Alok Singh

Inspirational

4.0  

Alok Singh

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सब्जीवाला

सब्जीवाला

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मंडी जाने का समय हो गया है, 

ज़िम्मेदारी के एहसास ने उसे आज फिर सोने नहीं दिया, सुबह के 3 बज रहे हैं और 4 बजे तक उसे मंडी पहुंचना ही होगा तभी वो बेहतर क्वालिटी की सब्जियां ले पायेगा और अगर चूक गया तो शायद आज के दिन भी वो उतना भी नहीं कमा सकेगा कि शाम को इंतज़ार कर रहे बच्चों को भरपेट खाना दे पाये।

इस ख़्याल ने उसकी रूह को एक झटके से हिला दिया, ये जानते हुए की चाहे वो भीड़ भरी मंडी हो या पूरे दिन गली गली भटकते हुए सब्जियां बेचना हो, सभी जगह एक कोरोना नाम का नश्तर है जिसके चुभने का डर और रोज़ उससे बचने की जद्दोजहद किसी जंग को जीतने से कम नहीं होती।

कोरोना के नश्तर से जान की बाज़ी खेलने उसने एक नज़र अपने सोते हुए मासूम बच्चों की तरफ डाली और फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर दुआ की, कि शाम को इस नश्तर की चुभन को अपने जिस्म पर लिए बग़ैर लौट आये चंद निवालों के साथ जो बैठकर परिवार के साथ खा सके बिना किसी ऐसे खौफ़ के जो उससे उसके परिवार को न लग जाये।

इस ख़ौफ़ को सिर्फ सोचकर देखिए आपकी रूह तक काँप जाएगी और सिहरन ठहर जाएगी वहीं भीतर ही कहीं।


क्या आप जानते हैं समाज का हर तबका चाहे वो डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिक्स, पुलिस, अर्धसैनिक बल या ऐसे ही और भी कर्मी हों, सबको ही किसी न किसी विशिष्ट संबोधनों से पुकारा जा रहा है और प्रोत्साहित किया जा रहा है, लेकिन,

सब्जीवाले शायद किसी संभ्रांत तबके से(ऐसी समाज में मौजूद संकीर्ण सोच के कारण) नहीं आते हैं तो, उनके इस रोज़ के संघर्ष को किसी भी कोरोना वारियर्स की कहानी और किरदारों में जगह नहीं मिली।

आपने सोचा है इतने ख़तरों के बावजूद वो सिर्फ उपेक्षा और शोषण का ही शिकार होता है, कभी राह चलते पुलिस वाले को सब्जी मुफ़्त में दो नहीं तो लाठी तो ऐवज में मिलनी तय है, वहाँ से जैसे तैसे छूटे तो छुटभैये नेताओं की गालियाँ, उन्हें नज़रंदाज़ कर आगे बढ़ता है क्योंकि ज़ेहन में राह देखता परिवार है।

एक घूँट ज़लालत और बेज़ारी के आँसू का उसने हलक़ से नीचे उतारा और गलियों में आवाज़ दी आलू है, भिंडी है, कद्दू है, लौकी है, हरी मिर्च है, और ताज़ी हरी सब्जी है…

भैया!!! ज़रा रुको तो, 

ये कैसे दिया, 

वो कैसे दिया, 

अरे बड़ा महँगा है,

कुछ सही लगाओ

अरे!!!

तुम लोगों ने तो लूट मचा रखी है, और कोई मिला नहीं सुबह से, साले सब चोर हैं,

 हैं बोलो,

मैं इससे एक पैसा ज़्यादा नहीं दूँगा, नहीं तो रहने दो।

अब उसके मन में एक अंतर्द्वंद्व है कि ज़्यादा मुनाफ़े के लिए यहाँ छोड़ूँ और आगे बढ़ूँ या फिर फटाफट बेचकर खत्म करूँ और थोड़े ही मुनाफ़े के साथ सुरक्षित घर पहुँचूँ।

सच बताइये क्या आप में से ने किसी ने आज तक इस दिशा में सोचने की ज़रूरत भी महसूस की???

शायद नहीं, क्योंकि वो आपकी सहानुभूति की फेहरिस्त में कभी था ही नहीं।

अगर ज़रा सी भी ग्लानि हुई हो तो निराश मत होइये वो कल फिर आयेगा और आवाज़ देगा आपको सब्ज़ी लेने के लिए, तो इस बार थोड़ी सी इज़्ज़त और संजीदगी से पेश आयें, उसकी रोज़ की लड़ाई में उससे ज़्यादा मोलभाव और बिना किसी इल्ज़ाम के थोड़ा ज़्यादा ही ख़रीद लिजिये ताकि वह भी आपकी तरह घर महफ़ूज़ पहुँच सके और सुकून से दो निवाले साथ में उनके खाकर सो सके, क्योंकि 3 बजे फिर उठना है और 4 बजे फिर कोरोना के नश्तर से बचते बचाते आप सब से होकर फिर उसी कालचक्र में लौटना है।

देखिए उसने फिर से आवाज़ दी है

"सब्जी ले लो ताजी हरी सब्जियां"


इस दिशा में सोचने के लिए मेरी पत्नी का धन्यवाद की उन्होंने इस तरफ ध्यान आकर्षित किया।



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