ख़ुशी के रंग
ख़ुशी के रंग
सरिता देवी, पैर के दर्द को अनदेखी कर दो दिनों से होली की तैयारी में जुटी हैं।इस बार बाज़ार नहीं जा पाने का कसक तो था लेकिन मन मसोस कर पुरानी साड़ी ही पहनने का मन बना लिया है।कोरोना के डर से कोई किसी के घर पर नहीं जा रहा...फिर भी पर्व मनाने के उत्साह में कोई कमी नहीं है।
“सुनो ,बाज़ार जाना तो ये सामान ला देना सामानों की लिस्ट पकड़ाते हुए सरिता ने पति से कहा।साल भर का त्योहार है इसी बहाने पकवान बन जाते हैं।
फ़ोन पकड़ाते हुए जितेंद्र से सरिता ने कहा “ध्यान कहाँ है आपका ?कब से बज रहा है...”
फ़ोन रखते हुए जितेंद्र ने कहा-“चलो चलो तैयारी कर लो गाँव चलते हैं...”
"क्या गाँव?क्या हुआ? कैसे ?कब ?क्यों ?"कई प्रश्न कर डाले सरिता ने।
हाँ !”अपनी गाड़ी से चलेंगे ड्राइवर मिल गया है।”कल सुबह -सुबह छ: बजे निकल चलेंगे।
“कुछ बताएँगे भी क्या हुआ ?”
इस बार होली वहीं मनाएँगे।जितेंद्र ने कहा तो सरिता का ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा।
"अच्छा सुनो अम्मा,बाबूजी के लिए कुछ कपड़े खरीद लेते हैं पिछले साल भी नहीं जा पाए थे।पूरे दो साल हो जाएँगे गए हुए ।"
“दो साल नहीं पूरे बीस साल हो जाएँगे “
“पहली होली के बाद हम अब बीस साल बाद तुम्हारे ससुराल नहीं मैं अपने ससुराल जाऊँगा।”
सरिता अवाक होकर जितेन्द्र का चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
“क्या देख रही हो ऐसे?”
आजतक तुमने कभी कहा ही नहीं...”मेरे परिवार और बच्चों के इर्द-गिर्द ही सारे ख़ुशी के रंग बाँटती रही।”
सरिता पति के इस रंग से वाक़िफ़ नहीं थी।अप्रत्याशित प्रेम के तोहफ़े से सराबोर सरिता मायके में आकर बिलकुल बचपन के रंग में रंग गई थी।