किस्मत से “प्रेम”

किस्मत से “प्रेम”

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बात ज्यादा पुरानी तो नहीं है मगर लगता है कहानी लिखी जा सकती है। वैसे हो सकता है किसी को कहानी पूरी ना लगे पर अब जो है सो है।

हमेशा किस्मत से तो छत्तीस का आंकड़ा रहा है हमारा। और हम उससे लड़ने में लगे रहे है। वैसे लड़ना नहीं कहना चाहिये हम हमेशा पटखनी दे गिराये जाते है।

मगर फिर भी भीड़ने का मौका नहीं छोड़ते।

रिश्तों के मामले में भी कोई खास सहयोग रहा नहीं किस्मत का। ज्यादा बोलने बतियाते नहीं है किसी से हम। सेलेक्टेड ग्रुप होता है हमारा और अक्सर उधर भी अन बन हो जाती है। मोहब्बत जैसी चीज हमसे हो पायेगी कभी लगा ही नहीं।

जो न लगता है वही होता है।

मगर किसी कवि ने कहा है ना, “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ/करती हूँ ये गलत वाक्य है क्युंकि प्रेम करना कोई क्रिया नहीं है।” इस पर बस है क्या आपका? जिसपे बस ही नहीं वो किया कैसे?

ऐसा ही कुछ प्रेम छिटक कर मेरे हिस्से भी आ पड़ा। आकस्मिक था, पर खुबसूरत।

अक्सर आकस्मिक चीजें चरम होती है।

चरम या तो अत्यंत खुबसूरत या इतना बुरा की सोचने को जी ना चाहे। ये बात समझनी तो इतनी मुश्किल नहीं। समझना ये मुश्किल है की प्रेम सुन्दर है या नहीं।

खैर ये जजमेंट बिना प्रेम में आये नहीं दिया जा सकता। कोई भी जजमेंट बिना अपने आप को वहाँ रखे नहीं देना चाहिये।

लग रहा है हम कहानी कम लिख रहे है ज्ञान ज्यादा दे रहे है। मगर आज झेलना होगा क्यूंकि हमें भी नहीं मालूम हम क्या लिख रहे है और ये कहानी भी कहा जायेगी।

खैर कुछ दिनों पहले हमने फिर किस्मत से एक लड़ाई करने की कोशिश की। उस वक़्त भी मालूम नहीं था ऐसा कोई मोड़ आयेगा मगर कहा ना आकस्मिक..

जीवन में कभी हमको लव एट फ़र्स्ट साईट पे विश्वास नहीं हुआ मगर फिसल तो हम पहले दिन ही गये थे। कहना गलत नहीं होगा की आकर्षण प्रेम की नींव रखता है मगर प्रेम की स्थिरता इस बात पे निर्भर करती है की आकर्षण का प्रकार क्या है।

शारीरिक आकर्षण पूर्णत: प्रेम में बदल सकता है,

ये विवाद का विषय है पर मुझे नहीं लगता।

खैर आकर्षण को प्रेम मे परिवर्तित होते देखना भी अपने आप में विलक्षण अनुभव है। अलग किस्म की तड़प होती है उस दौरान। जैसे बुखार इंसान को अंदर से तड़प देता है ना। जब तक शरीर ना छुओ हालात ना अन्दाजा नहीं मिलता।

प्रेम भी कुछ ऐसा ही है…

प्रेम जैसे सबकुछ तोड़ वापस से जोड़ता है। जैसे पेड़ से कुर्सी। और टूटने पे दर्द होगा। असहनीय।

ये मामला तब और गेहराने लगता है जब आप सामने वाले को प्रेम का एहसास दिलाने की भरसक कोशिश कर रहे हो।

आपको हर वक़्त उसी शक्स का खयाल होता है पर आप कह नहीं पाते। कितना कहेंगे।

एक तो हाल ए दिल बताने में ही मौत आती है फिर ये सब कहना। अगर सामने वाला सुन भी ले तो अपना कहा उस पर बोझ लगने लगता है। आखिर किसी को कितना मजबुर करेंगे साहब मोहब्बत है मोल भाव थोड़े ही ना है।

फिर आप बहाने ढूंढेंगे बात करने के। और हर अल्फाज के साथ

एक सोच चलती रहेगी की कुछ ऐसा ना बोलते दे जो बुरा लग जाये। आज के दौर में ये काम बकायदा बैकस्पेस ने सम्भाला हुआ है।

खैर एक वक़्त आता है जब आप पूरी कोशिश करने लगते है की प्यार मोहब्बत का जिक्र ना आये मगर होना वही है जो लिखा है।

हाथ चलते है अनायास और जाने क्या क्या लिखा जाता है

लिखने के बाद एक दौर अफसोस का होता है जब आप अपने लिखे पे मंथन करते है। अक्सर शुरुआत नेगेटिव ही होती है, अब आयी गाली और हम हुए ब्लॉक मगर दिमाग का एक हिस्सा हर चीज के अच्छे पहलू को खींच कर निकालने की कोशिश करता है।

जाहिर है कुछ बनने से पहले उसकी बर्बादी का देखना पसंद नहीं करेंगे।

इंसान का क्या है वो कोशिश करता है बस। तब तक त्रिशंकु वाली स्थिती बनी रहती है।

अल्टीमेटली एक स्टेज आता है जब या तो आपका प्रेम स्वीकार हो जाता या आप रिजेक्ट हो जाते है।

“रिजेक्ट” ये वर्ड सुनते ही धक्का सा लगता है।

मगर इश्क़ का हिस्सा है ये।

और शायद हमरे जैसे लौन्डे तो मन के एक कोने में पहले से ही “रिजेक्टेड़ रिजेक्टेड़” की प्रतिध्वनी बजा रहे होते है। रिजल्ट पता होता है बस ऑफिशिअल अनाउन्समेंट बचा होता है।

हम पहले से ही ऑटो जेनेरेटेड़ फ्यूचर रखते है दिमाग में।

सब कुछ जैसे फिल्म की तरह होता है उधर। बना बनाया।

प्रेम में शायद वो शख्स ज्यादा खुबसूरत लगने लगता है। या आप उसकी खूबियाँ अतिशयोक्ति लगा कर देखते है।

“अरे हमसे बेहतर तो मिल ही जायेगा हमको ना मिलेगा कोई दूसरा मगर। लेकिन अब इस वजह से तुमको रोकेंगे थोड़े ना।

हम कहे ना किस्मत से छत्तिस का आंकड़ा है हमारा…”


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