Vijayanand Singh

Romance

5.0  

Vijayanand Singh

Romance

ख़ामोशियों के स्वर

ख़ामोशियों के स्वर

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उस दिन सुबह एक भयानक शोर से अचानक उसकी नींद टूटी। खिड़की से बाहर देखा, तो उसके होश उड़ गये।। जोरों की बारिश हो रही थी और ऊपर पहाड़ों से पानी का एक विशाल रेला चट्टानों - पत्थरों को लिए हुए तेजी से नीचे की ओर आ रहा था - रास्ते में पड़ने वाले लोगों, घरों - मकानों, पेड़ों,सड़कों पर खड़ी गाड़ियों को पलक झपकते ही अपने तीव्र प्रवाह में लीलते हुए। जान बचाने की जद्दोजहद में तेज धार में बहते लोगों की कातर पुकार रूह तक को कंपा दे रही थी। वह संभलते हुए सीढ़ी से नीचे उतरा और माली - दरबानों को आवाज देते हुए मेन गेट की ओर भागा।जब ज़लज़ला थमा,तो नजरों के सामने थी भयंकर तबाही और टनों मलबे में तब्दील पहाड़ी धरती। मानव और प्रकृति के बीच अनादि काल से जारी संघर्ष में चाहे जीत के हजार दावे मनुष्य करता रहा हो, मगर जीत हमेशा प्रकृति की ही हुई है। प्रकृति मानव को लगातार उसकी कारस्तानियों की चेतावनी और सजा देती रही है - कभी भूकम्प,कभी सुनामी,कभी बाढ़,तो कभी केदारनाथ में हुए भयावह ज़लज़ले के रुप में।

सेना,सरकार और गैर-सरकारी संगठन आपदा प्रबंधन में युद्ध स्तर पर लग गये थे। स्कूल राहत शिविर में तब्दील हो गया था। वायुसेना के हेलिकाप्टर जगह-जगह पर फंसे लोगों को निकालकर शिविरों में पहुँचा रहे थे। लोगों को भोजन के पैकेट, पानी की बोतलें व दवाईयाँ भेजी जा रही थीं। एनजीओ " प्रयास " ने डॉ. नीलिमा के नेतृत्व में शिविरों में मेडिकल सुविधाओं एव साफ - सफाई की जिम्मेदारी बखूबी संभाल रखी थी। लोगों को ग्राउंड में बने टेंटों में ठहराया गया था। वह लोगों का हालचाल लेता,उनकी समस्याएँ सुनता और पूरा ध्यान रखता ताकि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा और परेशानी न हो। उसके सेवाभाव एवं स्नेहभरे व्यवहार से सभी अभिभूत थे। डॉ. नीलिमा दिन-रात उसके साथ शिविर में बीमार लोगों की तीमारदारी में लगी रहती। धीरे-धीरे वह महसूस करने लगी थी, मानो वह व्यक्ति किसी दूसरे की पीड़ा को नहीं, बल्कि अपने ही दर्द को जी रहा हो। वह उसके बारे में और जानने को उत्सुक हो उठी थी।       

वह सेना में कैप्टेन था...पोस्टिंग सुदूर जम्मू - कश्मीर सेक्टर में थी। शहर का दशहरा देखने की माँ - बाबूजी की बड़ी इच्छा थी, इसलिए छुट्टियों में वह घर आया हुआ था। शहरों में दुर्गा पूजा की रौनक ही अलग तरह की हुआ करती है.....बड़े-बड़े महलनुमा पंडाल, सुंदर, आकर्षक चलती-फिरती बोलती - सी मूर्त्तियाँ, लेड बल्बों की रंग-बिरंगी लड़ियों से जगमग संसार...सड़क किनारे सजी खिलौने - मिठाईयों की दुकानें, रंग - बिरंगे गुब्बारे, लाउडस्पीकरों से गूँजते देवी - गीत और लोगों का हुजूम। कदाचित् गाँवों की परंपरा से लुप्त हो चुके मेलों ने आधुनिकता की चादर ओढ़ शहरों की ओर रुख कर लिया है, और अब वह काफ़ी हाईटेक हो गयी हैं। वह बड़े उत्साह से पत्नी और माँ - बाबूजी को एक-एक पंडाल दिखा रहा था।

बस अब मुख्य चौराहे पर स्थित सबसे विशाल पंडाल ही देखना रह गया था। पत्नी-माँ-बाबूजी को पंडाल के अंदर भेज, गाड़ी पार्क कर ज्योंहि वह अंदर जाने को मुड़ा, कि एक जोरदार धमाका हुआ और पूरा इलाका थर्रा उठा...आसमान धुएँ और गुबार से भर गया... चीख-पुकार मच गयी। लोग बदहवास इधर-उधर भागने लगे। वह तेजी से भीड़ को चीरता हुआ...." सुरूचि - माँ - बाबूजी "...पुकारता हुआ जलते हुए पंडाल के अंदर दौड़ा। अंदर का दृश्य भयावह और दिल दहला देने वाला था - पूजा स्थल के पास लाशों के ढेर...चीथड़ों में जमीन पर पड़े लहूलूहान लोग और जिंदा - बेजान खंडित मूर्त्तियाँ पड़ी थीं।अचानक उसकी नजर सुरूचि की साड़ी पर पड़ी,तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। सुरुचि - माँ - बाबूजी क्षत-विक्षत अवस्था में एक-दूसरे का हाथ पकड़े पड़े हुए थे। तबाही के इस खौफनाक मंजर ने अचानक उसे पत्थर बना दिया था।

वह वापस अपनी ड्यूटी पर लौट चुका था...जम्मू सेक्टर...जहाँ पाकिस्तान से लगती सीमा से आतंकियों के घुसपैठ की आशंका हमेशा बनी रहती है। आतंकियों के प्रति उसका आक्रोश अब और बढ़ चुका था। वक्त ने उसे पहले से भी ज्यादा कठोर और क्रूर बना दिया था। उस दिन सुबह - सुबह अचानक सूचना मिली कि हथियारों से लैश चार - पाँच आतंकी आर्मी हेडक्वार्टर में घुस गये हैं। तुरंत पूरे एरिया को घेर लिया गया। कई घंटों तक दोनों ओर से लगातार फायरिंग होती रही। पूरे कैंट एरिया में दहशत का माहौल कायम हो गया था। अंतत: दो आतंकियों को मार गिराया गया। दो अभी भी बचे हुए थे। अचानक उसकी नजर झाड़ियों की ओट लेकर आर्मरी बिल्डिंग की ओर बढ़ते दो आतंकियों पर पड़ी।अपनी स्टेनगन से फायरिंग करते हुए वह तेजी से आगे बढ़ा। इसी बीच आतंकियों की ओर से फेंका गया एक ग्रेनेड उसके पास आकर फट जाता है....मगर तबतक वह दोनों आतंकियों को ढेर कर चुका था। 

आर्मी हास्पिटल में दूसरे दिन जब उसे होश आया,तो पता चला कि बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उसका बायाँ पैर काटा जा चुका था।

डिसेबल करार कर सेना ने उसे रिटायर कर दिया था। " जयपुर फुट " ने हालांकि उसे दोनों पैरों पर फिर से खड़ा तो कर दिया, मगर अब उसके लिए सबकुछ खत्म हो चुका था। हादसों के अंतहीन सिलसिलों ने उसे बुरी तरह तोड़ दिया था। दूर-दूर तक खालीपन के सिवा अब कुछ भी नहीं था। जिंदगी बोझ - सदृश लगने लगी थी और वह घोर निराशा के गर्त्त में डूबता जा रहा था। क्रूर नियति ने उसे अपनी पीड़ाओं के साथ तिल - तिलकर जीने के लिए छोड़ दिया था....दूर-दूर तक फैले सुनसान, वियाबान रेगिस्तान में.....जैसे किसी अनजान पथिक को अकेला छोड़ दिया गया हो। किसी तरह,अपनी संकल्प और जीवनी-शक्ति को बटोरते हुए..घर - खेत-जमीन...सबकुछ बेचकर, सेना की अपनी पुरानी पहचान को पीछे छोड़ते हुए शांति और सुकून की तलाश में जब उसने सुदूर उत्तरांचल के औली में " माउंटेन व्यू स्कूल " की शुरुआत की,तो लगा जैसे जीने का एक मकसद मिल गया हो। किसी के लिए जीने में कितनी आत्मिक और अलौकिक खुशी मिलती है, इसका उसे अनुमान ही तो नहीं था! बस..! तब से....यह स्कूल ही उसका जीवन और संसार....सब कुछ था।

युद्ध स्तर पर काम कर सेना ने सड़कों - रास्तों को दुरुस्त कर दिया था।आवागमन चालू हो चुका था। राहत शिविर धीरे - धीरे खाली हो रहे थे। मेन गेट के बाहर सिद्धांत सड़क पर जाते हुए लोगों के हुजूम और गाड़ियों के काफिलों को देख रहा था...ज़िंदगी का क़ाफिला यूँ ही चलता रहता है...नये रास्तों की ओर..नयी मंजिलों की ओर...मगर उसकी राह की तो कोई मंजिल ही नहीं थी शियद...।

" कैप्टेन सर,मैं भी अब चलती हूँ। " डॉ. नीलिमा कब उसके बगल में आकर खड़ी हो गयी थीं,उसे पता ही नहीं चला।

"आप थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं, डॉक्टर? " दूर से आती हुई आवाज सहसा नीलिमा के कानों से टकराई,तो वह चौंक पड़ी।उसकी ओर देखने लगी।

" रुकने की कोई वजह तो हो? " नीलिमा ने मानो अपने मन की बात कह दी हो।

" हूँ..." सिद्धांत ने सहमति में सिर हिलाया - " हर वक्त हर चीज के होने की कोई वजह हो ही, यह जरुरी तो नहीं, डॉक्टर ? "

" हाँ...। मगर, इतनी दूर यहाँ आकर आपके रहने की कुछ वजह तो होगी,कैप्टेन ? " नीलिमा ने उसके मन को छूने की कोशिश करते हुए प्रति प्रश्न किया - " कहीं सुरूचि !.....अतीत की यादों के सहारे एकाकीपन में जीने की कोशिश तो नहीं ? "

" नहीं....! हाँ...!" सिद्धांत के हृदय और मन ने अलग - अलग जवाब दिया - " मैं तो शांति और सुकून की तलाश में यहाँ आया था। मगर मैं उन यादों की गुंजलक से कभी बाहर निकल ही नहीं पाया।अतीत की यादों से दूर जाने की मैं जितनी ही कोशिश करता हूँ, उतनी ही वो आ -आकर मेरे पाँवों से लिपटती जाती हैं। सोचता हूँ, अगर सुरुचि को भूला दूँगा,तो मेरे पास रह ही क्या जाएगा?" सिद्धांत के मन की परतें खुलनी शुरु हो गई थीं।

" यादें जरुरी हैं जीने के लिए। मगर सिर्फ यादों के सहारे जीवन नहीं बिताया जा सकता, कैप्टेन। जीने के लिए हमें दु:ख भरे पलों को भुलाना पड़ता है। और फिर, यादें जब कमजोरी बन हमें एकाकीपन, खामोशी और अवसाद की ओर ले जाने लगें, तब उन यादों को अतीत के संदूक में बंद कर देना ही अच्छा होता है। " नीलिमा एक ही साँस में अपनी बात कह गयी। वर्षों पहले एक्सीडेंट में अपने मम्मी - पापा को खो देने के बाद वह खुद भी तो भावनाओं के इसी तूफान से गुजरी थी। फिर किसी तरह उसने अपने आप को संभाला था।उसने कहा - " हो सके तो निराशा के इस भंवर से बाहर निकलने की कोशिश करें, कैप्टेन। फिर आपको ये दुनिया खूबसूरत लगने लगेगी। ये नजारे आपको शांति और सुकून देंगे और नीरव खामोशी में भी जीवन के स्वर फूटेंगे। "

" क्या आप इन खामोशियों को स्वर देंगी, डॉक्टर ? " सिद्धांत बोल पड़े। 

सिद्धांत के शब्द वादियों से टकराकर सहसा नीलिमा के कानों में गूँजे,तो उसका रोम - रोम स्पंदित हो उठा। उसने भाव भरे नयन उठाकर सिद्धांत की ओर देखा - उनकी आँखों में आज उसे जिंदगी की चमक दिखाई पड़ी थी। सिद्धांत ने हाथ बढ़ाया, तो नीलिमा ने बढ़कर उनका हाथ थाम लिया।और.... उनके कदम " माउंटेन व्यू स्कूल " की ओर बढ़ चले। मन में छाया अंधेरा दूर हो चुका था। जीवन का वीराना अब प्रेम के उजालों से रौशन था। खामोशियों को स्वर मिल गये थे।


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