खिड़कियाँ
खिड़कियाँ
अजीब किस्सा है इन खिड़कियों का भी, बाहर से अंदर झाँको तो जिंदगी जैसे क़ैद में मालूम देती है और अंदर से बाहर झाँको तो एक नई उम्मीद, रौशनी से भरी आज़ाद ज़िंदगी।
यूँ तो काठ की ये खिड़कियाँ कहती कुछ नहीं हैं लेकिन सुनती सबकुछ हैं, बड़ी ही खूबसूरती से बंद पल्लों में राज़, इज़्ज़त, शर्म, हया, हैवानियत, शोर, सिसकियां, आरज़ूएं, ख़्वाहिशें, चाहतें, सुख दुख और न जाने क्या क्या, सभी कुछ समेट लेती हैं भीतर अपने ख़ामोशी से।
इंतज़ार करती हैं फिर उस एक हवा के तेज झोंके का जो एक झटके से पल्लों को खोल दे और फेंक दे सबकुछ बाहर जो बस इस पल के इंतज़ार में दबे से बैठे थे, की कब ये झोंका आयेगा और खींचकर ले जायेगा ज़िंदगी को बाहर उस रौशनी में जहाँ उम्मीदें हैं, सपने हैं, उड़ने को आसमान है, पाने को मंज़िलें हैं, हासिल होती ख्वाहिशें हैं।
कभी देखा है उस छोटे बच्चे को जो हमेशा खिड़की पर बैठने की ज़िद करता है,
पता है क्यों?
क्योंकि उसको बाहर हर घड़ी एक नया मंज़र दिखता है और अगले पल उसे और बेहतर देखने की उम्मीद रहती है बस इसी लालच में वो खिड़की से चिपका रहता है।
या कभी देखा है एक माँ को खिड़की से घड़ी घड़ी बाहर झाँकते, सिर्फ इस उम्मीद में कि उसकी औलाद बस सलामत घर आती दिख जाये।
या फिर माशूक़ को जो खिड़की पर महबूब के दीदार की आस में नज़रें गढ़ाए बैठा रहता है।
ख़ैर, सबकी अपनी अपनी वजह हैं, लेकिन खिड़की और उसपर लगा वो झीना से पर्दा कहता तो कुछ नहीं है लेकिन जब भी हिलता है तो अंदर की मायूसी को बाहर की ताज़गी से ताज़ा कर जाता है, जैसे मानो कह रहा हो कि तुम हारना मत, तुम्हारी एक ख़ुशनुमा ज़िंदगी बस इस खिड़की के बाहर ही है, बस तुम्हें झाँककर देखना है और छोड़कर सबकुछ बस उड़ जाना है उस खुले आसमान में जहाँ सिर्फ तुम्हारे सपने तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं।
तो खिड़कियाँ खुली रखिये साहब, एक तरोताज़ा ज़िंदगी के झोंके को भीतर दाख़िल होकर गुदगुदाने दीजिए,
शायद यही तो चाहतीं हैं ये खिड़कियाँ भी जनाब।