पीपल
पीपल


पीपल उग आए थे उन मोटी-मोटी दीवारों में, पहली मंज़िल वाला पीपल, दूसरी मंज़िल वाले पीपल से बड़ा था। घर गली के जिस नुक्कड़ पर था उसी नुक्कड़ वाली दीवार पर बाहर झांकते से लटके थे वो पौधे।… मैं दादी के साथ जब भी छत पर जाती, उन पौधो को ज़रूर झांक कर देखती। ,मेरी उम्र तब शायद 4 साल से कम ही रही होगी।… छोटी थी तो बाहर झांकने में गिरने का डर होता था, तीसरी मंज़िल से सीधा नीचे गली में…सोचकर भी लगता था कि अगर गिरी तो ख़रबूज़े सी फट जाऊँगी ।
तब दादी प्यार से मुझे पकड़ कर वो पौधे दिखाती और मैं उन्हें देख बहुत खुश होकर कहती , “ दादी ! जब ये पौधे पेड़ बन जाएँगे तो बड़ा मज़ा आएगा। हम इन पर झूला डालकर झूलेंगे, और इसके छाँव में खेलेंगे।
मेरी बात ध्यान से सुन दादी बड़े प्यार से मुझे समझाती
“ ये पौधें तो दीवार से उखाड़ने होंगे। अगर यें पेड़ बने तो पूरी दीवार ढह जाएगी और मकान नही रहेगा”
दादी की बातें मुझे जब समझ आती तो मैं उसकी कल्पना से ही डर जाती थी।
उन पौधों के साथ क्या हुआ ये तो मुझे याद नही लेकिन इतना ज़रूर समझ गई कि आज भी बड़े होने के डर से उनके भावी वर्चस्व, और विशाल व्यक्तित्व के डर से, कितने ही जीवों को विकास व वृद्धि के समय में ही समाप्त कर दिया जाता है।