खुशियाँ
खुशियाँ
पत्नी के निधन के बाद दीनानाथ जी को घर मानो काटने को दौड़ता था। उनकी ख़ुशियों का ध्यान रखने वाली उनकी पत्नी जानकी उनकी हर बात का ख्याल रखती कब उन्हें चाय पीना है और कब क्या खाना है, हर समय उसकी दुनिया दीनानाथ जी के इर्द गिर्द ही घूमती रहती। उसके चले जाने का दुख उन्हें एकदम अकेला कर दे रहा था। यह देख उनकी बहू आशु बहुत दुखी हो रही थी कि बाबूजी का हर तरफ से ध्यान रखने के बाद भी उनकी उदासी खत्म नही हो रही। आज वह बाबूजी और अपने पांच साल के बेटे को लेकर पार्क जाती है जहाँ उनके पुराने मित्र बैठे हैं, उन्ही में एक गिरीश हैं वो दीनानाथ को अपने साथ अन्य मित्रों के बीच ले जाते हैं और कहते हैं "ज़िन्दगी किसी के जाने से रुकती नहीं मेरे दोस्त, तुम्हारे साथ तुम्हारा पूरा परिवार है मेरा परिवार तो विदेश में बस गया, अब मैं क्या बैठ कर रोता रहूँगा ,नहीं कुछ दिन दुखी रहने के बाद मैंने अपनी ज़िंदगी की नई शुरुआत की है, रोज पार्क आता हूं , मित्रों के साथ कुछ हँस बोल लेता हूं शाम को कुछ कॉलेज के बच्चों को टयूशन भी पढ़ रहा हूं, मेरा समय कैसे निकल जाता है पता नहीं चलता, तू भी अपनी ख़ुशियाँ स्वयं में ही तलाश, ज़िन्दगी रो गाकर जाया करने से बेहतर है हम किसी सार्थक काम मे लगाएँ जो हमें आंतरिक खुशी भी दें।"
दीनानाथ जी को भी बात जंच गई घर जाकर बहू बेटे को सब बताया वे भी खुश थे और उनके हर निर्णय में उनके साथ। रात मुश्किल से कटी, नई सुबह दीनानाथ जी का बाँह पसारे स्वागत कर रही थी, सुबह पार्क के लिए निकले, एक घण्टा मित्रों के साथ अच्छा समय बीता दोपहर पोते के साथ खेले और शाम को गिरीश उनके द्वार पर थे पांच लड़के लड़कियों को लेकर --"आज से तुम्हें इन्हें मैथ्स की ट्यूशन देनी है " समय अच्छा कटा रात सपने में जानकी दिखी बहुत खुश थी वह कह रही थी अब आया तुम्हें ख़ुशियों को गले लगाना, कब से वह दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी और तुम उदास बैठे थे।
" हाँ जानकी मैं अब मैं वाकई खुश हूं ख़ुशियाँ मुझे ढूंढ रही थीं और मैं उन्हें देख नही पा रहा था।"