कहानी भुट्टे की
कहानी भुट्टे की


चिंगरियों पर जब भुट्टा भुनते देखा। पीले-पीले से सुनहले मोतियों की खदान-सा भुट्टा। बड़े कोमल, नायाब, बेशक़ीमती सामान की तरह प्रकृति ने सहेजकर, सम्भालकर इसे घूँघट में रखा। दुनिया की बुरी नज़रों से छुपाया। शायद माँ प्रकृति जानती थी इसकी नियति । छुपाती रही इसे दुनिया की नज़रों से और चुपके से सौंप दिया इसे इसके जन्मदाता को। पूरी हिफ़ाज़त से मुलायम, मखमली वस्त्रों में लपेट ऊपर से ओढ़ा दी थी चिकनी-सी, हरी-हरी चूनर।
विश्वास डोल गया जब नुचते देखा उसका आवरण,उसकी देह का ही मोल लगा बस बाज़ार में। ख़ूबसूरत सुनहरे जिस्म के मोती आग में चीख पुकार मचाते फट रहे थे। और जो ना फटे वो काले-काले धब्बेदार से हुए अपने ऊपर पड़े खट्टे और तीखे के दर्द से कराह रहे थे।
कहानी अभी भी बाक़ी थी भुट्टे की। अभी अपने जले, फटे मांस से “उसकी” भूख, “उसकी” तलब को मिटाना था। निष्पाप, निसहाय-सा बेचारा नोचा, काटा, उधेड़ा गया, हो गया निष्प्राण,अस्तित्वहीन। पीछे कुछ बचा तो बस उसका स्वाद और इच्छा, उस रस को, उस स्वाद को दोबारा चख पाने की।