Kishan Dutt Sharma

Abstract Classics Inspirational

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Kishan Dutt Sharma

Abstract Classics Inspirational

खुश रहना व खुश करना

खुश रहना व खुश करना

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"स्वयं खुश/सन्तुष्ट होना और दूसरों को खुश/सन्तुष्ट करना"  - की वास्तविक प्रक्रिया को समझना अनिवार्य है। आखिर यह खुश रहना और दूसरों को खुश संतुष्ट करना है क्या? कृपया इस उपरोक्त वाक्यांश का मैं कुछ विश्लेषण और कुछ सटीक व्यावहारिक व्याख्या कर रहा हूं। यह केवल व्याख्या ही नहीं अपितु प्रैक्टिकल और मनोवैज्ञानिक अनुभव युक्त विवेचन है। इसलिए इसको नेगेटिव प्वाइंट ऑफ व्यू से नहीं लेना। मैं समझ सकता हूं कि जो पॉज़िटिव दृष्टिकोण वाले लोग इसे ठीक ठीक समझ सकेंगे वे इसको पॉज़िटिव रूप से ही समझेंगे। 

क्योंकि तथाकथित ज्ञानी लोगों के द्वारा अधिकांश बातों का गलत अर्थ लगा लिया जाता है। और फिर चालू हो जाती है अनेक प्रकार की व्यर्थ बातों की अंतहीन श्रंखला। व्यक्ति का खुद के व्यक्तित्व का अधूरापन, खालीपन का अनुभव, अल्पज्ञता और धन, पद, पोजिशन आदि का लोभ लोगों के स्वयं के संस्कारों और दृष्टिकोण में होता है, यह अकाट्य सत्य है। इसलिए ही जब व्यक्ति को स्वयं की अपूर्णता और असमर्थता का पता चलता है तब उसे यह भी पता चलता है कि कुछ गलत हो रहा है। अपनी इसी अपूर्णता, खालीपन को भरने के कोशिश के कारण ही छोटे और बड़े मनोविकार उत्पन्न होते हैं। उसके परिणामस्वरूप मनुष्य के विचार ओछे हो जाते हैं। उसके व्यवहार में नेगेटिव परिवर्तन आ जाता है। 

चाहे लौकिक जीवन हो, या अलौकिक हो, जब विभिन्न प्रकार की परिस्थितियां जीवन व्यवहार में आड़े आती है तो व्यक्ति अपनी अपूर्णता और असमर्थता अयोग्यता को ना देख दूसरों पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगता है। फिर एक अंतहीन श्रंखला का सिलसिला चालू हो जाता है। मनुष्यों का फाल्स ईगो भी कितना ज्यादा और बड़ा ही भ्रमकारक होता है। अरे साहब बात ही मत पूछिए। प्रत्येक व्यक्ति यही आकांक्षा रख कर चलता है कि मेरा पर्सनलाइज्ड ईगो जो दंभ के रूप में होता है, वह सेटिस्फाइड होना ही चाहिए। वह फिर रुकता ही नहीं, जब तक कि व्यक्ति स्वयं ही यह नहीं समझ ले कि उसका दंभ (snobbery) ही उससे कुछ गलत कर्म व्यवहार करवा रहा है। मनुष्य का यह व्यावहारिक घटियापन उसके स्वयं के जीवन का और अन्यों के जीवन का सुख चैन छीन लेता है। यह प्रक्रिया धीरे धीरे घटती है इसलिए व्यक्ति को पता नहीं चलता कि उसकी घटिया सोच और व्यहारिक घटियापन के कारण वह दूसरों का दुख चैन छीन रहा है। जब यही प्रतिक्रिया लौट कर उसके पास आने लगती है तब उसे पता चलता है कि जरूर मेरे अनैतिक नेगेटिव कर्म व्यवहार के कारण यह ऐसा हो रहा है। खैर इसमें उनकी किसी भी क्या ग़लती है। वे अपनी क्षमता योग्यता के अनुसार ही सोच समझ कर किसी विषय वस्तु का अर्थ समझ सकते हैं। इससे अन्यथा, इससे ज्यादा वे नहीं समझ सकते हैं। पास्ट की तुलना में वर्तमान समय विज्ञान के युग में मनुष्य पहले से बहुत ज्यादा जागरूक और ज्ञानवान हुआ है। इसलिए वह संसार और मनुष्य आत्माओं की विभिन्न मनो स्थितियों और परिस्थितियों को खुद समझ सकता है। इसलिए इस मनोवैज्ञानिक सत्य और प्रैक्टिकल अनुभव की बातों के ज्यादा विस्तार करने की जरूरत नहीं है। 

अब हम उपरोक्त मुख्य विषय पर आ जाते हैं। प्राय: ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश लोग अपने स्वयं को खुश व संतुष्ट रखने की बजाय दूसरों को खुश/संतुष्ट करने में अपनी ऊर्जा ज्यादा खर्च करते हैं। कौन कहता है कि पहले सभी को खुश करिए। परमात्मा तो कहते हैं कि स्वयं परिवर्तन से ही विश्व परिवर्तन होता है। ऐसा परमात्मा ने भी कभी नहीं कहा कि विश्व परिवर्तन से स्वयं परिवर्तन करो। अर्थात परमात्मा कहते हैं कि पहले स्वयं का परिवर्तन करिए। उसके बाद दूसरों का परिवर्तन करिए। अर्थात पहले स्वयं को खुश करिए। फिर उसके बाद दूसरों को खुश करिए। ठीक इसी प्रकार से ऐसा भी परमात्मा ने कभी भी नहीं कहा कि पहले दूसरों की सेवा करिए और फिर उसके बाद अपनी स्वयं की सेवा करिए। परमात्मा भी यही कहते हैं पहले खुद की सेवा करिए अर्थात पहले स्वयं की आत्म उन्नति कीजिए। पहले स्वयं को ज्ञान गुण शक्तियों से संपन्न बनाईए। उसके बाद दूसरों को अपनी खुद की ज्ञान गुण शक्ति की संपन्नता से दूसरों की सेवा करिए। यह बात भी अकाट्य रूप से सत्य है कि पहले स्वयं के प्रति सेवा अनिवार्य रूप से हो फिर उसके बाद विश्व की (दूसरों की) सेवा में मनुष्य अपनी अलग अलग प्रकार की ऊर्जा यथा शक्ति इन्वेस्ट कर सकता है। अर्थात स्वयं की सेवा से विश्व की सेवा। अर्थात स्वयं की खुशी से सर्व को खुश करने की स्थिति तक पहुंचो। स्वयं खुश होंगे तो दूसरों को भी खुश कर सकेंगे। स्वयं गुण शक्तियों से सम्पन्न होंगे तो दूसरों को सम्पन्न कर सकेंगे। स्वयं की स्थिति अच्छी होगी तो दूसरों की स्थिति को भी अच्छा बना सकोगे। स्वयं की अच्छी स्थिति होने का भावार्थ है कि जीवन में जीवन के हर पहलू की अच्छी श्रेष्ठ स्थिति का होना। यानि कि चाहे कर्म क्षेत्र की व्यक्तिगत या सामाजिक कोई भी बात हो, वह सब पहले स्वयं से ही शुरू होती है। यानि कि चाहे दूसरों को खुश करने की बात हो या दूसरों की सेवा करने या दूसरों को संतुष्ट करने की बात हो, वह सब तब ही होता है जब व्यक्ति स्वयं उतनी और वैसी योग्यता अथवा क्षमता रखता हो। व्यक्ति की स्वयं की वैसी वैसी स्थिति हो। यदि व्यक्ति की स्वयं की वह उतनी गुणात्मक या स्थितियात्मक क्षमता योग्यता नहीं होती है तो.... वह दूसरों की सेवा क्या और कैसे करेगा ? अर्थात वह सम्भव नहीं होता है। 

लेकिन प्रैक्टिकल में प्रायः होता क्या है...?? परमात्मा क्या कहना चाहते हैं उसे ठीक तरह से लोग नहीं समझ पाते। परमात्मा ने बहु आयामी दृष्टिकोण से अलग अलग विषय पर बहुत कुछ कहा हुआ है। बहुत चंदेक लोग हैं जो परमात्मा की तथ्यात्मक बात को ठीक तरह सुनते समझते हैं। अधिकांश लोग केवल अंधाधुंद ही दूसरों की सेवा करने के पीछे दौड़ते रहते हैं। तथाकथित ज्ञानी भी दूसरे लोगों को अपने प्रवचनों में यही समझाते रहते है कि दूसरों की सेवा करो। सेवा के नाम पर अनेक प्रकार के प्रलोभन भी दिए चले जाते हैं। विश्व की सेवा करो। दूसरों की सेवा के बिना एक मिनट भी नहीं रहना चाहिए। वे तथाकथित शुभचिंतक लोग यह कभी नहीं कहते कि मेरे भाइयों और बहनों पहले स्वयं की सेवा करो, पहले स्वयं को समर्थ योग्य बनाओ तो आपके द्वारा यथा शक्ति दूसरों की सेवा अपने आप होती रहेगी। वे यह कभी नहीं कहते कि पहले सेवा करने के लिए पहले स्वयं के जीवन की पृष्ठभूमि तैयार करो।

यह एक वैश्विक स्थिति पैदा हो गई है। विश्व में सेवा करने वालों के अनेक काफिले निर्मित हो गए हैं। वे अपनी अपनी यथा शक्ति सेवा करते भी हैं। उनकी सेवा की कहीं ना कहीं परिस्थिति गत उपादेयता होती भी है। फिर भी इतिहास के अनुभवों के आंकड़े बताते हैं कि दूसरों की सेवा करते हुए भी व्यक्ति स्वयं खुश व संतुष्ट नहीं रह पाता। दूसरों की सेवा करते हुए भी व्यक्ति के जीवन में वह मृग मारीचिका जैसी अतृप्ति सी बनी रहती है। हमारे अपने जीवन के भी अनेक अनुभव भी ऐसे हैं जो इतिहास के आंकड़ों से बिल्कुल सहमत हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को यह समझने की जरूरत है कि पहले स्वयं खुद को खुश करना, पहले स्वयं को संतुष्ट सम्पन्न करना जीवन का अनिवार्य तत्थ है। यही सृष्टि की सृजनात्मकता और कार्यशैली का मनोविज्ञान है। जो व्यक्ति जितना स्वयं खुश संतुष्ट होगा वह व्यक्ति उतना ही दूसरों को भी खुश संतुष्ट कर सकेगा। यह जितने और उतने की मात्रा का व्यावहारिक मनो विज्ञान है। लेकिन अधिकांश लोग यह समझते ही नहीं। 

विगत इकत्तीश वर्षों का अनुभव यह कहता है कि कुछ तथाकथित बुद्धिमान लोगों के द्वारा ऐसी नादानी और नासमझी चलती रहती है। वे अपने भाषणों में निरन्तर रट लगाए रहते हैं कि सर्व की सेवा दूसरों का परिवर्तन करने में बिज़ी रहीए। लेकिन वे यह बताना नहीं चाहते कि दूसरों की सेवा कैसे हो सकती है, दूसरों को खुश कैसे किया जा सकता है। फिर होता यह है कि समाज में बहुत से नादान लोग जिनके माइंड falsified होकर कंडीशंड हो जाते हैं और वे सेवा में कूद पड़ते हैं। उन्हें निश दिन सेवा ही सेवा सूझती है और कुछ नहीं। कालांतर में वे इसका खामियाजा भुगतते हैं। उसके कालांतर में बड़े दुष्परिणाम होते हैं। यह बात जीवन विज्ञान की है और बड़ी प्रैक्टिकल और गहरे अनुभव की भी है। ज्यादा विस्तार में ना भी जाएं लेकिन अनुभव यह है कि ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान के सुनने और सुनाने की गुणवत्ता में भी आमूल चूल परिवर्तन करने की जरूरत है। क्योंकि अधूरा और अनकहा ज्ञान समाज के लिए बड़ा खतरनाक सिद्ध होता है। 

असल में कलयुग की स्थिति ही यह है कि कोई भी मनुष्य पूरी तरह से खुश व संतुष्ट नहीं है। आदि अनादि रूप से प्रत्येक मनुष्य की क्षमता और योग्यता है ही बहुत कम। तदनंतर अनादि वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य की उसकी अपनी सीमित क्षमता और योग्यता उसके अंतर्निहित संस्कारों (विचारों/दृष्टिकोण) में कैद (दबी) हुई पड़ी है। इसलिए संसार में अनेक प्रकार की प्रॉबलम हैं। अन्तर संबंधों की प्रॉबलम होने का एकमात्र कारण भी यही है कि मनुष्य की उसके संस्कारों की निश्चित प्रकार की क्षमता है। वह उससे ज्यादा या कम नहीं हो सकती। वर्तमान कलयुग के समय की हालत यह है कि अधिकांश लोग स्वयं से संतुष्ट या खुश नहीं हैं। वे अपने अन्तर सम्बन्धों में कुछ को खुश संतुष्ट कर पाते हैं और कुछ को खुश नहीं कर पाते हैं। यह हालत आत्मा की अनादि क्षमता के कारण है। यह स्थिति कमोवेश प्रत्येक मनुष्य आत्मा की है। इसलिए वह सभी को खुश संतुष्ट नहीं कर पाता। इसलिए ही वह दूसरों के साथ सद्व्यवहार भी नहीं कर पाता। क्योंकि आप कितने खुश हैं, कितने संतुष्ट हैं, कितने बुद्धिमान हैं, कितने आध्यात्मिक हैं, कितनी आपकी क्षमता है, कैसा आपका बहु आयामी सकारात्मक दृष्टिकोण है, यह हर व्यक्ति के, आपके व्यवहार से पता चलता है।

जब मनुष्य स्वयं खुश सम्पन्न संतुष्ट नहीं रह पाता और दूसरों को खुश नहीं कर पाता तो उसको एक प्रकार की इन्फ्रियोरिटी और असंतुष्टता का भाव घेर लेता है। फिर भी वह समझ नहीं पाता कि यह अन्दर के अध्यात्मिक खालीपन के कारण ऐसा हो रहा है। इसलिए वह स्वयं को और दूसरों को खुश करने के लिए अनेक प्रकार के आड़े टेढ़े तरीके भी अपनाता है। अनेक प्रकार के काम करने की कोशिश करता है दूसरों को खुश करने के लिए लेकिन फिर भी वह दूसरों को खुश नहीं कर पाता है। लाखों करोड़ों लोग ऐसा ही करने की कोशिश करते हैं। जब नहीं कर पाते तो फिर दूसरों पर नाराज़ होने, दूसरों के असंतुष्ट होने का भी आरोप लगाते हैं कि ये तो हैं ही ऐसे। लेकिन उन्हें यह पता नहीं होता कि लोग उनसे नाराज़ नहीं होते बल्कि उनके छोटे/ओछे विचार और अनैतिक व्यवहार आदि की अयोग्यता और कार्यशैली की कमजोरी के कारण उनसे खिन्न (नाराज़/नाखुश) होकर उनसे भिन्न हो जाते हैं। 

विश्व की पूरी वस्तुस्थिति को ज्ञानयुक्त होकर देखें तो यह जो भी जीवन है या पूरे विश्व में जो हो रहा है उसे हम हमारे जीवन का हिस्सा कह सकते हैं। क्योंकि विश्व की परिस्थिति किसी भी मनुष्य के उसके अपने नियंत्रण में नहीं है। विश्व हमारे परिवार और समाज की ही प्रतिछवि है। इसलिए मनुष्य के जीवन इसे जीवन का हिस्सा मानना ही होगा। इसे संसार की अनिवार्य परिस्थिति ही समझ कर स्वयं के मन बुद्धि को हल्का रखते हुए स्वयं पर काम किया जा सकता है। स्वयं को सशक्त बनाने का पुरुषार्थ किया जा सकता है। मनुष्य अपनी संज्ञान के अनुसार किस तरह का पुरुषार्थ करता कराता है वह बात अलग है। वह उसके स्वयं के दृष्टिकोण और शक्ति और सामर्थ्य के ऊपर निर्भर करता है।

यह जो भी वैश्विक स्थिति बनी हुई है यह विषमता और यह हर व्यक्ति के ज्ञान गुण शक्ति की योग्यता - अयोग्यता, क्षमता - अक्षमता की मात्रात्मक स्थिति का परिणाम है। यह भी एक अति आवश्यक प्रज्ञा है जिसे समझना भी जरूरी है ताकि हर मनुष्य को यह समझ बनी रहे कि व्यावहारिक जगत में कमी कमजोरी सिर्फ दूसरों के ही नहीं होती हैं, या दूसरों में ही नहीं होती हैं बल्कि गुणात्मक और मात्रात्मक कमी कमजोरी प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। प्रत्येक मनुष्य की अपूर्णता में उसकी अपनी कमी कमजोरियां होती ही हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य यह समझे कि उस प्रत्येक मनुष्य की लिस्ट में मैं भी आता/आती हूं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति यही समझ लें कि ऐसी स्थिति और परिस्थिति के लिए दूसरे लोग ही दोषी नहीं हैं बल्कि मैं भी हूं। कोई भी परिस्थिति चाहे वह समाज परिवार के स्तर पर होती है या राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय विश्व स्तर पर होती है, उसमें प्रत्येक व्यक्ति हिस्सेदार - जिम्मेदार होता है। समाज और कुछ नहीं, वह तो प्रतिछवी है परिवार की। विश्व परिस्थितिगत रूप से और कुछ नहीं, वह तो प्रतिछवि है समाज की। कोई भी अपने को इस हिस्सेदारी से अलग नहीं कर सकता। इससे अलग नहीं कह सकता। 

सांसारिक मान्यताओं के अनुसार बहु आयामी दृष्टिकोण से कमी कमजोरियां सर्व व्यापक रूप से विश्व में हैं ही। हमें उनको समझते हुए स्वयं के बहु आयामी पुरुषार्थ को ऐसा बनाते चलना चाहिए ताकि हम संपूर्णता तक पहुंचें। हालांकि किसी भी प्रकार की संपूर्णता जब धरातल पर प्रकट होती है तो उसमें भी अपुर्णता बरकरार रहती है। व्यक्ति की ( पूर्णता लेकिन अपूर्णता) (परफेक्ट but इम्परफेक्ट) की स्थिति से एक निश्चित समय परिस्थिति में एक निश्चित प्रकार के लोगों को खुश या संतुष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन वह निश्चित प्रकार की संपूर्णता वाली आत्माएं जितने भी और जिसके भी संबंध में आती हैं या ऐसी संपूर्णता वाली आत्माएं जैसे भी जिस भी जब भी कर्म क्षेत्र में दूसरों के सम्बंध सम्पर्क में आती हैं तो उस समय कर्म क्षेत्र में सभी को संतुष्ट करने या खुश करने में सक्षम होती हैं। 

प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता की सीमित ता को समझे। नहीं तो होता क्या है कि वादे इतने बड़े बड़े करना, डींगें इतनी बड़ी बड़ी हांकना, स्वमान और निर्मान की बड़ी बड़ी बातें करना और यदि प्रैक्टिकल में देखें तो धरातलीय हकीकत कुछ और ही होती है। इसे ही मनुष्य का दंभ (snobbery) कहते हैं। दुनिया की आधे से ज्यादा समस्याएं समाप्त हो जाएं यदि मनुष्य अपने दंभ को पहचान अपनी निश्चित सीमा में काम करने लग जाएं। अपने जीवन में प्रत्येक व्यक्ति यह स्पष्ट समझ ले और उचित समय पर उचित कार्य व्यवस्था में व्यक्त भी कर दे कि मेरी इतनी इतनी फिजिकल, मानसिक बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों की लिमिट है। मैं अपनी क्षमता के अनुसार इतना इतना यह यह सहजता से कर सकता/सकती हूं। इससे ज्यादा इससे अन्यथा मैं सहजता से नहीं कर सकता। उसके बाद अपनी शक्तियों और सामर्थ्य में निरन्तर वृद्धि करते हुए अपनी क्षमता की लिमिट को बढ़ाया जा सकता है और फिर यह फिर से स्पष्ट किया जा सकता है कि अब मेरी क्षमता बढ़ी है और अब मैं इतना और उतना करने में सक्षम हूं, वह बात ही दूसरी होती है। लेकिन मनुष्य अज्ञानता वश दंभ की चेतना का अनावश्यक और व्यर्थ बोझ अपने ऊपर उठाए रहता है और अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा करता है।

इस दुनिया की इनबिल्ट स्थिति ही ऐसी है कि इसमें यदि आप उजालों को खुश करेंगे तो अंधेरे आपसे नाराज़ (नाखुश) होंगे ही होंगे। यदि आप अंधेरों को खुश करेंगे तो उजाले नाखुश नाराज़ होंगे ही होंगे। मनुष्य की खुद की शक्तियों की अनादि और निश्चित प्रकार की क्षमता हैं। कोई भी मनुष्य सबको खुश नहीं कर सकता। स्वाभाविक है कि जो आपसे नाखुश नाराज़ होंगे उनसे आपको डिसलाइक या रिजेक्शन मिलेगा ही मिलेगा। ऐसा समझो कि दीपक तले अंधेरा रहेगा ही रहेगा। आत्माएं भी चैतन्य दीपकों की भांति हैं। चैतन्य आत्माओं रूपी दीपकों के भी अपने तले हैं। दीपकों के तले में अंधेरा रहेगा ही रहेगा। चैतन्य दीपकों के तले से अंधेरे (अज्ञान) को खत्म करने का कोई उपाय नहीं है। जब दीपक तले अंधेरे वाली स्थिति प्रत्येक मनुष्य चैतन्य आत्मा की है तो कुछ लोगों तक आपका खुशी रूपी प्रकाश पहुंचेगा और कुछ लोगों तक नहीं पहुंचेगा। चैतन्य दीपक का भी यदि तला (स्थूल व सूक्ष्म देह है) है तो एक निश्चित प्रकार के लोगों के साथ एक निश्चित प्रकार की नाराजगी अथवा दूरी रहेगी ही रहेगी। इसलिए स्वाभाविक है कि कुछ लोग आपसे खुश होंगे और कुछ लोग आपसे नाखुश। इस तरह लाईक और डिसलाइक, रिजेक्शन और एक्सेप्टेंस का यह अनवरत सिलसिला चलेगा ही चलेगा। केवल एक परमात्मा ही है जो सार्वभौमिक रूप से, चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक, सर्व को अन्यान्य रूप से स्वीकार्य है। उससे कोई नाराज़ नहीं होता। उससे कोई भी नाराज़ असंतुष्ट नहीं हो सकता। क्यों ? क्योंकि परमात्मा का कोई तला नहीं है। वह बिना तले का और बिना तेल का अनवरत जलने वाला अखण्ड दीपक है। उसके लिए ही कहा गया है "बिन बाती बिन तेल"। उसके पास कोई अंधेरा नहीं है। वह सदा जागती ज्योत (सदाशिव) है। 

यदि आप भी परमात्मा के जैसे परमात्मा अथवा परमात्मा के समान समकक्ष (बिन बाती बिन तेल) जैसी स्थिति वाले सदा जागृत चैतन्य बिन्दु बन जाते हैं तब तो आपसे कोई भी नाराज़ नाखुश नहीं होगा। वरना तो आपकी क्षमताओं की एक सीमा रहेगी ही रहेगी और यह निश्चित प्रकार की परिस्थिति स्थिति में निश्चित प्रकार के लोगों के साथ एक निश्चित प्रकार की नाराजगी और असंतुष्टता का सिलसिला हरेक के जीवन में कमोवेश जारी रहेगा ही रहेगा। अतः दूसरों को खुश संतुष्ट करने के लिए बहु आयामी पुरुषार्थ द्वारा जितना हो सके स्वयं को ज्यादा से ज्यादा खुश और सन्तुष्ट बनाइए। स्वयं की बहु आयामी संपन्नता अथवा स्वयं की सेवा से विश्व सेवा। स्वयं परिवर्तन से विश्व परिवर्तन।


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