कहानी में कविता
कहानी में कविता


आज मैंने एक कविता लिखना शुरु किया।
बिखेर दो तुम मुझ पर लाल गुलाबी सारे रंग
बहने दो झर झर मुझे किसी पहाड़ी झरने की तरह
ख्वाबों के कुछ हसीन पँख भी तुम
मुझे दे दो
ताकि ऊँची उड़ान हौसलों की मैं ले पाऊँ
लेकिन फिर उसी कविता को बदलने का
खयाल मेरे ज़हन में आया।
क्यों कहूँ मैं किसी से की बिखेर दो मुझ पर
लाल गुलाबी सारे रंग?
नहीं कहना है किसी से भी
की मुझे पहाड़ी झरने सा बहने दो
नहीं माँगूँगी मैं किसी से भी ख्वाबों के वे हसीन पँख
मैं अपने दम हौसलों की ऊँची उड़ान भर लूँगी
मुझे लगा की ये वाली कविता ज्यादा अच्छी बन रही है।
क्यों औरतें हमेशा ही किसी पुरुष के सहारे की मोहताज होती है? क्यों वह खुद को कमतर मानती है?क्या वह अपने ख्वाबों को पूरा कर नही सकती?
अरे,अरे!! मैं फिर ट्रैक से हटने लगी हूँ।पहले ही मैं कविता से दूसरी कविता और फिर कहानी पर आ गयी हूँ ।
लोग यूँही नही कहते कि लेखक और कवियों का दिमाग घुमा होता है।
लेकिन समय के पहिये ने अब रफ़्तार पकड़ ली है।औरतें अब अपने हौसलों के पंखों से अपने ख्वाबों की उड़ान भरने लगी है।अब वह अपने एजुकेशन और कॉन्फिडेन्स से कभी साइन्टिस्ट बनकर satellite की लॉन्चिंग टीम का हिस्सा बनती है या फिर कभी फाइटर प्लेन उड़ाने लगती है।और बड़ी फर्म की डायरेक्टर बन बोर्ड रूम के इश्यूज को हैंडल करती है....