Piyush Goel

Classics

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कृष्ण व सुदामा की मित्रता

कृष्ण व सुदामा की मित्रता

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भगवान कृष्ण ने कंस का वध कर मथुरा को कंस से मुक्ति दिलवा दी अब वह गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण कर रहे है तब वह एक ब्राह्मण कुमार के पास जाकर बैठ गए और उन्होंने उस ब्राह्मण कुमार से बड़े ही प्रेम भाव से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है तब ब्राह्मण कुमार ने उत्तर दिया कि मेरा नाम सुदामा है । उत्तर सुनकर भगवान ने सुदामा के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा । यह सुनकर सुदामा हैरान रह गए उन्होंने कृष्ण से बड़े ही आश्चर्य में पूछा मुझसे मित्रता ? क्या तुम एक दरिद्र ब्राह्मण कुमार को अपना मित्र बनाओगे ? यह सुनकर कृष्ण हस पड़े उन्होंने सुदामा की ओर अति प्रेम भाव से देखा ओर कहा कि मित्र ! मित्रता में अमीर गरीब नही होता और जहाँ अमीर गरीब होता है वहा मित्रता नही होती । तुम्हे अब मेरा मित्रता प्रस्ताव स्वीकार है । सुदामा खुश हुए । उन्होंने कृष्ण को मित्र कहकर अपने गले से लगा लिया । 


इस प्रकार कृष्ण और सुदामा में मित्रता हो गयी ।यह कथा का प्रथम भाग है । इस कथा का आरम्भ कृष्ण व सुदामा की दोस्ती से ही होता है । 

एक बार गुरुमाता ने सुदामा ओर कृष्ण को गुरुमाता ने बुलाया तब 


कृष्ण : "प्रणाम गुरुमाता"


गुरुमाता : "आयुष्मान भव :"


सुदामा : "प्रणाम गुरुमाता"


गुरुमाता : "आयुष्मान भव : "


कृष्ण : "आपने हमे यहां किस प्रयोजन से बुलाया ?" 


गुरुमाता : "वत्स ! मैंने तुम्हें यहां एक विशेष कार्य हेतु बुलाया है । "


कृष्ण : "आज्ञा दे देवी ! "


गुरुमाता :" वत्स ! तुम दोनों को वन में जाकर लकड़िया लेकर आनी है और यह कुछ चने लेलो दोनों मिल बाटकर खा लेना ।"


कृष्ण :" जैसी आपकी इच्छा ।" 


गुरुमाता : "ठीक है अब तुम चले जाओ ।" 


कृष्ण व सुदामा : "प्रणाम गुरु माता ।" 


तब कृष्ण व सुदामा दोनों चले जाते है ओर वह फिर लकड़ी लेने के लिए वन में भटकते हैं तब चने की पोथली सुदामा के पास थी । अचानक काफी तेज बारिश आ गई तब कृष्ण व सुदामा दोनों अलग अलग पेड़ पर चढ़ गए । वहां पर सुदामा को भूख लग गयी तब सुदामा ने अपने हिस्से के चने खा लिए । उसे वह चने अच्छे लगे तब उसके मन में लालच आ गया ओर उसने कृष्ण के हिस्से के भी चावल खा लिए । कृष्ण यह बात जानते थे पर उन्होंने सुदामा को नही बताई । 

इसी वजह से सुदामा को गरीबी का सामना करना पड़ा ।समय बीता और कृष्ण व सुदामा दोनों ही बड़े हो गए ।भगवान द्वारिकाधीश बन गए और सुदामा अपने कुकर्मो के कारण एक दरिद्र ब्राह्मण । 


एक बार भगवान कृष्ण अपने कक्ष में वेदना भरा संगीत बजा रहे होते है । उनकी यह वेदना भरा संगीत सुनकर् रुक्मिणी जाग जाती है और वह भगवान के कक्ष में आकर भगवान से पूछती है कि "हे दीनानाथ ! हे कृपानिधान ! आप आज अपनी मधुर बांसुरी की जगह यह इतना दुखद संगीत क्यो बज रहे हैं ?" तब भगवान बोले कि "रुक्मिणी ! बचपन मे हमारा एक मित्र था जिसका नाम था सुदामा । आज वह काफी दरिद्र है और मैं चाहकर भी उसकी सहायता नही कर सकता ।" यह सुनकर रुक्मिणी हैरान रह जाती है और पूछती है कि "सृष्टि रचने वाले को कैसी विवशता ?" तब भगवान कहते है की "रुक्मिणी ! जब तक वह न चाहे मैं उसकी सहायता नही कर सकता । वह मुझसे कुछ नही मांगता फिर मैं कैसे दूं ? यदि वो मुझसे सहायता मांगने के विषय मे सोचे भी तो मैं उसे त्रिलोक भेंट कर दूं ।तब रुक्मिणी कहती है कि "प्रभु ! ऐसा कितना दरिद्र है आपका मित्र ? तब भगवान कहते है देवी ! तुम स्वयम ही देखलो ।" 


तब भगवान रुक्मिणी को दिखाते है -


सुदामा व उसकी पत्नी वसुंधरा एक साथ बैठे होते है तब उनका पुत्र वहां आ जाता है ओर् कहता है खीर दो न माँ ! यह सुनकर वसुंधरा घबरा जाती है । क्योंकि घर मे खाने को कुछ नही था । पीने को बस एक लोटा पानी था । अब अपने पुत्र को दे तो क्या दे ? तब वसुंधरा कहती है कि पुत्र ! अभी तो सो जाओ । कल बनाउंगी । तब पुत्र सो जाता है फिर सुदामा वसुंधरा से पूछते है की कह तो दिया पर लाएंगे कहा से ? इतनी दरिद्रता में तो हम खीर के लिए एक चावल तक नही ला सकते । पूरी खीर कहा से लाएं ? तब सुदामा बोले कि भिक्षा मांग कर गुजारा करते हैं। कोई यजमान तो होगा जो खीर दे दे । तब वसुंधरा कहती है कि आप तो बस पांच घरों में ही भिक्षा लेने के लिए जाते हैं तो आप खीर कैसे लाएंगे ? तब सुदामा कहते हैं कि शास्त्रो में बस पांच घरों से ही भिक्षा लेने का विधान है । उन्होंने जितना दिया उतना ही सही । फिर एक आस के साथ सुदामा व उसकी पत्नी वसुंधरा सो जाते हैं।  

   

अब सुदामा जाग उठा तो वह भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ा । सुदामा अपने कर्मो का दंड भोग रहा था । इसलिए जब उसने भिक्षा मांगना आरम्भ किया तब शुरु के चार घरों में तो उसे भिक्षा नही मिली फिर वह पाँचवे घर में जा पहुचा । उसे कही न कही यह आशा तो थी कि उसे पांचवे घर मे भिक्षा मिल जाएगी । पर उसे यह आशा नही थी कि बालक के लिए खीर मिल जाएगी । वह पांचवे घर में जाता है और भिक्षा मांगता है तब एक माता जी बाहर आती हैं उनके हाथ मे एक खीर का भगोना होता है वह भगोना माता जी सुदामा को सोपति है और कहती है आज अपने पुत्र को खीर खिलाना । एक काम करो पास वाले घर मे चले जाओ वहाँपर तुम्हे एक मुफ्त नई धोती मिल जाएगी । तब सुदामा उत्तर देता है की माता जी आज के पांच घर पूर्ण हुए ओर अब मैं छठवे घर मे नही जा सकता तब माता जी कहती है ठिकहै ब्राह्मण देवता जैसी आपकी मर्जी । सुदामा प्रसन्न हुए । और वह आगे बढ़ने लगे । परन्तु कहा जाता है न कि भाग्य से ज्यादा न किसी को मिला न किसी को मिलेगा और सुदामा के साथ भी यही हुआ । जब सुदामा आगे बढ़ रहे थे तब उनकी ओर एक अनियंत्रित घोड़े की टक्कर हो गयी । जिसके कारण सुदामा के हाथ से खीर का भगोना गिर गया ओर वह खीर  कुत्ते ने चाट ली ।यह था भाग्य का खेल!


सुदामा अब अगले दिन भिक्षा लेने के लिए निकल पड़ा । सुदामा पहले घर मे जाता है और वहाँ पर भिक्षा मांगता है तभी कोई शख्स पालकी में सवार हो या रहा है जब उसने सुदामा को देखा तो वह वहां रुका ओर उसका नाम था चक्रदर जो कि सुदामा का मित्र था ।


जब चक्रदर ने सुदामा को देखा तो उसने अपनी पालकी रोकदी ओर सुदामा को प्रेमजनक भाव में मित्र कहकर पुकारा तब सुदामा पीछे मुड़े ओर वह भी चक्रदर को देख अति प्रसन्न हुए । सुदामा बोले चक्रदर ! तुम्हे पालकी में देख अति प्रसन्नता हुई तब चक्रदर बोले ओर तुम्हे इस दशा में देख बिल्कुल भी प्रसन्नता नही हुई तब सुदामा बोले कि यह तो मेरे कर्मो का फल है । तब चक्रदर ने कहा की तुम मेरे साथ चलो राजा के दरबार मे ओर उसकी झूठी प्रसन्नता करो । वह खुश होकर तुम्हे अवश्य धन देगा । मैंने इतना धन वही से कमाया है । तब सुदामा बोले कि चक्रदर तुम एक ब्राह्मण हो और ब्राह्मण का कर्तव्य राजा को सही रहा दिखाना है न कि उसकी झूठी प्रशंसा करने का । तब चक्रदर बोले कि तुम ये कैसी विक्षिप्त जैसी बातें करते हो । चलो मेरे साथ उस राजा के दरबार मे चलो । 


सुदामा दरिद्र अवश्य थे पर वह अपने सिद्धांतों के भी पक्के थे । उनके जनहीँ सिधान्तो के कारण वह अबतक भगवान कृष्ण के पास नही गए । सुदामा उस राजा के पास जाना बिल्कुल भी नही चाहते थे क्योंकि उन्हें किसी की भी झूठी प्रशंसा करना स्वीकार नही था । अंत मे सुदामा ने चक्रदर के साथ जाने के लिए मना कर दिया । 


चक्रदर भी सुदामा के मित्र थे । उन्होंने भी मन मे निश्चय कर लिया कि वह सुदामा को उस राजा के पास लेकर जाकर ही रहेंगे । अब यह मित्र प्रेम ही था ।

चक्रदर अब सुदामा के घर आ गए । तब उन्होंने सुदामा की पत्नी वसुंधरा को समस्त घटना कर्म से अवगत कराया तब वसुंधरा ने सुदामा को राजा के पास जाने के लिए विवश करा । सुदामा भी चले गए पर वह कांपते गए । उन्हें काफी ज्यादा डर लग रहा था । 


सुदामा राजा के दरबार मे जा पहुचे तब राजा अपनी रानी के साथ प्रेम लीला में मग्न था । चक्रदर ने राजा की प्रशंसा में झूठा काव्य पाठ किया । तब राजा ने सुदामा से काव्य पाठ करने के लिए कहा पर सुदामा ने तय हरी गान करना आरंभ कर दिया । जिससे राजा को क्रोध आ गया और तब उसके सेवक उसे धक्का मार मार कर सीढ़ियों तक ले गए ओर सेवको ने सुदामा को सीढ़ियों से धक्का दे दिया ।

   

सुदामा जब अपमानित होकर अपने घर मे आ गए तब उनकी पत्नी वसुंधरा को अपनी भूल का एहसास हुआ । उसने सुदामा से क्षमा याचना करी तब सुदामा ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा - हे वसुन्धरे ! तुम्हे क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नही है । तुमने तो जो कहा वो तो परीवार की खुशी के लिए कहा । यह सुनकर वसुंधरा बोली की आप मेरे खातिर उस राजा के पास जा सकते है तो क्या आप मेरे ही खातिर अपने बचपन के मित्र कृष्ण जो कि अब द्वारिकाधीश है उनके पास नही जा सकते ? यह सुनकर सुदामा के पाव तले से जमीन घिसक गयी । उन्होंने वसुंधरा से कहा - वसुंधरा ! बिपति पड़े पर द्वार मित्र के न जाइए । तब वसुंधरा ने इसका अर्थ पूछा तब सुदामा बोले कि वसुंधरा ! इसका अर्थ है कि जब विपदा आती है तब द्वार मित्र के नही जाते तब वसुंधरा बोली - क्यो ? आप ऐसा क्यों कहा रहे हो ? मित्र के द्वार जाने में आपत्ति ही क्या है ? तब सुदामा बोले कि मित्र के द्वार जाने में तो कोई आपत्ति नही है पर मित्र के द्वार तभी जाना चाहिए जब हम भी उसकी मदद कर सके । ऐसे ही पत्नी के बार बार कहने पर सुदामा द्वारका जाने के लिए तैयार हो गए । तब उनकी पत्नी ने पड़ोस से चावल लाकर सुदामा को दे दिए और कहा कि मित्र के द्वार खाली हाथ तो नही जा सकते तो ये एक पोथली चावल ही ले जाओ 

 फिर सुदामा द्वारका के लिए रवाना हो गए ।


अब सुदामा घर से द्वारका जाने के लिए निकल तो पड़े परन्तु समस्य यह थी कि अब द्वारिका जाने का मार्ग को बताए । सुदामा भटक रहे थे तभी भगवान ने अपनी लीला रची ओर स्वयम ही मनुष्य का रूप धारण कर आ गए और वह सुदामा को द्वारका भी ले आए और फिर भगवान वहां से चले गए । 

सुदामा द्वारका तो पहुच गए परन्तु अब विडम्बना थी कि राजभवन तक कैसे जाया जाए । वह नगरी माया से भरपूर थी और हो भी क्यो न ?वह स्वयम मायापति की नगरी थी तो उसमें माया तो होनी ही थी । वहां कोई दरिद्र नही था । हर किसी के पास घर नही बल्कि बड़े बड़े महल थे जिनमें से राजा का महल कोनसा है यह बताना अति कठिन था । तब सुदामा ने एक गाँव वाले से द्वारिकाधीश का पता पूछा तब उस गाँव वाले ने सुदामा की दशा देखी और कहने लगा कि तुम्हे द्वारिकाधीश से क्यो मिलना है ? तब सुदामा कहते है कि द्वारिकाधीश मेरे बचपन के मित्र है । तब गाँव वाले ने सुदामा को विक्षिप्त समझा ओर वह आगे बढ़ गया । हर कोई सुदामा पर हस्ता था । तब भगवान ने लीला रची ओर सुदामा महल में आ गए वहाँपर उन्हें द्वारपालों ने रोक दीया तब सुदामा की बार बार विनती करने पर कोई द्वारपाल भगवान के पास चला जाता है ।


भगवान कृष्ण अपने सिंघासन पर बैठे थे । रानिया केश सज्जा कर रही होती है तभी द्वारपाल भगवान के समक्ष आता है और कहता है कि द्वारिकाधीश ! द्वार पे कोई ब्राह्मण खड़ा है तब कृष्ण कहते है कि ब्राह्मण को हमारे महल में आने के लिए अनुमति की आवश्यकता कब से पड़ने लगी ? तब द्वारपाल बताता है कि प्रभु ! वह विक्षिप्त भी लगता है तब भगवान पूछते है की तुम ऐसा कैसे कह सकते हो । तब द्वारपाल कहता है की प्रभु ! वो अपने आप को आप का मित्र कहता है । तब भगवान कहते है की द्वारपाल ! तुम आधी अधूरी बाते कह रहे हो । तुम मुझे उसका उचित वर्णन दो । तब द्वारपाल कहता है -प्रभु ! उसकी धोती फ़टी हुई है । उसने तन पर कपड़ा नही पहन रखा और वह आपका धाम पूछते हुए अपना नाम सुदामा बता रहा है ।


सुदामा का नाम सुनते ही भगवान व्याकुल से हो उठे और वह बिना मुकुट व पादुकाएं पहने ही सुदामा से मिलने के लिए दौड़ पड़े । वह किसी की भी नही सुनते । वह इस प्रकार दौड़े जा रहे थे जैसे कोई हवा का झोंका हो । हर कोई यह दृश्य देख रहा था पर कोई समझ नही पा रहा था कि आखिर बिना मुकुट व बिना पादुका भगवान कहा जा रहे थे । भगवान की लीला किसी को समझ नही आ रही थी । कृष्ण कभी गिरते है तो कभी पड़ते है पर रुकते नही । वह कभी द्वारपाल तो कभी दासियो से टकराते है । इस समय उनके लिए मात्र ओर मात्र उनका मित्र ही था । वह ओर कोई नाता नही जानते । श्याम नंगे पांव थे ओर वह मित्र से भेट के लिए एक तपती रेत पर भी पैदल चल रहे थे । सुदामा ने दर्शन की आस खो दी थी ऑर् वह फिर द्वार से लौटने लगा । उसे देख समस्त द्वारिका वाले उसका उपहास करते है परन्तु भगवान कृष्ण सुदामा से मिलने आ जाते है और सुदामा को अपने गले से लगा लेते है ।


इस प्रकार हुआ कृष्ण व सुदामा मिलन ।


अब श्री कृष्ण सुदामा को अपने महल में ले आए । जब श्री कृष्ण सुदामा को लेकर आए तब सभी को अति आश्चर्य हुआ । हर कोई सोचने लगा कि प्रभु जिसके लिए हवा के झोंके के भांति जा रहे थे । वो एक दरिद्र ब्राह्मण है । कृष्ण को प्रसन्न देख समस्त रानिया भी अति प्रसन्न हुई । 


सर्वप्रथम भगवान ने स्वयम सुदामा के पग धोय इसके लिए उन्होंने परात में पानी मंगवाया तो सही परन्तु सुदामा की दिन दशा देख कर द्वारिकाधीश की आंखों से स्वयम ही जल झलक आया और उन्होंने सुदामा के पग भी अपने आसुओ से ही धोए


उसके बाद सेवको द्वारा सुदामा को स्नान करवाया गया उसके बाद सुदामा को नए वस्त्र दिए गए । 


सुदामा अपने कक्ष में थे तब उन्हें सहसा ही अपने चावलों का स्मरण हो आया उन्होंने वह पोथली निकली और वह सोचने लगा कि जहाँपर इतना ऐश्वर्य है । किसी को कोई समस्या नही है । वहाँपर मुझ जैसे गरीब के चावलों का क्या स्थान ? जहाँपर स्वयम नारायण विराजते हो , जहाँपर लक्ष्मी जी स्वयम पटरानी हो वहां मेरे चावलों का क्या दाम ? अगर हिम्मत कर मैं चावल कृष्ण को दे भी दु तो दास क्या कहेंगे ? व रानिया क्या सोचेगी ? 


यही सब विचार कर सुदामा अपनी पोथली को तकिए के नीचे छुपा रहे होते है उसी वक्त वहाँपर कृष्ण आ जाते है ओर वो सुदामा से कहते है कि क्या छुपा रहे हो सुदामा ? बताओ अवश्य ही कोई खाने पीने की वस्तु होगी । सुदामा चावल देना नही चाहते थे पर कृष्ण ने उनसे छीन लिए ओर वह चावल की पोथली हाथ में लेते हुए कहते है - मैं जानता था कि भाभी तुम्हे कभी खाली हाथ नही भेज सकती । यह तीन मुठी चावल पर तो मैं त्रिलोक न्योछावर कर दु । जब भगवान ने यह वचन सुनाए तो तीनों लोक कांपने लगे । भगवान ने पहली मुठी खाई ओर स्वर्ग का सुख सुदामा को दिया । भगवान ने दूसरी मुठी में पृथ्वी का ऐश्वर्य सुदामा का नाम किआ । 


भगवान तीसरी मुठी खाने ही वाले थे कि देवी रुक्मिणी ने भगवान को रोक दिया और कहा कि प्रभु ! हमने भी भोजन बनाया है । उसका भी मान रखिए । असल मे तो देवी रुक्मिणी ने भगवान को इसलिए रोका था क्योंकि उन्हें डर था कि कही प्रभु द्वारका को भी सुदामा को सौप दे । रुक्मिणी का यह भय मात्र कृष्ण व रुक्मिणी ही जानते थे । 


इस प्रकार प्रभु ने सुदामा को बिन मांगे ही सब कुछ दिया । 



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