उद्देश्य कभी भी खुद की खुशी नहीं होती। जो अन्याय के खिलाफ खड़ा रहे। जो कमजोर की शक्ति बन जाये। वही मुक्त है। माता कैकेयी की विद्या उसी मुक्ति का मार्ग थी।
वैसे भक्त और भगवान का मिलन मुक्ति माना जाता है। पर भगवान को भी मुक्ति चाहने के लिये विद्या की आवश्यकता होती है। जो उन्हें प्रदान की माता कैकेयी ने।
माता कैकेयी की विद्या जिससे शिक्षित राम न केवल खुद को मुक्त करेंगें, अपितु अनेकों गलत धारणाओं से समाज को मुक्त करेंगें। धोखे से शील खोने बाली स्त्री को सामाजिक बदनामी के बंधन से मुक्त कर उसे भी समाज में सम्मान दिलायेंगें। यह वही विद्या है जिससे शिक्षित श्री राम भविष्य में दलितों को भी गले लगा सकेंगें। यह वही विद्या है जिससे शिक्षित श्री राम भील जाति की स्त्री को भी माॅ के समान आदर दे सकेंगें। यही तो वह शिक्षा थी जिससे शिक्षित श्री राम शक्तिशाली अन्यायी के खिलाफ खड़े होकर उसका प्रतिकार कर पायेंगें। यही वह विद्या थी जिससे शिक्षित श्री राम वानर और भालु नाम से परिचित जंगली जातियों को संगठित कर पायेंगें। यही तो वह विद्या थी जो धरती पर नर रूप में अवतरित नारायण को यथार्थ में नारायण बना देगी।
क्रमशः अगले भाग में
