कहां तो तय था...!
कहां तो तय था...!
देश अपने सर्वांगीण विकास के पथ पर अग्रसर है। ...चलिए ठीक है, अच्छी बात है । लेकिन देश के कुछ भाग अब भी अशांत क्यों हैं ? छत्तीसगढ़, आन्ध्रा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और ..और अब तो उत्तर प्रदेश भी, इनके कुछ पिछड़े इलाक़ों में असंतोष की रह - रह कर उठनेवाली चिंगारियां कभी कभी डरा क्यों दिया करती हैं ? ऐसा तो नहीं कि राख़ में दबी आग शोला बनकर भड़कने वाली है?
देश में हालांकि डकैत गैंग के किस्से लगभग समाप्त हो चुके थे लेकिन वे परिस्थितियां तो अब भी जस की तस बनी ही हुई थीं जिनसे कोई साधारण नागरिक दुर्दांत अपराधी बनने को मजबूर हो जाये।
उसी दौर में ऐसा ही एक वाकया समाचार पत्रों और मीडिया की सुर्खियों में छा गया। राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीहड़ इलाके भिंड ,मुरैना,धौलपुर, इटावा की कुछेक घटनाओं ने सोचने को विवश कर दिया कि तमाम विकसित अनुसंधान, दंड विधान,सूचना तंत्र ,न्याय प्रणाली, कानून के बावज़ूद भी क्या हम आदिम युग की ओर लौटते जा रहे हैं? क्या देश का आम नागरिक अब भी सरकार और व्यवस्था से न्याय की गुहार लगाने की जगह ख़ुद हाथ में बन्दूख उठाकर अपने लिए इंसाफ़ की तलाश में निकल पड़ रहा है। उधर छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में भी इन्हीं हालातों ने नक्सलियों को बढ़ा दिया है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंसा में विश्वास करने लगे हैं। उन्हें कुछ विदेशी संगठनों का सहयोग मिल जाने से वे कुछ इलाकों में समानांतर सरकार तक चलाने लगे हैं।
मुम्बई में डकैतों के किस्से भी एक दौर में हाट केक बने रहे। कई डकैतों की जीवन पर फिल्में भी बनी रहीं। पुतलीबाई, सुल्ताना, बैंडिट क्वीन, पानसिंह तोमर आदि फिल्में डकैतों की जीवन पर ही तो आधारित हैं, जो काफी चली भी। इसके अलावा कई अन्य फिल्मों में चंबल के बीहड़ की भयावहता और प्राकृतिक खूबसूरती को फिल्माया गया है। बागी बनीं पुतलीबाई,फूलन देवी, पानसिंह तोमर, मलखानसिंह, मानसिंह सहित कई ऐसे डकैत हुए, जिनका बीहड़ में हुक्म चलता था। इसके पीछे बंदूक की ताकत तो थी ही, किंतु एक कारण उनका न्यायप्रिय सिद्धांत भी था। गरीबों की आर्थिक मदद, जुल्मों से बचाने आदि के सैकड़ों किस्से हैं, जिनमें कुछ बनावट तो कुछ सत्यता भी हो सकती है। किंतु कुछ तो बात है कि तब से अब तक बीहड़ में बागी जिंदा है और ज़िन्दा ही नहीं स्थानीय लोगों द्वारा उन्हें शरण भी दिया जाता रहा है। इन दिनों धौलपुर, इटावा, मुरैना, भिंड आदि इलाकों में बंदूक के बल पर एक युवा डकैत हरिहर सिंह उर्फ़ गब्बर ने खूब दहशत फैला रखी है ।
"लेकिन ऐसा है क्या इन इलाकों में कि यहीं पर ऐसी पटकथाएं जन्म लेती है?" आंख पर चश्मा चढ़ाये और हाथ में पेपर बांच रहे राकेश बाबू बोल उठे थे।
सामने बैठे उनके बकबकहा मित्र दीन दयाल को अपनी विद्वता बघारने का मानो सुअवसर मिल गया था।
"अरे राकेश बाबू...बीहड़ की उत्पति हिमालय के समय से ही बताई जाती है। इसमें अनगिनत संख्या में मिट्टी के टीले हैं। जो चंबल नदी चढ़ने पर पानी के तेज बहाव बरसात से आकृति बदलते रहते हैं। चंबल नदी की निकटता के कारण चंबल के इलाकों को ही बीहड़ कहा जाता है। राजस्थान में धौलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, उत्तर प्रदेश में इटावा, मध्यप्रदेश में मुरैना, भिण्ड, श्योपुर आदि जिलों तक यह बीहड़ फैला हुआ है। बीहड़ों की प्राकृतिक बनावट ऐसी है कि जानकार व्यक्ति मिनटों में छिप जाता है। इसलिए पुलिस बीहड़ की भूल भूलैया पगडंडियों में खो जाती है और डकैत आराम से अगली वारदातें करते रहते हैं। "दीनदयाल ने अपना सारा चम्बली ज्ञान उड़ेल दिया ।
"लेकिन शासन है,कानून है,अदालतें हैं..लोग उनके पास क्यों नहीं जाना मुनासिब समझते?"राकेश बाबू ने अगला सवाल दाग दिया ।
" इन गांवों में ताकतवर लोगों से बदला लेने में ना कानून साथ देता है, ना भगवान और न ही अदालत की चौखट। चंबल में हर कमजोर के लिए ताकत हासिल करने का एक ही शॉर्टकट है और वो है चंबल की डांग में बैठकर राईफलों के सहारे अपने दुश्मनों पर निशाना साधना। " दीनदयाल ने आनन फानन में अपना पक्ष रख दिया।
राकेश बाबू डकैत हरिहर के समाचार पर केन्द्रित हो गये जिसमें विस्तार से बताया गया था कि इन दिनों उसकी बदूंकें आग उगल रही थीं और निशाना बन रहे थे उसके एक एक दुश्मन। बाप के मरने के बाद जब उसकी मूंछें अभी उग ही रही थीं कि किसी ने उसके खेत हड़प लिये थे तो किसी ने उसकी बहन की इज़्ज़त लूट ली थी। उसने थाना पुलिस सब जगह न्याय के लिए दस्तक दी लेकिन हर जगह सबल लोगों ने अपना प्रभाव डाल दिया । फिर उसने हताशा में अपने साथियों के साथ पहले छोटी छोटी वारदातें करना शुरू किया और पुलिस के रिकॉर्ड में उसकी एंट्री शुरू हुई। नीमगांव थाने में 140/60 पहला अपराध था जो हरिहर सिंह गैंग के खिलाफ पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। उसी दौरान गौथर थाने में दूसरा अपराध दर्ज हुआ सरेआम पांच लोगों के कत्ल का .....और बस इसके बाद ही शुरु हो गई कहानी उसके गहनतम हिंसक अपराधों के लगातार चल रहे सिलसिले की जिससे पूरा देश थर्रा उठा है।
एक से एक आधुनिक हथियार और गब्बर का पुलिस से सीधी टक्कर लेने का दुस्साहस उसे किसी ज़माने के खूंखार डकैत मोहर सिंह की तरह चंबल का बेताज बादशाह बनाने को आमादा है। मेहगांव के लोगों में गब्बर के कारनामों में मोहर का प्रतिबिम्ब नज़र आने लगा है।
तीनों राज्य की पुलिस और केन्द्र सरकार के अधिकारियों की बैठक में तय किया जा चुका है कि एक रेपिड एक्शन फोर्स बनाई जाय और उसमें सी.आई.डी.की विशेष भूमिका रहेगी जो साझे रणनीतिक एक्शन से नासूर बनते जा रहे इस युवा डकैत हरिहर सिंह उर्फ़ गब्बर का ख़ात्मा कर दे।
राकेश बाबू को चिंता इस बात की है कि सरकार क्यों नहीं उन परिस्थितियों में सुधार ला रही है जिनसे हरिहर उर्फ़ गब्बर जैसे डकैत आज भी पैदा हो रहे हैं ....होते ही जा रहे हैं ?
उन्हें याद आ रही हैं देश के संजीदा शायर दुष्यंत कुमार की वे कालजयी पंक्तियाँ जो आजादी के 73 साल बाद भी सामयिक हैं .......
" कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये ,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये !
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये !
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये !
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही ,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये !
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता ,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये !
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये. ! "